भारतीय संस्कृति विश्व की सबसे प्राचीन संस्कृति है, सनातन धर्म शाश्वत तरीके से गतिशील है।
आज के आधुनिक युग में विश्व के हर कोने से लोग भारत के धर्म और संस्कृति में रुचि ले रहे हैं। अभी हाल ही में इस दीपावली पर अमेरिका पहले से भी ज्यादा सेलिब्रेट करने के साथ इसकी प्रशंसा करता दिखाई पड़ा।
सनातन हिन्दू धर्म के विरोध में विश्व में अनेकों मत, पन्थ, मजहब के अलावा भारत में ही एक खास वर्ग बन गया है जो हिन्दू धर्म के विरोध में है। यह विरोधाभास है कि भारत की राजनीति शुरू से ही हिन्दू धर्म के विरोध में रही है। क्योंकि नकल के संविधान का एक उद्देश्य ही है भारत को नास्तिक बनाना। लोगों पर धर्म से अधिक संविधान की सर्वश्रेष्ठता लोकतंत्र के नाम पर आरोपित करना।
आज भाजपा के उभार से पुराने सेक्युलर भी अपने को हिन्दू कहते नजर आ रहे हैं जो अपने को अभी तक इंसान, सेक्युलर, बौद्धिक, मार्डन, कम्युनिस्ट न जाने क्या-क्या कहते फिरते थे। सोचने का विषय है कि भारत बाह्य शत्रुओं से संघर्ष करे या आंतरिक शत्रुओं से?
विश्व में सिर्फ भारत में, खासकर हिंदुओं में ही ऐसे लोग मिलेंगे जिन्हें अपनी ही संस्कृति और धर्म से द्रोह है। अब समझिये कि यह द्रोह क्यों है? प्रचीन काल से भारत में एक ऐसा वर्ग रहा है जिसे सत्ता प्राप्त करने की प्रबल आकांक्षा रही है, उसके लिए वह कुछ भी करने को तैयार रहा है। विदेशियों के लिए अपने देश की जासूसी भी। उन्ही के वंशज आज भी वही कार्य कर रहे हैं।
कोई नीली छतरी, कोई लाल तो कोई पंजा पकड़ लिया है। सूरतेहाल यह कि देश रहे या न रहे सत्ता मेरी रहे, मेरी जाति केंद्र में हो।
सबसे बड़ा आतंकवादी वह है जो देश के लाभ-हानि से अधिक अपनी जनसंख्या वृद्धि में लगा रहे। यह बढ़ती हुई जनसंख्या सभी समस्याओं का पर्याय बन जा रही है। लोकतंत्र में लगता है कि जनसंख्या अधिक करने पर सत्ता का अपहरण स्वमेव हो जायेगा।
भारत के अंदर धर्म-संस्कृति का विरोध करने वालों के पीछे सत्ता की भावना छिपी है। सबसे बढ़कर अंग्रेजी व्यवस्था भारतीयता के विरोध में है, वह भारत में काले अंग्रेज चाहती है जिसकी श्रद्धा लंदन और पोप में रहे।
भारतीय मूल के लेखक वी० एस० नायपाल सही लिखते हैं कि विश्व में एक मात्र भारत देश है जहाँ के इतिहासकार अपने देश को गुलाम बनाने वाले देश को आधार मानकर इतिहास लिखते हैं। अंग्रेजों द्वारा लिखित इतिहास आज भारत का अभिलेखीय प्रमाण है। भारत का इतिहासकार उन्ही अंग्रेजों के लिखे इतिहास को सत्य मानता है और उसी को अपनी पीढियों को पढ़ाता है, यदि वह पढ़ कर भारत को गाली देने लगा, समझिये एक आधुनिक मनुज तैयार हो गया।
भारत की मानसिक पकड़ को भारत से बाहर के विदेशी निर्धारित करते हैं। नोबल जैसा पुरस्कार अब तक जितना दिया गया है उसे देखिये, यह किन देशों को अधिकतम दिया गया है? फिर भारत का पढ़ा लिखा आदमी इसी पुरस्कार का सपना सजो लेता है।
भारत को मानसिक रूप से आज भी गुलाम बनाने वाले देश ब्रिटेन पर विचार करिये, उसने अपने भौतिक विकास के लिए आधे विश्व को उपनिवेश बना दिया था क्योंकि उसको लंदन और लंकाशायर जैसे शहरों का विकास करना था। 18वीं सदी तक ब्रिटेन के लोग शौच कर पालीथीन में रखते थे। वे भारत पर 200 वर्षों तक शासन कैसे कर सकते थे? क्योंकि भारत में ही कुछ लोग ऐसे थे, जिन्हें सत्ता की नजदीकी चाहिए थी।
आप को क्या लगता है, विकास का पर्याय शहरीकरण है? दिल्ली, मुम्बई जैसे मेट्रोपोलिटन सिटी बना कर क्या मनुष्यता का विकास हो जायेगा?
वास्तव में भारतीय संस्कृति का वाहक ‘ग्राम्य भारत’ और ‘माता’ रही है। भारत की सबसे मजबूत ईकाई परिवार को बिखण्डित करने के लिए माता को भारत के विरुद्ध, देह सुविधा के नाम पर खड़ा किया गया। वह बड़े अभिमान से अपनी तुलना फिल्मी पतुरिया से करने लगी। हाडा रानी, लक्ष्मीबाई जैसे वीरांगनाएँ उसके लिए गाली का पर्याय बन गयी हैं। यहाँ तक कि सनी लियोनी से तुलना को भी वह स्वीकार ली। यह बौद्धिक दिवालयापन है।
एक विषय जो सदा जीवन रहेगा किसका विकास और कितना विकास? भौतिक विकास के बीच संवहनीय विकास की बात मजबूती से होनी प्रारम्भ है। विकास के नाम पर मनुष्य वस्तु बना दिया गया, उसकी जीवंतता गायब है, वह जून के महीने में भी काला कोट और टाई लगाये घूम रहा है।
भौतिक विकास नगर-शहर-सिटी तक पहुँच गया है, लेकिन यह विकास समृद्धि नहीं बन सकता है। भौतिक परिसम्पत्तियों का विकास कर मानवीय पूंजी और वास्तविक बौद्धिक पूंजी को कैसे सुरक्षित रखेगे।
भारत की एकमात्र समस्या है इसकी मानसिक गुलामी। भारत का ही व्यक्ति भारतीय ‘मूल’ का बन कर नोबल कैसे पा जाता है? छोड़िए आप विचार न करेंगे…आप अपनी जाति के लिए सोच रहे हैं।