मृत्यु के अनंतर इस लोक से पितृलोक में मनुष्य किस प्रकार जाते हैं फिर किस प्रकार वहाँ से लौटते हैं – यह आवागमन प्रक्रिया वेदों से लेकर उपनिषद, स्मृति व पुराणों में विस्तार से वर्णित है। सामवेद के ताण्ड्यमहाब्राह्मण के छान्दोग्यउपनिषद, बृहदारण्यकउपनिषद, श्रीमद्भगवद्गीता, वेदान्तदर्शन, महाभारत, मनुस्मृति आदि में स्पष्ट दिया है कि मृत्यु के अनंतर चार प्रकार का मार्ग है – कैवलव्य, अर्चिमार्ग, धूममार्ग और उत्पत्ति-विनाश मार्ग। इसमें से अर्चिमार्ग और धूममार्ग में आत्मा की गति होती है जबकि उत्पत्ति-विनाश मार्ग और कैवलव्य (मुक्ति अथवा मोक्ष) यह दोनों अगति के मार्ग हैं, इनमें आत्मा की गति नहीं होती।
१. कैवलव्य अथवा मोक्ष – जो लोग पूर्ण ज्ञाननिष्ठ सद्योमुक्ति के पात्र हैं (योऽकामो निष्काम आप्तकाम आत्मकामो), उनका आना जाना कहीं नहीं होता – “न तस्य प्राणा उत्क्रामन्ति” अर्थात ऐसे लोगों के प्राणों का उत्क्रमण नहीं होता, “ब्रह्मैव सन् ब्रह्माप्येतति” – वह इस शरीर में ही ब्रह्म रहकर ब्रह्म को प्राप्त होता है। जो महापुरुष जीवनकाल में ही परमात्मा को प्राप्त करते हैं, वह निरंतर परब्रह्म परमात्मा में ही स्थित रहते हैं। जब प्रारब्ध पूरा होने पर शरीर का नाश होता है, उस समय शरीर, अन्तःकरण, इंद्रियाँ सब कलाओं के साथ उस परमात्मा में विलीन हो जाती हैं।
२. अर्चिमार्ग को देवयानमार्ग, शुक्लमार्ग, उत्तरमार्ग, देवपथ, ब्रह्मपथ आदि भी कहा जाता है। इस मार्ग से गया मनुष्य वापस नहीं आता है। प्रकाश-स्वरूप अग्नि का अधिपति देवता, दिन का अधिपति देवता, शुक्लपक्ष का अधिपति देवता और उत्तरायण का अधिपति देवता है। छः महीने का उत्तरायण देवताओं का एक दिन होता है।
इस काल/मार्ग/गति से गए हुए ब्रह्मवेत्ता पुरुष, ऊर्ध्वरेता नैष्ठिक ब्रह्मचारी, अरण्यवासी आदि सूर्यमण्डल को प्राप्त होते हैं, तथा ब्रह्म को प्राप्त होते हैं।
आत्मा की यह गति उत्तर दिशा के ओर होती है। मृत्यु के बाद प्राण अर्चि (अग्नि) के अभिमानी देवता को प्राप्त होते हैं, उनसे दिवसाभिमानी देवताओं को, दिवसाभिमानी देवताओं से शुक्लपक्षाभिमानी देवताओं को, उनसे जिन छः महीनों में सूर्य उत्तर की ओर रहता है, उन छः महीनों को। उन महीनों से संवत्सर को, संवत्सर से आदित्य (सूर्यमंडल) को, आदित्य से चंद्रमा को और चंद्रमा से विद्युत को प्राप्त होते हैं। यहाँ से प्राण ब्रह्म को प्राप्त करा दिए जाते हैं।
अर्थात इस प्रकार देवयानमार्ग की भी दो शाखाएं हैं – ब्रह्मपथ और देवपथ। ब्रह्मपथ में जाने से मुक्ति होती है और देवपथ में जाने से जीवात्मा देवता बनता है।
महाभारत में भीष्म पितामह कहते हैं – “मैं सूर्य के दक्षिणायन रहते किसी प्रकार यहाँ से प्रस्थान नहीं करूंगा, सूर्य के उत्तरायण होने पर ही मैं उस लोक की यात्रा करूंगा, जो मेरा पुरातन स्थान है।” और उन्होंने उत्तरायण, माघ माह शुक्लपक्ष की अष्टमी को प्राण त्याग दिए और वसुओं के स्वरूप (अपने मूल स्वरूप) में प्रविष्ट हो गए। इसलिए वसु आठ ही देखे जाते हैं, यदि स्वरूप में प्रविष्ट न होते तो भीष्मजी को लेकर नौ वसु हो जाते। इसका अर्थ है कर्मों का भोग समाप्त होने पर सभी अपने कारण में ही विलीन हो जाते हैं।
३. धूममार्ग को पितृमार्ग, कृष्णमार्ग, दक्षिणमार्ग आदि भी कहा जाता है। इस मार्ग से गया मनुष्य पुनः लौट आता है, उसका पुनर्जन्म होता है। धूम का अधिपति देवता, रात्रि का अधिपति देवता, कृष्णपक्ष का अधिपति देवता और दक्षिणायन का अधिपति देवता है। इस काल/मार्ग/गति से गया मनुष्य, सकाम योगी चन्द्रमण्डल को प्राप्त होकर लौट आता है। १५ दिनों का शुक्लपक्ष पितरों की एक रात होती है, १५ दिनों का कृष्णपक्ष पितरों का एक दिन होता है।
पितृमार्ग की भी दो शाखाएं हैं – पितृपथ और नरकपथ। पितृपथ से जीव चंद्रमंडल को प्राप्त होता है जिसे पितृस्वर्ग भी कह सकते हैं, यह ऊर्ध्वगति है। और नरकपथ से वह नरक को प्राप्त होता है। इसीलिए कहा जाता है कि पितरों का पतन होने पर उन्हें अधोगति प्राप्त होती है, यह अधोगति ही नरक है।
विद्या की अधिकता से ऊर्ध्वगति और कर्म (अविद्या) की अधिकता से अधोगति होती है। दोनों दशाओं में आत्मा विद्या और कर्म दोनों से युक्त रहता है। विद्या बढ़ने पर कर्मों का बल घटने लगता है किन्तु कर्मों के बढ़ने पर विद्या का नाश नहीं होता है। जब विद्या तथा कर्म का समुच्चय रहता है तभी आत्मा की गति होती है। जिस समय विद्या की अधिकता से कर्म विलुप्त हो जाते हैं तो आत्मा विशुद्ध हो जाता है (“न तस्य प्राणा उत्क्रामन्ति, अत्रैव समवीलयन्ते” अर्थात उस आत्मा का उत्क्रमण नहीं होता, वह आत्मा यहाँ ही परमात्मा में मिल जाता है) तथा जिस समय कर्म पूर्णतया विद्या को आवृत्त कर लेते हैं (उत्पत्ति-विनाश मार्ग) – दोनों ही अवस्था में आत्मा की गति नहीं होती।
जो गृहस्थलोग इष्ट (अग्निहोत्र वैदिक कर्म), पूर्त्त (वापी, कूप, बगीचे आदि लगवाना) और दत्त (दान) ऐसी उपासना करते हैं, वे धूम को प्राप्त होते हैं। धूम से रात्रि को, रात्रि से कृष्णपक्ष को, कृष्णपक्ष से जिन छः महीनों में सूर्य दक्षिण मार्ग से जाता है, उनको प्राप्त होते हैं। ये लोग संवत्सर को प्राप्त नहीं होते हैं। दक्षिणायन के महीनों से पितृलोक को, पितृलोक से आकाश को और आकाश से चंद्रमा को प्राप्त होते हैं। यह चंद्रमा राजा सोम है, लोग यहाँ देवताओं के उपभोग्य होकर सुख से देवताओं के साथ क्रीडा करते हैं।
यदि इस मार्ग से वापस आते हैं तो क्या सभी कर्मों का क्षय हो जाता है?
वहाँ जिन कर्मों के कारण मृतात्माएँ चंद्रमंडल पर आरूढ़ होते हैं उन कर्मों का क्षय होने तक रहकर, जिस मार्ग से गए थे उसी मार्ग से वापस आ जाते हैं। अर्थात कुछ कर्म शेष रह जाते हैं जिनका भोग पुनर्जन्म से होता है।
एक ही जन्म में समस्त कर्मों का क्षय हो जाना संभव नहीं है, क्योंकि कुछ कर्म (जैसे ब्रह्महत्या आदि) अनेक जन्मों के आरंभक होते हैं, अतः “तं विद्याकर्मणी समन्वारमेते पूर्वप्रज्ञा च” – बृहदारण्यकउपनिषद के अनुसार विद्या, कर्म तथा पूर्वजन्म की वासना भी उसका अनुगमन करते हैं। वापस आए जीवों में जो अच्छे आचरण वाले होते हैं वे शीघ्र ही उत्तम योनि को (ब्राह्मण, क्षत्रिय आदि) प्राप्त होते हैं, जो अशुभ आचरण वाले होते हैं वे तत्काल अशुभ योनि (कुत्ते, सूकर आदि) को प्राप्त करते हैं।
४. उत्पत्ति-विनाश मार्ग – किस कारण परलोक भरता नहीं? इस संसार गति से घृणा क्यों करनी चाहिए? जो जीवात्मा ऊपर दिए गए दोनों मार्ग से नहीं जाते तथा जिनमें थोड़ा सा भी विद्या का आभास रहता है, वे इसी लोक में क्षुद्र (जिनमें अस्थि नहीं होती) और बारम्बार आने वाले प्राणी होते हैं (“जायस्व म्रियस्व”)। यदि थोड़ा सा भी विद्या का आभास नहीं होता तो वे वनस्पति, औषधि योनि में चले जाते हैं। इन दोनों प्रकार के जीवों की अगति होती है, ये पृथ्वी पर ही जन्मते और मरते रहते हैं। ये अगति वाले जीव दैवयोग से ही इन योनियों से दूसरी योनियों में जन्म ले सकते हैं, अर्थात क्षुद्र जीव अस्थि वाले जीव की दशा में आ जाएं, औषधि-वनस्पति ऊंचे वृक्ष जैसे गूलर आदि की दशा में आ जाएं तो वे गति के मार्ग में आ सकते हैं।
क्योंकि ज्ञान और कर्म के अनाधिकारी परलोक नहीं जाते और दक्षिणमार्ग-गामी भी वापस लौट आते हैं इसलिए परलोक कभी नहीं भरता – “तेनासौ लोको न सम्पूर्यत”। ये क्षुद्र जीव नौकाहीन अगाध सागर के समान घोर अंधकार में प्रविष्ट कर दिए जाते हैं, इसलिए इस प्रकार की संसार गति से घृणा करनी चाहिए।
शरीर में ही आत्मा के उत्क्रमणकाल से ही कृष्णमार्ग या शुक्लमार्ग का आरंभ हो जाता है। यह आत्मा किस मार्ग को चुनेगा यह कर्म, नाड़ी, दिक्, आकाश और काल पर निर्भर करता है।
अब प्रश्न यह है कि श्राद्ध कर्म किस प्रकार आत्मा की गति को प्रभावित करता है, और श्राद्ध करना क्यों आवश्यक है?
श्राद्ध का वैज्ञानिक संबंध आत्मा के चंद्रलोक गति से है। चन्द्र का संबंध सोम से है इसीलिए श्राद्ध में उन्हीं वस्तुओं को प्रशस्त माना गया है जिनमें सोम की प्रधानता हो। जैसे गौ दुग्ध, दही, घृत, गंगाजल, धान आदि।
“आ यात पितर: सोम्यासो” – हे पितरों! आप सोमरस प्राप्त करने योग्य हो। – अथर्ववेद १९.६२
दाह संस्कार के बाद सबसे पहले दस दिनों में दशगात्र-पिण्ड दिए जाते हैं, ‘गात्र’ अर्थात शरीर बनाने वाले पिण्ड। शरीर के अंदर रहने वाला जीवात्मा मृत्यु के बाद तुरंत वायवीय शरीर धारण कर लेता है, इसको “आतिवाहिक वायवीय शरीर” कहते हैं। पुत्रादि द्वारा जो दशगात्र के पिण्ड दान दिए जाते हैं, उस पिण्डज शरीर से वायवीय शरीर एकाकार हो जाता है। यदि पिण्डज शरीर का साथ नहीं होता है तो वायुज शरीर कष्ट भोगता है। गरुडपुराण के अनुसार नौ दिन और रात्रि में वायुज शरीर अपने अंगों से युक्त हो जाता है और दसवें पिण्डदान से उस शरीर में पूर्णता, तृप्ति और भूख-प्यास का उदय होता है –
अहोरात्रैस्तु नवभिर्देहो निष्पत्तिमाप्नुयात्।
शिरस्त्वाद्येन पिण्डेन प्रेतस्य क्रियते तथा॥
द्वितीयेन तु कर्णाक्षिनासिकं तु समासतः।
गलांसभुजवक्षश्च तृतीयेन तथा क्रमात्॥
चतुर्थेन च पिण्डेन नाभिलिङ्गगुदं तथा।
जानुजङ्घं तथा पादौ पञ्चमेन तु सर्वदा॥
सर्वमर्माणि षष्ठेन सप्तमेन तु नाडयः।
दन्तलोमान्यष्टमेन वीर्यन्तु नवमेन च॥
दशमेन तु पूर्णत्वं तृप्तता क्षुद्विपर्ययः।
मध्यमां षोडशीं वच्मि वैनतेय शृणुष्व मे॥ – गरुडपुराण धर्मकाण्ड ५.३३-३७
प्रकृति के नियम के अनुसार जो अन्न हम खाते हैं, वह रूपांतरित हो जाता है और कुछ समय बाद शरीर में क्षीणता आ जाती है, अर्थात पुनः भोजन की आवश्यकता पड़ती है। किन्तु मृतात्मा जो लोकान्तर में जा रहे हैं, उनके वाहिक शरीर में प्रकृति-नियमानुसार जो क्षीणता आती है, उसकी पूर्ति करने की शक्ति उनमें नहीं होती है। इसलिए श्राद्ध करने वाला कहता है – “हे पितृलोक के पथिकों! अग्नि ने आपका एक शरीर जलाकर आपसे छीन लिया है और सूक्ष्म शरीर से पितृलोक भेज रहा है। उस छीने हुए शरीर को मैं पुनः पुष्ट करता हूँ। आप साङ्ग बनकर स्वर्ग में आनंद करिए।“ इन शरीरों के प्रमाण, वय (आयु), अवस्था तथा आकृतिविशेष आदि श्राद्ध करने वाले की श्रद्धा एवं देह प्राप्त करने वाले के कर्मानुसार होता है।
यद् वो अग्निरजहादेकमङ्गं पितृलोकं गमयञ्जातवेदा:।
तद् व एतत् पुनरा प्याययामि साङ्गा: स्वर्गे पितरो मादयध्वम्।।
– अथर्ववेद १९.६४
“हे प्रेत! आपके जिस अङ्ग को अग्नि ने दूर फेंक कर भस्म नहीं किया है, उसे मैं पुनः अग्नि में डालकर वृद्धि करता हूँ। आप पूर्ण अङ्ग वाले होकर स्वर्ग की ओर गमन करते हुए प्रसन्नता प्राप्त करिए।”
गरुडपुराण के अनुसार इन शरीरों की यात्रा ३४८ दिनों में पूरी होती है, जो पापी होते हैं उन्हें इस मार्ग में ही अत्यंत कष्ट भोगना पड़ता है, जो सत्कर्मी हैं वे बिना कष्ट इस यात्रा को तय करते हैं।
जहाँ तक भूवायु का प्रभाव होता है, वहाँ तक वायु के प्रभाव से बचाने के लिए सोम की पुष्टि अत्यंत आवश्यक होती है इसलिए आरंभ में प्रतिदिन पिण्ड दिया जाता है। शास्त्रों में प्रतिदिन कुछ अन्न, जल-घट दान का विधान है, जिससे यदि कुछ न्यूनता हो तो वह पूर्ण होती रहे। इसके बाद प्रतिमास तथा वार्षिक श्राद्ध करने का विधान है, क्योंकि एक बार भूवायु के दबाव से निकलकर यह पितृलोक के पथ पर आगे बढ़ जाता है, तो अन्न सोमादि की आवश्यकता पहले जैसे नहीं रहती है। यदि श्राद्ध न किया जाए तो पितरों की गति रुक जाती है और वे बीच में ही रुके रह जाते हैं।
यजुर्वेदीय मन्त्र (३.५१) “अक्षन्नमीमदन्त ह्यव प्रिया अधूषत” में कहा गया है कि पितृयज्ञसंज्ञक कर्म में जो पितर हैं, उन्होंने हमारे दिए हुए हवि का भक्षण किया और संतुष्ट होकर हमारी भक्ति को देखकर अपना शिर हिलाकर अपनी प्रसन्नता व्यक्त की।
पहला भाग : नमो व: पितरो!
नोट: श्राद्ध मध्याह्न के बाद आठवें मुहूर्त में और अमावस्या में ही क्यों किया जाता है? श्राद्ध में दिया गया हव्य कव्य पदार्थ पितरों को पितृलोक में कैसे मिलता है? जो पितर अन्य योनियों को प्राप्त हो गए उन्हें श्राद्ध अन्न कैसे मिलता है? गया तीर्थ का क्या महत्त्व है? इन प्रश्नों का उत्तर श्रद्धे श्रद्धापयेह न:! में।
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