गोधन पर निर्भर मानव जीवन का अस्तित्व

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गाय को वैदिक काल से ही भारतीय धर्म, संस्कृति और सभ्यता का प्रतीक माना गया है। वैदिक सनातन धर्म के जनक वेद स्वयं गौ माता को नमन करते हैं।

नमस्ते जायमानायै जाताया उत ते नमः।
बालेभ्यः शफेभ्यो रूपायाघ्न्ये ते नमः॥ – अथर्ववेद १०/१०/१

हे अवध्य गौ, तेरे स्वरूप के लिए प्रणाम है। ऋग्वेद १/१५४/६ के अनुसार ‘जिस स्थान पर गाय सुखपूर्वक निवास करती है, वहां की मिट्टी तक पवित्र हो जाती है, वह स्थान ‘तीर्थ’ बन जाता है’।

सनातन धर्म में जन्म से मृत्यु पर्यंत समस्त हवन – पूजन आदि धार्मिक कृत्यों में पंचगव्य और पंचामृत की अनिवार्य अपेक्षा रहती ही है। जीवन में कम से कम एक बार भी गोदान कितना महत्वपूर्ण है यह भी हम जानते हैं। इस प्रकार सनातन धर्म से जुड़े लोग तो गाय की उपयोगिता और महत्व को धर्म के माध्यम से समझते हैं। यह भी जानते हैं कि “सर्वे देवा: स्थिता देहे सर्वदेवमयी हि गौ:” अर्थात, गाय के शरीर में सभी देवताओं का वास है इस प्रकार गाय सर्वदेवमयी है।

भारतीय संस्कृति यज्ञ प्रधान है। यज्ञ के आधार हैं ‘मंत्र’ और ‘हवि’। जिनमें मंत्र ब्राह्मण के मुख में निवास करते हैं तो हवि गाय के शरीर में। हवि के अभाव में यज्ञ की कल्पना भी सम्भव नहीं है। इन्ही सब कारणों से गाय भारतीय धर्म और संस्कृति की मूलाधार रही है।

एक आंकड़ें के अनुसार भारत के कुल क्षेत्रफल का लगभग ५१ फीसदी भाग पर कृषि, ४ फ़ीसदी पर चरागाह, लगभग २१ फीसदी पर वन और २४ फीसदी बंजर और बिना उपयोग की भूमि है।

१९६० के बाद कृषि के क्षेत्र में हरित क्रांति के साथ नया दौर आया। विकास के ऐसे साधन अपनाए गए जो त्वरित लाभ तो देने वाले थे लेकिन उनका दूरगामी परिणाम बड़ा घातक था। तब उर्वरकों के रूप में जो गाय के गोबर आदि का प्रयोग होता था उसकी जगह कृत्रिम रासायनिक खादों को प्राथमिकता दी गई। देशी गायों के स्थान पर अधिक दूध देने वाली विदेशी नस्ल की जर्सी आदि गायों को प्राथमिकता दी गई। जिनके न तो दूध में ही देशी गायों की तरह पौष्टिकता होती है और न ही उनका कृषि में ही प्रयोग हो सकता है। जिसके कारण यही २४ फीसदी वाले भाग में समय के साथ – साथ बढ़ोत्तरी होती जा रही है।

इसका मुख्य कारण है खेती में बढ़ते कृत्रिम रासायनिक खाद के माध्यम से मिट्टी की उर्वरा शक्ति का दिनों दिन गिरते जाना। इस में भी आधुनिक कृषि में धरती की ऊपरी परत में उर्वरा शक्ति कम होने पर आधुनिक मशीनों द्वारा खेतों की मिट्टी पलटने का कार्य किया जाता है जिससे कृषि योग्य मिट्टी की पूरी की पूरी पेटी ही उर्वरा शक्ति विहीन हो जाती है।

आंकड़ो पर ध्यान दें :

१९२६ की रॉयल कमीशन की कृषि रिपोर्ट के अनुसार प्रति १०० एकड़ भूमि के लिए २० बैलों की आवश्यकता पड़ती है। ‘कैटल मार्केटिंग रिपोर्ट’ १९४६ के अनुसार इस हिसाब से ८ करोड़ ६ लाख ५ हज़ार बैलों की आवश्यकता है इसके सापेक्ष्य में १९६१ की पशुगणना के अनुसार उस समय देश में ६ करोड़ ८६ लाख एक हज़ार ६१४ कार्यक्षम बैल उपलब्ध थे।

२०१९ की रिपोर्ट के अनुसार भारत में कुल गोधन की संख्या १९ करोड़ २४ लाख ५ हज़ार है जिसमें से १४ करोड़ ५१ लाख २ हज़ार गाय और ४ करोड़ ७३ लाख ३ हज़ार बैल हैं। लेकिन कृषि के योग्य बैलों की संख्या न के बराबर है क्योंकि कृषि के लिए वत्सप्रधान एकांगी नस्ल के गोधन का प्रयोग होता है, इनकी संतान कृषि कार्य के लिए उपयोगी होती हैं परंतु इस नस्ल की गाये दूध कम देती है। गाय भले ही दुधारू हो या न हो, खाद तो वह जीवन पर्यंत देती ही है लेकिन व्यावसायिक उपयोग न होने के कारण इन्हें आज कत्लखानों में भेज दिया जाता है।

पहले कृषि में गोधन का अधिक उपयोग होता था जिससे खेतों में ही गोमूत्र और गोबर एक प्राकृतिक खाद का काम करते थे जिससे कृषि के अनुकूल जैविक खाद केचुवे आदि की प्रचुरता होती थी। जैविक खाद के कारण खेती में उपज की क्षमता भी प्रति एकड़ आज की तुलना में अधिक थी। ट्रैक्टर आदि यांत्रिक उपकरणों के कारण यह सब समाप्त ही हो गया है। कृत्रिम रासायनिक खाद के बढ़ते उपयोग से जैविक खाद आज समाप्ति की कागार पर है।

यंत्रों और मशीनों की सहायता से विकास तभी विकास कहलाता है जब यंत्रों के साथ मानव और पशुधन को सम्मिलित करते हुए क्षमता बढ़ाई जाए, मानव और पशुधन का प्रयोग कम न हो लेकिन जब यंत्र/मशीन मनुष्य और पशुधन का स्थान लेने लगेंगे तभी यह विकास, विनाशक बन जायेगा।

तब यदि विकास के नाम पर खेती के लिए उपयोगी गोधन आदि को सम्मिलित करते हुए अन्य साधनों में यंत्रों के माध्यम से क्षमता बढ़ाई गई होती तो यह विकास, विकास कहलाता लेकिन ऐसा न होकर यह विकास ही विनाश की पहली सीढ़ी बन गई।

भले ही अब जैविक खाद और प्राकृतिक खाद की बात की जा रही हो लेकिन उनके बढ़ते मूल्य और गोधन के घटते उपयोग से इतना तय है कि  यह कभी भी मुख्य खाद के रूप में नहीं आ पायेगा। अभी आज तो ऐसे खाद मिल भी जा रहे हैं लेकिन बढ़ते गोवध और उदासीनता की वजह से वह दिन दूर नहीं जब पूरा देश पूरी तरह से रासायनिक खादों पर निर्भर करने लगे और इस तरह वह दिन भी जरूर आएगा जब कृषि के लिए उर्वरक भूमि ही शेष न रहे। बिना भोजन के मनुष्य का अस्तित्व कब तक रह पाएगा, इसे आप स्वयं समझ सकते हैं।

यदि गोधन का प्रयोग कृषि में नहीं होगा तो गोमांस को ही बढ़ावा मिलेगा, और मिल ही रहा है। आज भारत विश्व के सबसे बड़े बीफ निर्यातक देशों की सूची में शामिल है।

इसका एक अत्यंत भयावह पक्ष भी है जिसे अपनी सुविधा और जिह्वा के स्वाद के लिए भारत में ही नकारा जा रहा है :

जब कत्लखानों में पशुओं का कत्ल किया जाता है तब उनके मुख से जो चीत्कार (wave) निकलती है उसे आइंस्टीन पेन वेव्ज (Einstein Pain Wave) का नाम दिया गया है जिन्हें भूकम्प के लिए जिम्मेदार माना गया है।

कुछ वर्ष पहले नेपाल में जो विध्वंसक भूकम्प आया था उसका कारण भी ‘आइंस्टीन पैन वेव्ज’ को माना गया है जो वहाँ पाँच वर्षों में एक बार लगने वाले गढ़ीमाई के मेले में बलि के रूप में चढाये गए पाँच लाख से अधिक पशु, पक्षियों की एक साथ की गयी हत्या से उत्पन्न चीत्कार, थरथराहट और डर से उत्पन्न हुई थी।

भारत के तीन विज्ञानिको डॉ मदन मोहन बजाज, डॉ इब्राहिम और डॉ विजय सिंह ने अपने एक शोध पत्र में भूकम्प के बारे में यह नयी धारणा प्रस्तुत की थी। उनके अनुसार बहुत सारे भूकम्प निरीह पशुओं की सामूहिक हत्या के कारण भी आते हैं। यदि पशु, पक्षी और मछलियों की हत्याएँ बन्द कर दी जाए तो कुछ भकम्पों से बचा जा सकता है।

यह विचार अनोखा और विचित्र है, पर डॉ मदन मोहन बजाज साधारण वैज्ञानिक नहीं हैं उनकी टीम ने अपने शोधपत्र को जून, १९९५ में रूस के मास्को के पास सुदल नामक कस्बे में हुई इंटरनेशनल साइंटिस्ट कॉन्फ्रेंस में प्रस्तुत किया था। डा. मदन मोहन बजाज ने दुनियाभर से आये २३ से अधिक वैज्ञानिकों को बताया कि पशु, पक्षियों, मछलियों जीवों की क्रूरता पूर्वक हत्या करने से जो क्रंदन तरंगें उत्पन्न होती हैं, भूमि में एकत्र हो जाती हैं। यें तरंगे ‘आइंस्टीन पेन वेव्ज’ या नोरीप्शन वेव्ज कहलाती हैं।

डॉ. मदन मोहन बजाज इंटरनेशनल साइंटिफिक रिसर्च एंड वेलफेयर ऑर्गनाइजेशन के निदेशक हैं। वे दिल्ली विश्वविद्यालय के फिजिक्स और एस्ट्रोफिजिक्स विभाग के न्यूक्लियर बायो-फिजिक्स तथा बायोमेडिकल फिजिक्स, इम्यूनोफिजिक्स तथा मेडिक्ल फिजिक्स के भी प्रमुख हैं और यहां 1968 से ही अध्यापन का काम कर रहे हैं। डॉक्टर बजाज ने 300 से ज्यादा शोध-पत्र लिखे हैं।

डॉक्टर बजाज ने पीएच.डी के १८, एम.फिल के ८ और डी.एससी के २ रिसर्चर्स का मार्ग-निर्देशन किया है। उन्होंने साइंस पर १५ पुस्तकों में बतौर सह-लेखक योगदान भी किया है। कुल मिला कर यह भी नहीं कहा जा सकता कि डॉक्टर बजाज और उनकी टीम अनपढ़ों की टोली है।

उन्होंने कुछ प्रसिद्ध भौतिकीवेत्ताओं के साथ मिलकर एक किताब लिखी है। किताब का नाम है – इटियोलॉजी ऑफ अर्थक्वेक्स : अ न्यू अप्रोच! (Etiology of earthquakes : a new approach. [M M Bajaj; M S M Ibrahim; Vijay Raj Singh]) इस किताब के लेखकों में डॉक्टर इब्राहिम और डॉक्टर विजयराज सिंह के साथ डॉक्टर मदन मोहन बजाज का नाम भी शामिल है। किताब को इंदौर के एचबी प्रकाशन ने छापा है। किताब उसी शोध-प्रबंध पर आधारित है जो रूस के सुदाल में १९९५ के जून में हुए वैज्ञानिकों के एक सम्मेलन में प्रस्तुत किया गया था।

अस्वीकरण: प्रस्तुत लेख, लेखक/लेखिका के निजी विचार हैं, यह आवश्यक नहीं कि संभाषण टीम इससे सहमत हो। उपयोग की गई चित्र/चित्रों की जिम्मेदारी भी लेखक/लेखिका स्वयं वहन करते/करती हैं।
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Prabhakar Mishra
Prabhakar Mishra
3 years ago

बिल्कुल गौवंश की हत्या और गर्भस्थ शिशुओं की हत्या सबसे बड़ी खतरनाक दुष्कृत्य है। इन दोनों दुष्कृत्यों को 100% रोकने का हरसम्भव प्रयास करना चाहिये। Dr.Benard Nathenson जी गर्भस्थ शिशुओं के गर्भ में हत्या गर्भपात के समय की मुकचिख को भी प्रमाणित किये है। गीताप्रेस की पुस्तक “मुझे बचाओ मेरा क्या कसूर” में चित्रण किया गया है।

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