बारात का अर्थ है वर यात्रा। भारतीय समाज में बारात एक सुखद पल होता है जिसमें हम दूल्हे के खर्च पर जाकर छक कर खाते हैं और मौज करते हैं। जितनी उत्सुकता दूल्हे को दुल्हन की नहीं होती है उससे कही ज्यादा बाराती को बारात में जाने की होती है।
पहुँच कर पहला काम बारात में बंदोबस्त कैसा है, खाने की व्यवस्था बढ़िया है कि नहीं है आदि देखना और सुनिश्चित करना होता है। यदि भोजन में तरह – तरह के पकवान के साथ आइसक्रीम, दो तीन प्रकार का हलवा, काफी, कोल्डड्रिंक हों तो लड़की के घर वाले सम्पन्न और दिलदार हैं। यह न हो कर यदि ठीक – ठाक भी खिलाया तो चिरकुट। रास्ते भर गाली तथा नाहक बारात आये, ऐसे कोसना चलता रहता है। वहीं अच्छा भोजन और प्रबंध पा जाने पर सारे बाराती बहुत खुश।
पहले के बारात में व्यंजन के ज्यादा प्रकार नहीं होते थे, लोगों का ध्यान खाने की क्वालिटी पर रहता था। आज की तरह भौंडापन और छिछोरापन नहीं होता था। आज बारात में शराब का बढ़ता प्रचलन चिंता का सबब है, कभी – कभी तो दूल्हा ही नशे में मस्त रहता है।
गहरा मेकअप लिए लड़की और महिलाएं, कानफाड़ू संगीत, खड़े – खड़े भोजन लेना जिसमें जरा सी चूक की तो आपके सूट या लहंगे पर मटर पनीर, रसगुल्ला, चाट रंग बदल सकता है।
नकल के चक्कर में संस्कार (रस्म – रिवाज) सभी कुछ खानापूर्ति के लिए रह गए हैं। सबसे ज्यादा भसड़ फोटो सेशन की है। कुछ बारात में दुल्हन नया करने के चक्कर में अब तो नाचते हुये स्टेज पर आ रही है। पहले खाना बनाने का कार्य घर के लोग, पड़ोसी और गांव वाले मिलकर करते थे और नाचने के लिये नाचने वाली या लौंडा अलग से ले आते थे लेकिन अब तो दूल्हा – दुल्हन से लेकर पूरा घर नाचने के लिये परेशान है। खाना बनाने वाले अब हलवाई हैं नचनिये जरूर घर के हो गये हैं।
फूहड़ता ज्यादा है, परम्पराओं के निर्वहन में भी चूक हो रही है। जिस प्रकार संस्कारों और घर के लोगों की भागीदारी घटी है उससे कहीं न कहीं पति – पत्नी के रिश्तों की मिठास में भी कमी आयी है। अहम का टकराव आम बात है उस पर नये लोग, नये समझने वाले बन कर नये बने रिश्ते में कड़वाहट घोल रहे हैं।
विवाह सनातन धर्म के 16 संस्कारों में सबसे महत्वपूर्ण संस्कार है जिसमें दो ईकाई एक हो जाते हैं। सृष्टि के सृजन का यज्ञ प्रारम्भ होता है, एक नये का जन्म होता है। बरात का कौतूहल तो हमें शिव – पार्वती के विवाह में रामचरित मानस में भी दिखता है। गोस्वामी बाबा ने क्या रोचक वर्णन किया है।
पहले भी बारातियों का ध्यान भोजन पर रहता था। लोग समय लेकर जाते थे, कुछ दिन लड़की वाले के घर रुकते थे। रामायण के अनुसार रामजी की बरात जनकपुरी में छ: मास रुकी थी। अब तो किसी के पास समय ही नहीं है, खाना खाते ही बाराती गायब जिस तरह से मिडडे मील भोजन के बाद प्राइमरी स्कूल से बच्चे गायब हो जाते हैं।
अब यदि देखा जाय तो बाराती की आवश्कता ही नहीं है। पहले के समय में जब कैमरा, फ़िल्म आदि नहीं थे, आज की तरह द्रुत वाहन नहीं थे और पैदल और बैलगाड़ी ही साधन थे, रास्ते में चोर आदि का डर था तब बाराती सुरक्षा और गवाह के रूप में जाया करते थे जो आज परम्परा के रूप में दिखते हैं।
भारत की राजनीति में भी विवाह से जुड़ा एक रोचक तथ्य है :
1897 में मुम्बई गवर्नर जनरल की परिषद् की बैठक में अंग्रेज हिन्दू शादी को फिजूल खर्ची बता कर प्रतिबंधित करने जा रहे थे। तब उस समय के बड़े कांग्रेसी नेता फिरोजशाह मेहता जिन्हें तब के बॉम्बे का बेताज बादशाह कहा जाता था, ने विरोध करते हुए कहा था कि भारतीय हिंदुओं के जीवन में कितने उत्सव ही हैं? शादी तो एक उत्सव जैसा है जिसमें कुछ चटक – मटक कपड़े, रद्दी सुपारी, मिठाइयाँ और टमटम होते हैं। विवाह समारोह पर आप कैसे प्रतिबंध लगा सकते है? मेहता जी को गोपालकृष्ण गोखले के साथ परिषद् से बहिर्गमन किया गया। यह भारतीय संसदीय इतिहास में बहिर्गमन की पहली घटना भी बनी जिसकी गूँज अंग्रेजों के बहरे कानों तक लन्दन तक पहुँची।
विवाह एक महत्वपूर्ण संस्कार है, उसकी गरिमा और महिमा बनाये रखें, उसे कानफोड़ू संगीत और शराब के हवाले न करें बल्कि उसके महत्व को समझें।
नोट: प्रस्तुत लेख, लेखक के निजी विचार हैं, यह आवश्यक नहीं कि संभाषण टीम इससे सहमत हो।
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हम तो सोचते है नेपाल में ही जाकर वहीँ सादगी से सीमित सम्बंधियों के बीच शास्त्रीय मर्यादा में सीता मन्दिर में विवाह करें, लेकिन यह सम्भव लगता ही नहीं है।
आजकल मर्यादा लज्जा देखने को मिल ही नहीं रहा है। सद्गृहस्थ जीवन की शुरुआत करना पहले की तुलना में बहुत कठीन है। फिर भी सद्गृहस्थ जीवन, सुन्दर सामाज निर्माण के लिये यथासम्भव नवाचार स्वयं से शुरु करना ही चाहिये।