मोटे तौर पर देखें तो घूँघट को पितृसत्तात्मक और पिछड़ापन कह कर मखौल उड़ाया जाता रहा है। सिंपल, साधारण लड़की के पहनावे को कालेज की लड़कियां स्वयं ही बहन जी टाइप का बोलती रही हैं। कर्नाटक के स्कूल से शुरू हुई हिज़ाब की मांग को मजहब के अधिकार के साथ संवैधानिक अधिकार से जोड़ा जा रहा है।
कुछ भी पहनने की आजादी कहां दी जाय?
इस समय “तुर्की के गांधी” अतातुर्क मोहम्मद कमाल पाशा द्वारा 1920 में मॉडरेट मुस्लिम की याद ताज़ी हो जाती है जिन्होंने मुस्लिम होकर हिज़ाब, बुर्का, लूंगी, टोपी और सार्वजनिक जगह नमाज को प्रतिबंधित किया था।
मजहबी प्रैक्टिस करने के लिए सार्वजनिक जगह का चुनाव क्यों? जबकि यह संविधान के अनुसार भी व्यक्तिगत मामला है।
आधी आबादी की बात है कि एक का “घूँघट” असभ्य और अनपढ़ की निशानी की तरह प्रस्तुत किया गया किन्तु जिन्होंने अबतक शोर किया वही स्कूल में हिजाब की वकालत कर रहे हैं। यह बौद्धिक विकृति कुछ नये तरह के पक्षपातियों द्वारा निर्मित किये गए हैं जिनका मुख्य व्यवसाय ही हिंदू धर्म के विरोध का है।
भारत का वामपंथ, सेक्युलर और मॉडरेट के निशाने पर हिंदू रहा है, मुस्लिम के मसले पर रूढ़ियों को मजहबी ताल्लुक बना देता है।
यदि हिजाब का हवाला कुरान से है तब गौर करने वाली बात है कि उसी कुरान में काफिर के कत्ल करने, उसकी पत्नी को रखने या बच्चे तो अल्लाह की रहमत हैं, जुमे की नमाज के बाद, रमजान के महीने के बाद काफिर को मुसलमान बनाने निकलना है आदि भी तो कहा गया है।
कर्नाटक हाईकोर्ट ने हिज़ाब के नाटक को स्कूलों में नकार दिया है उसके लिए अल्पसंख्यकों के मदरसे हैं, उसी में हिज़ाब का प्रदर्शन करें।
गौरतलब है यदि संस्था ड्रेस कोड नहीं रखेगी तो सेना, पुलिस आदि में मजहबी तालीम तस्लीम होने लगेगी। बकरा दाढ़ी, लुंगी, छोटा पैजामा आदि के अधिकार के बात शुरू होगी। प्रतिक्रिया स्वरूप हिन्दू नागा साधू और जैन दिगम्बर संत भी स्कूल में अपनी तरह का पहनावा चाहेगें। उनका भी कहना होगा उनकी मर्जी वह क्या पहनें और क्या न पहने।
मुस्लिम समाज कर्नाटक से अलीगढ़ तक जिस तरह से हिज़ाब के लिए लामबंद हो रहा है, उसकी बहुत कड़ी प्रतिक्रिया हिंदू समाज द्वारा होगी। प्रश्न वही कौंधेगा आखिर इसी लिए मुस्लिम को भारत में रोका गया था?
केरल में सड़क पर गाय काट कर उसके भौंडे प्रदर्शन से यह दिखाया गया था कि उन्हें कुछ भी खाने की आजादी है। हिंदू धार्मिक मान्यताओं से उन्हें क्या?
मुस्लिम अपने मजहब में कोई सुधार नहीं चाहता है। मुल्ला, मौलवी कट्टरपंथ की शिक्षा दे रहे हैं जिससे मौलवियों की पकड़ मुस्लिम समाज पर मजबूत रहे। जिससे वह राजनीतिक बार्गेनिंग (मोल – भाव) कर सकें।
मुस्लिम इराक, ईरान, पाकिस्तान और अफगानिस्तान जैसा समाज अपने लिए चाहता है क्योंकि कुरान कहती है कि गैर किताबी लोगों को इस्लाम की खूबियों से नवाजों, कत्ल करो और जजिया लो।
विश्व के गैर मुस्लिम देश मुस्लिमों के लिए कुछ सुधार लागू किये हैं जैसे कि चीन वीगर मुसलमान के लिए, म्यामार रखाईल प्रान्त के लिए या फ्रांस, अमेरिका, श्रीलंका, इजरायल आदि ने भी ऐसा किया है। भारत में शांति के लिए देर से ही सही इन्ही देशों द्वारा अपनाये गए के मार्गो का आलंबन लेना ही पड़ेगा।
भारत में मुस्लिमों के वोट के लिए उनके गैर वाजिब मांग को राजनीतिक पार्टियों का समर्थन रहता है। इससे सत्ता पाने में आसानी रहती है।
वामपंथ या सेक्युलरों की बुद्धि ऐसी भ्रष्ट है कि उन्हें सही – गलत दिखना बन्द हो गया है, उन्हें बस विरोध के लिए विरोध करना है।
लेफ्ट, लिबरल, वामपंथी मुस्लिम सामाजिक कुरूतियों को समर्थन देता रहा है। शाहबानो मामले में कट्टरपंथियों का समर्थन करके कांग्रेस ने अपने वोटरों को सिमटा लिया। अब हिज़ाब पर जनता इनके मुंह पर खिज़ाब पोत देगी।
बुर्का या हिज़ाब को देखा जाय तो इसके माध्यम से औरतों पर मुहमम्द जैसे मर्दों की इच्छा पैदा होने से रोकना था क्योंकि इस्लाम औरत को पुरुष के मनोरंजन की वस्तु मानती है इसकी तुलना 72 हूरों से की जा सकती है या इस माध्यम से समझा जा सकता है।
मुस्लिम कट्टरपंथ से भारत को सुरक्षित रखने के कुछ कठोर फैसले समाज से लेकर सरकार को करने हैं। सोचने वाली बात यह है कि दुनिया कहाँ से कहाँ बढ़ती जा रही है और इन्हें हिज़ाब चाहिए।