कर्षते इति कृष्ण:

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Dhananjay Gangey
Dhananjay gangey
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मन को आकर्षित करने वाले भगवान श्रीकृष्ण का धराधाम पर आज के ही दिन 27वें द्वापर के रोहिणी नक्षत्र (मैं देवकी के गर्भ से जन्म ले रहा हूँ तो रोहिणी के संतोष के लिए कम से कम रोहिणी नक्षत्र में तो जन्म लेना चाहिए, ऐसा विचार कर), भाद्रपद माह की (भद्र अर्थात कल्याण कर देने वाले) कृष्णपक्ष (स्वयं कृष्ण से सम्बंधित) की अष्टमी तिथि को रात्रि 12 बजे (अष्टमी तिथि पक्ष के बीचों बीच आती है। रात्रि योगीजनों को प्रिय है। निशीथ अर्थात अर्धरात्रि यतियों का संध्याकाल और रात्रि के दो भागों की संधि है) आविर्भाव (अविर्भाव का अर्थ है- अज्ञान के घोर अन्धकार में दिव्य प्रकाश) हुआ।

भगवान श्री हरि विष्णु के पूर्णावतार, 16 कलाओं से युक्त भगवान वासुदेव का जन्म भक्तों को आह्लादित करने, दुष्टों का नाश करने और धर्म की पुनःस्थापना करने के लिए हुआ था। स्वधर्म के लिए गीता में भगवान कहते हैं कि स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः।।अर्थात, अपने धर्ममें मरना भी कल्याणकारक है और दूसरे का धर्म भय को देनेवाला है।

भगवान यहाँ स्वधर्म की बात करते हैं, स्वधर्म की रक्षा के लिए मृत्यु भी कल्याणकारी हो जाती है। युद्ध मात्र विनाश ही नहीं लाते वरन युद्ध सृजन का द्वार भी खोलते हैं। एक स्त्री की रक्षा के लिए पुरे कुल को दंडित किया गया। ऐसा अनुपम उदाहरण केवल राम रावण के युद्ध में ही मिलता है।

जब अर्जुन युद्ध भूमि में योद्धाओं को देखना चाहते हैं और कहते हैं- हे केशव! धार्तराष्ट्रस्य दुर्बुद्धेर्युद्धे प्रियचिकीर्षवः।।” अर्थात, दुष्टबुद्धि धार्तराष्ट् (दुर्योधन) का युद्ध में प्रिय करने की इच्छा वाले जो ये राजालोग इस सेना में आये हुए हैं, युद्ध करने को उतावले हुए इन सबको मैं देख लूँ।

तब भगवान् श्रीकृष्ण ने दोनों सेनाओं के मध्यभाग में पितामह भीष्म और आचार्य द्रोण के सामने तथा सम्पूर्ण राजाओं के सामने श्रेष्ठ रथ को खड़ा करके इस तरह कहा कि ‘हे पार्थ! इन इकट्ठे हुए कुरुवंशियोंको देख’। “सेनयोरुभयोर्मध्ये स्थापयित्वा रथोत्तमम।।”

अर्जुन अपने स्वजनों को युद्धभूमि में देख कर काप जाते हैं, गांडीव हाथ से छूटने लगता है। तब भगवान उवाच :

क्षुद्रं हृदयदौर्बल्यं त्यक्त्वोत्तिष्ठ परन्तप।।”

हे परंतप! हृदयकी इस तुच्छ दुर्बलताका त्याग करके युद्धके लिये खड़े हो जाओ। तुम्हें अपने धर्म का पालन करना ही होगा। कायर की तरह भाग नहीं सकते।

यह पहली बार है जब धर्म के लिए युद्ध अपने ही कुल से था। भगवान ने अर्जुन को ब्रह्मज्ञान, आत्मसंयम, ज्ञानयोग, कर्मयोग, भक्ति योग, विभूति योग, विश्वरूप, ज्ञानविज्ञान, अक्षर, प्रेय और श्रेय मार्ग का ज्ञान कराते हैं।

मनुष्य हो तो मनुष्यता को धारण करिये। दुष्टता को अपने अंदर से दूर कर दिव्यता को प्राप्त करिये। पाप और अन्याय पर रुकिये नहीं बल्कि पूरी शक्ति से विरोध करिये। यदि अर्जुन की तरह आपका भी मोह से ग्रसित होकर गांडीव छूट रहा है तब समझिये आप धर्म से डिग गये हैं। यदि आप धर्म को धारण करने से पीछे हटते हैं तब ईश्वर भी आप की सहायता नहीं करेगा। गिद्ध आपको नोंच नोंच खायेंगे।

आतंकवाद के रूप में राक्षस आपके सन्मुख है, इसलिए हे मनुष्य! तू स्मरण कर भगवान की कुरुक्षेत्र की शिक्षा को, गर तू गांडीव उठाने की सामर्थ्य रखता है, वह भगवान जरूर तेरी मदद को आएंगे। भगवान तो सदा तेरी आत्मा के रूप में विद्यमान हैं ही किन्तु तुम अपने मिथ्याभिमान और कुशिक्षा के कारण मति भ्रमित कर बैठे हो।

बुद्धि के नाश से सबका नाश हो जाता है।

हे धनंजय! तू स्वयं को पहचान, तू शरीर नहीं है, मैं तुम ही हूँ। तू व्याकुल क्यों हो रहा है

तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम्।।

जो निष्काम भाव से मुझे भजते उन नित्य एकीभाव से मेरे में स्थिति पुरुषों का योगक्षेमं (कल्याण) मैं स्वयं कर देता हूं।


नोट: प्रस्तुत लेख, लेखक के निजी विचार हैं, यह आवश्यक नहीं कि संभाषण टीम इससे सहमत हो।

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Prabhakar Mishra
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2 years ago

🙏जय श्री कृष्ण।मनुष्य जन्म सफल हो।

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