“त्रयो धर्मस्कन्धा यज्ञोऽध्ययनं दानमिति…” – छान्दोग्योपनिषद २.२३.१
अर्थात् धर्म के तीन स्कन्ध (भाग) हैं – यज्ञ, स्वाध्याय और दान।
शतपथ ब्राह्मण में कहा गया है – “यज्ञो वै श्रेष्ठतमं कर्म” अर्थात् समस्त कर्मों में जो श्रेष्ठ कर्म है वह यज्ञ है। यज्ञ ‘यज्’ धातु से बना है जिसका अर्थ है – देवपूजा, संगतिकरण और दान। ज्ञातव्य है कि ब्राह्मण ग्रंथों में यज्ञ एक प्रमुख विषय अथवा कर्म ही है।
‘यज्ञ को एक प्रकार का ऐसा यंत्र समझना चाहिये जिसके सभी पुर्जे ठीक–ठीक स्थान पर बैठे हों, या यह एक ऐसी जंजीर है जिसकी एक भी कड़ी कम न हो, या यह एक ऐसी सीढ़ी है जिससे स्वर्गारोहण किया जा सकता है, या यह एक ऐसा व्यक्तित्व है जिसमें समस्त मानवीय गुण है।’ – हिन्दू धर्मकोश, पृष्ठ ५३१
जैसा कि हम जानते हैं कि वस्तु का तत्वतः नाश नहीं होता अपितु उसका रूपांतरण होता है। यह बात मात्र आधुनिक सत्य नहीं है, वैदिक ऋषियों को आज से बहुत पहले इस तथ्य का ज्ञान था। वे समझते थे कि वस्तु का आविर्भाव और तिरोभाव ही होता है, न कि नाश।
सर्वप्रथम उपनिषदों ने इस तथ्य को जाना। यज्ञ सृजन का हेतु है। प्रकृति में यज्ञ अनवरत चलता रहता है, छान्दोग्योपनिषद में इस अनवरत चलते यज्ञ को प्रकारांतर से स्पष्ट किया गया है। (श्रीआर्यमुनिभाष्य खण्ड ४ देखें) –
प्राकृतिक शक्तियाँ द्युलोकस्थ अग्नि में परमाणु रूप साहित्य का हवन करती हैं, जिससे इस निःसीम आकाश – प्रांगण में नित्य ही आह्लादजनक विश्व –ब्रह्माण्डों और वस्तुओं का प्राकट्य होता रहता है। प्रत्येक वस्तु अपने अव्यक्त रूप से व्यक्त रूप में आती रहती है। यह बृहद यज्ञ परमात्मा की ओर से प्रकृति–प्रवाह में सदैव होता रहता है।
यह सृष्टि किन–किन तत्वों और साधनों से अव्यक्त से व्यक्त दशा में आती है — इसकी रूपकालंकार सम्मत संक्षिप्त उपनिषत्तालिका इस प्रकार है –
१. द्युलोक – अग्नि–कुण्ड
२. द्युलोकस्थ शक्ति – प्रथमाग्नि
३. आदित्य – समिधा
४. हवनीय द्रव्य – परमाणु
५. हवनकर्ता देवता – प्राकृतिक शक्तियाँ
६. अध्वर्यु – परमात्म–तत्व
७. वसन्त–ऋतु – धृत–स्थानीय
८. ग्रीष्म–ऋतु – समित्स्थानीय
९. शरद्–ऋतु – हवि
१०. यज्ञ–नाम – प्राकृतिक
यज्ञ आदि सृष्टि से चला आ रहा है। सृष्टि की उत्पत्ति यज्ञ का फल कही गई है जिसे ब्रह्मा जी ने किया था। प्रकृति, देवता आदि सभी निर्माण हेतु अनवरत यज्ञ करते रहते हैं। वेदों का आदेश है कि मनुष्य को भी यज्ञ का विस्तार करना चाहिये।
“यस्यां वेदिं परिगृह्णन्ति भूम्यां यस्यां यज्ञं तन्वते विश्वकर्माणः।” – अथर्ववेद १२.१.१३
अर्थात् इस भूमि पर हम ‘विश्वकर्माण’ अर्थात सृजनशील मनुष्य यज्ञ वेदियों का निर्माण करके यज्ञों का विस्तार करने वाले बने।
छान्दोग्योपनिषद में आरुणि पुत्र श्वेतकेतु और जीवल पुत्र प्रवाहण के बीच के वार्तालाप से यह ज्ञान होता है कि किस प्रकार पांच प्रकार की अग्नि में आहुति से पुरुष का जन्म होता है।
पंचम आहुति में पुरुष का निर्माण कैसे होता है?
१. द्युलोक अग्नि रूप में देवगण द्वारा श्रद्धारूपी जल की पहली आहुति है। उस हवन से राजा सोम की उत्पत्ति होती है।
२. इसके बाद मेघ अग्नि रूप में राजा सोम रूपी जल की दूसरी आहुति का हवन करने से वर्षा की उत्पत्ति होती है।
३. तीसरी आहुति में पृथ्वी अग्नि रूप होती है, जिसमें वर्षा रूपी जल का हवन करने से अन्न की उत्पत्ति होती है।
४. चौथी आहुति में पुरुष अग्नि रूप बनता है और उसमें देवगणों (विष्णु) द्वारा अन्न रूपी जल का हवन करने से वीर्य की उत्पत्ति होती है।
‘अन्नमयं हि सोम्य! मनः’ सिद्धान्त के क्रम में मन का उपादान अन्नरस (सोम) है। इसी से क्रमशः मन की पुष्टि होती है। यदि भूख न लगे तो अन्नागमन असम्भव हो जाये। अशनायासूत्र (बुभुक्षा, भूख) के संचालक हृदयस्थ विष्णु देवता हैं। इन्हीं की कृपा से शारीराग्नि में अन्नाहुति होती है।
इस अन्नाहुति रूप यज्ञ सम्बन्ध से ही ‘यज्ञो वै विष्णुः’ – तां० ब्रा० ९.६.१० , ‘विष्णुर्वै यज्ञः’ – ऐ० ब्रा० १.१५ आदि रूप से विष्णु को भी यज्ञ कहा जाता है। दूसरी ओर ‘अग्निर्वै यज्ञमुखम्’ – तै० ब्रा० १.६ १.८, ‘अग्निरु वै यज्ञः’ – शत० ५.२.३.६ आदि से अग्नि को यज्ञ की मूल प्रतिष्ठा माना गया है जिसमें आहुति क्रिया संपन्न होती है।
५. अंत में पांचवी आहुति में स्त्री अग्नि बनती है जिसमें वीर्य रूप जल का हवन करने से गर्भ की उत्पत्ति बताकर कहा गया है कि ‘इस तरह यह जल पांचवी आहुति में पुरुष संज्ञक होता है।’
आगे वह अनेक यज्ञवेदियों का निर्माण करके लोक कल्याण हेतु ‘यज्ञं तन्वते’ अर्थात यज्ञ का विस्तार देने वाला बनता है।
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