भगवान और सांइस में आस्था

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Satyendra Tiwari
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न कविवर हूँ न शायर हूँ। बस थोड़ा-बहुत लिखा करता हूँ। मन में आए भावों को, कभी गद्य तो कभी पद्य में व्यक्त किया करता हूँ।

मजा और ज्ञान… बस अंत तक जरूर पढ़ें।

एक छोटे से दुकान का मालिक, अपने दुकान के एक कोने में कन्हैया जी की एक छोटा सी तस्वीर लगा रखी थी। रोज सुबह उस तस्वीर को पोछ कर हाथ जोड़कर, उनके ऊपर ही विश्वास करके वह दुकान चलाता था। भगवत कृपा से उसकी दुकान पर रोज सही बिक्री हो जाया करती थी।

दुकानदार का एक बेटा था। वह साइंस से पढ़ कर पढाई में अव्वल आया था। उसने एक दिन अपने पिता जी से कहा कि आप क्या यह रोज – रोज भगवान भगवान करते रहते हैं। भगवान – वगवान कुछ नहीं होते। पिता समझ गया कि उसकी संस्कारी औलाद माता – पिता की आज्ञाकारी तो है लेकिन यह बुद्धि से नास्तिक हो चुका है।

उसने पुत्र से कहा कि तुमसे एक भीख मांगू? पुत्र ने कहा – पिताजी आप ये क्या कह रहे हैं? आपकी हर आज्ञा मेरे सर आंखों पर है। कहिए!

तुम्हें भगवान पर विश्वास तो नहीं है। लेकिन उन्हें एक बार जरूर आजमाना। बस एक बात और, मेरे मरने के बाद भी इस दुकान से श्री नारायण जी का कन्हैया जी के रुप में लगी हुई तस्वीर हटाना मत। पुत्र ने कहा बस इतनी सी बात। मैं नहीं हटाऊंगा।

कुछ दिन बाद वह दुकानदार मर गया। इसके बाद अपने पिता को दिए वचन के अनुसार साइंस पढ़ा हुआ वह बेटा भगवान की तस्वीर तो नहीं हटाया लेकिन कभी उस पर से जमी धूल मिट्टी नहीं झाड़ता था। पूजा तो दूर की बात।

एक दिन बहुत भयंकर बारिश हुई। गली – मुहल्लों और पूरे बाजार में काफी पानी भर गया। सभी दुकानें बंद हो गई। लेकिन यह साइंस पढ़ा लड़का जो दुकानदार का पुत्र था, अपने दुकान में अपने दोस्तों के साथ बैठकर मोबाइल गेम खेल रहा था। भयंकर बारिश के कारण लाईट चली गई थी। उसने मोमबत्ती जला रखी थी। चारों तरफ अंधेरे के बीच मोमबत्ती की रौशनी दूर से ही दिखाई दे रही थी। इस बीच बारिश की हल्की बौछारें अभी पड़ ही रही थी। जो धीरे – धीरे थमती जा रही थी।

तभी छह – सात साल का एक छोटा बच्चा उसके दुकान पर आया और कहा कि मेरे घर में दूसरा कोई नहीं है। सिर्फ एक मेरी माँ है। वह काफी बीमार है। डॉक्टर ने कहा है कि यह दवा ले आओ। उस दवा को इन्हें खिला देना। अन्यथा तुम्हारी माँ अब कुछ ही देर में मर जाएगी। इतना कहकर डॉक्टर साहब चले गए हैं। इस तरह अपनी पूरी बात बताते हुए उस बालक ने दुकानदार के बेटे को कागज दिखा कर कहा कि यह दवा तुरंत दे दो अंकल।

दुकानदार के बेटे ने इतना सुनते ही अंधेरे में ही एक दवा उठाया और उस बालक को पकड़ा दिया। वह बालक खुशी मन से वहाँ से चल दिया। इतने में ही लाईट आ गई। दुकानदार के बेटे ने देखा कि अरे अंधेरे में मैंने ये क्या कर दिया! मैंने तो उस बच्चे को अंधेरे में चूहे मारने वाली दवा दे दिया है। अब उसकी माँ तो अब और तुरंत ही मर जाएगी। मैंने तो यह बहुत बड़ा अनर्थ कर दिया है। यह सोचकर अपने दोस्तों को कहा दुकान देखते रहो। मैं जा रहा हूँ, उस लड़के को ढूंढने। वह तुरंत हल्की बारिश में ही बाहर निकला और पागलों की तरह इधर – उधर देखते हुए ढूँढ – ढूँढ कर परेशान हो गया। थक हार कर बैठ कर रोने लगा। अंत भगवान – भगवान करके अपने दुकान पर आ गया। अपने पिता जी द्वारा दुकान में लगाई उस धूल धूसरित फोटो को छू कर फूट – फूटकर रोते हुए कहा – हे भगवान! मुझसे अनर्थ हो गया है। अब मैं क्या करूँ?

इतने में वह बालक फिर आ गया। कहने लगा अंकल वही दवाई दे दो। दुकानदार के बेटे को उसे देखकर लगा जैसे उसे बहुत बड़ा धन मिल गया है। लेकिन उसने सबसे पहले यह पूछा कि अभी जो दवा ले गए हो। उसका क्या किया? बालक ने कहा। मैं घर पहुंचने के पहले दौड़ते हुए कीचड़ में गिर गिर गया। वह दवा वहीं गिर कर नष्ट हो गई है। इसके बाद दुकानदार के बेटे को जैसे जान में जान आ गई। इसने तुरंत भगवान पर से वर्षों की जमी धूल मिट्टी झाड़ा और हाथ जोड़कर तुरंत दूसरा सही दवा लेकर उसके घर पर गया और खूब खुश हो गया। इसके बाद उसने बालक के माँ की पूरी इलाज कराई। उसकी माँ ठीक हो गई।

इस घटनाक्रम के बाद वह दुकानदार का बेटा अब दुकान पर रोज आने के बाद भगवान को धूप आरती करने लगा। नियमित पूजा अर्चन करने लगा और मन ही मन कहा कि पिता जी आप सही कहते थे। भगवान हैं और भगवान का काट साइंस के पास नहीं है।

उसने अपने मन में विचार किया कि क्या यहाँ साइंस हमें बचाता? क्या उस बालक की माँ बचती? क्या जिंदगी भर मेरा मन मुझे हत्यारा नहीं मानता? क्या जिंदगी भर मेरी आत्मा मुझे नहीं कोसती कि उसके एक मात्र संबंधी को मैंने मार दिया है। क्या मेरा साइंस इस बालक को जिसका कोई नहीं है इस दुनिया में, उसे उसकी माँ वापस दे पाता? उत्तर था- नहीं। वह मान चुका था कि भगवान से बड़ा कुछ नहीं है।

जय हो..  ऊँ नमो भगवते वासुदेवाय।

स्रोत :- सत्संग में सुनी हुई बातों को अपना अंदाज और शब्द दिया है मैंने। बस, इस कथा में मेरा इतना ही योगदान है।

अस्वीकरण: प्रस्तुत लेख, लेखक/लेखिका के निजी विचार हैं, यह आवश्यक नहीं कि संभाषण टीम इससे सहमत हो। उपयोग की गई चित्र/चित्रों की जिम्मेदारी भी लेखक/लेखिका स्वयं वहन करते/करती हैं।
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