प्रेतबाधा

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गरुडपुराण के अनुसार – कलिकाल में अपवित्र कर्म करने वाला प्राणी प्रेतयोनि को प्राप्त करता है। जो व्यक्ति पराई धरोहर का अपहर्ता है, मित्रद्रोही है, सदैव पराई स्त्री में अनुरक्त है, विश्वासघाती-कपटी है, भ्रातृद्रोही, ब्रह्महंता, गोहंता, मद्यपी, गुरुपत्नीगामी, स्वर्ण की चोरी करता है, भूमि का अपहरण करता है, सदा झूठ बोलता है, वह प्रेतयोनि में जाता है। निषिद्ध कर्म करने वाले, दुष्ट-संसर्ग होने, वृषोत्सर्ग न होने, अकाल मृत्यु, दाह संस्कार न होने और अविधि-पूर्वक की गई अंत्य-क्रिया से प्रेतयोनि की प्राप्ति होती है। वह शरीर-रहित होकर भूख-प्यास की अथाह पीड़ा को सहन करते हुए इधर-उधर भटकता है।

प्रेत होकर प्राणी अपने ही कुल को पीड़ित करता है, किन्तु कुछ घर प्रेतों को आकर्षित भी करते हैं जैसे जिस घर में नित्य लोभ, क्रोध, निद्रा, शोक, भय, मद, आलस्य तथा कलह ये सब दुर्गुण विद्यमान रहते हैं अथवा जो घर लज्जा, मर्यादा से हीन है- जिसका स्वामी स्त्री द्वारा जीत लिया गया हो, जहाँ माता-पिता, गुरुजनों की पूजा नहीं होती, प्रेत ऐसे स्थानों पर भोजन करते हैं। जो व्यक्ति सभी प्रकार की धार्मिक क्रियाओं से परिभ्रष्ट हो गया है, नास्तिक है, धर्म की निन्दा करने वाला है और सदैव असत्य बोलता है, उसी को प्रेत कष्ट पहुंचाते हैं।

वे एक दिन का अंतराल देकर आने वाले ज्वर का रूप धारण करते हैं, शिरोवेदना, विषूचिका (हैजा) तथा अनेक प्रकार के रोगों का रूप धारण कर लेता है। प्रेतदोष से बंधु-बांधवों के साथ विरोध होता है, व्यक्ति पशुहीन- धनहीन हो जाता है, संतान नहीं होती है, यदि संतान उत्पन्न भी होती है तो मर जाती है। अचानक जो दुख प्राप्त होते हैं वह प्रेतबाधा के कारण होते हैं। नास्तिकता, जीवन वृत्ति की समाप्ति, अत्यंत लोभ तथा प्रतिदिन होने वाले लोभ यह सब प्रेत से उत्पन्न होने वाली पीड़ा है।

अच्छी वर्षा होने पर भी कृषि का नाश होना, व्यवहार नष्ट होना, समाज में कलह होना, चोर-अग्नि-राजा से हानि होना, सदैव दुखी रहना, धार्मिक परिवार में जन्म लेने पर भी अंतःकरण में धर्म के प्रति प्रेम का न होना, महाभयंकर रोग की उत्पत्ति, देवता-तीर्थ-ब्राह्मण की निन्दा, भोजन करते समय पति-पत्नी में कलह, पत्नी का विरह, सगोत्री विनाश, व्यग्रता व क्रूर बुद्धि यह सब प्रेत बाधा के लक्षण हैं। यह मनुष्य की मति, प्रीति, रति, लक्ष्मी और बुद्धि इन पांचों का विनाश करता है। पिता के आदेश की अवहेलना, अपनी पत्नी के साथ रहकर भी सुख उपभोग न कर पाना, व्यग्रता और क्रूर बुद्धि भी प्रेतजन्य बाधा के कारण होती है। जिसके वंश में प्रेत-दोष रहता है, उसके लिए इस संसार में सुख नहीं है।

प्रेतग्रस्त प्राणी बड़े ही अद्भुत स्वप्न देखता है (प्रेत दर्शन, भाषण, चेष्टा व पीड़ा), और जब भी धार्मिक कृत्य करने की प्रवृत्ति होती है तब प्रेतबाधा उपस्थित होती है एवं उन पुण्य कार्यों को नष्ट करने के लिए चित्त-भंग कर देती है।

जो व्यक्ति प्रेत योनियों को नहीं मानता वह स्वयं प्रेतयोनि को प्राप्त होता है। जो सांवत्सरादिक श्राद्ध नहीं करता है, वह भी प्रेत बाधा है।

ऐसा जानकार मनुष्य प्रेत-मुक्ति का सम्यक आचरण करे और ज्योतिर्विद से इस विषय में निवेदन करे।
निराकरण के कुछ उपाय जो शास्त्र में दिए हैं वे इस प्रकार हैं –

१. दान देना, जिसके उद्देश्य से दान दिया जाता है वह दान उसको तथा स्वयं को तृप्त करता है।
२. भक्ति-भाव पूर्वक नारायणबलि करके जप्, होम तथा दान से देह शोधन करना चाहिए।
३. नवें या दसवें वर्ष अपने पितरों के निमित्त दस हजार गायत्री-मंत्रों का जप करके दशांश होम करना चाहिए।
४. सम्यक प्रकार से माता-पिता की पूजा करनी चाहिए, ये दोनों प्रत्यक्ष देवता हैं।
५. गरुडपुराण के स्वप्नाध्याय का अध्ययन करने से प्रेत का एक भी चिन्ह नहीं दिखाई देता है।

प्रेतयोनि न मिले इसके उपाय – जो नित्य उपवास रखता है, जागरण सहित एकादशी का व्रत करता है, सत्कर्मों से अपने को पवित्र रखता है, दान देता है, उद्यान-वापी-जलाशय आदि का निर्माता है, ब्राह्मण कन्याओं का यथाशक्ति विवाह कराता है, विद्यादान और अशरण को शरण देने वाला है – वह प्रेत नहीं होता है।

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