“दक्षिणसंस्थौ वै पितृयज्ञ:” पितर दक्षिण दिशा में प्रतिष्ठित रहते हैं। सौम्य ऋत (पितर) प्राण निरन्तर दक्षिण दिशा की ओर जाया करते हैं अर्थात दक्षिण दिशा ही पितरों की अंतिम विश्राम भूमि है। इसीलिए उत्तर दिशा में सिर करके सोना निषेध है, ब्रह्मरंध्र से प्रविष्ट होने वाले आयुरुप सौर प्राण जाते हुए (उत्तर से दक्षिण) सौम्य प्राण पर आघात करते हैं।
श्राद्ध का श्रौत आख्यान (शतपथ ब्राह्मण २.४.२.२) – प्राचीनावीती (यज्ञसूत्र को दक्षिण कंधे पर डालकर) बनकर बाएं घुटने को भू से संलग्न करके पितरप्रजा ने प्रजापति से निवेदन किया। पितरों के लिए प्रजापति ने व्यवस्था की कि – “महीने महीने (प्रतिमास अमावस्या को) तुम्हें अन्न मिलेगा, स्वधा अन्न तृप्ति का कारण बनेगा। मनोजव (श्रद्धामय मानस) तुम्हारी प्रातिस्विक संपत्ति होगी। चंद्रमा तुम्हारा प्रकाश होगा।”
महाभारत के अनुसार श्राद्ध का आरंभ – महर्षि अत्रि ने पुत्रशोक ग्रस्त मुनि निमि (दत्तात्रेयपुत्र) को यह विधान बताया। पितृयज्ञ का साक्षात्कार सबसे पहले ब्रह्माजी ने किया, यह उनका ही चलाया हुआ अनुष्ठान है। वेदमन्त्रों द्वारा अग्निकरण प्रक्रिया पूर्ण करके अग्नि, सोम, वरुण और पितरों के साथ रहने वाले विश्वेदेवों को उनका भाग सदा अर्पण करे। इसके बाद श्राद्ध की आधारभूता पृथ्वी की वैष्णवी, काश्यपी और अक्षया के नामों से स्तुति करे। श्राद्ध के लिए जल लाने के लिए भगवान वरुण का स्तवन करे। इसके बाद अग्नि, सोम, उष्णप पितर, अग्निष्वात्त पितर और अग्नि मुख वाले विश्वेदेवों को तृप्त करे। पिण्डदान का समय उपस्थित होने पर अनाधिकारियों तथा धर्मभ्रष्टों को वहाँ से हटा दे।
वायु पुराण के अनुसार – पितरों का एक दिन-रात एक मास का होता है, कृष्णपक्ष उनका दिन और शुक्लपक्ष उनकी रात होती है। इस प्रकार मनुष्यों के ३० मास पितर का एक मास होता है। मानव वर्ष के १०० वर्ष पितर के ३ वर्ष व चार मास मात्र होते हैं। कृष्णपक्ष की अष्टमी पितरों का प्रातःकाल है तथा शुक्लपक्ष की अष्टमी उनका सायंकाल है।
नारद पुराण के अनुसार – हमारा एक दिन १५ मुहूर्त का होता है, उसमें से आठवाँ मुहूर्त मध्याह्न के बाद आता है, यही पितरों के श्राद्ध के लिए उत्तम माना गया है, इसका नाम ‘कुतपकाल’ है। इसी काल (जब सूर्य का तेज कुछ मन्द हो जाता है) में श्राद्ध प्रारंभ करना चाहिए। पूर्वाह्न देवकाल माना गया है, अपराह्न पितृकाल माना गया है। जो कव्य (पितरों के निमित्त) असमय अथवा सायंकाल में दिया जाता है उसे राक्षस का भाग समझना चाहिए।
स्वनक्षत्रों को साथ लिए हुए चंद्रमा पृथ्वी का परिभ्रमण २७ दिन ७ घण्टा ४३ मिनट में पूर्ण करता है। जिस समय चंद्रमा तथा सूर्य एक ही रात्रि, एक ही मण्डल में समान नक्षत्र पर होते हैं, (पृथ्वी तथा सूर्य के मध्य चंद्रमा आ जाता है) उसे अमावस्या कहते हैं। ‘दर्श: सूर्येन्दुसङ्गम:’ इस तिथि में सूर्य और चंद्रमा परस्पर एक दूसरे को देखते हैं इसलिए यह तिथि ‘दर्श’ भी कहलाती है (यथा दर्शपौर्णमास यज्ञ में दर्श अमावस्या के लिए, पौर्ण पूर्णिमा के लिए तथा मास महीने और चंद्रमा दोनों के लिए प्रयुक्त है)। अमावस्या में चंद्रमंडल के ऊर्ध्व भाग के लिए यह मध्याह्न है और चंद्रमा का दूसरा भाग जो हमारी ओर है वहाँ सूर्य का प्रकाश न दिखाई देने से चंद्रमा अप्रकाशित रहता है, हमें दिखाई नहीं देता है। अमावस्या के दिन सूर्य और चंद्रमा का एकसाथ उदय होता है, चंद्रमा के ठीक मस्तक पर इस दिन सूर्य रहता है।
पृथ्वी की तरह चंद्रमा अपने अक्ष पर भ्रमण नहीं करता है अपितु केवल दक्षभ्रमण करता है, अतः इसका ऊर्ध्व, अध: भाग सदैव नियत रहता है। चंद्रमा का अधोभाग सदा पृथ्वी की ओर अनुगत रहता है, जबकि ऊर्ध्वभाग परमेष्ठी की ओर। पितर प्राण ऊर्ध्वभाग में रहते हैं, असुर प्राण अधोभाग में रहते हैं।
पूर्णिमा तिथि में अधोभाग प्रकाशित रहता है, और पितर प्राण इस तिथि में सर्वथा अंधकार में रहते हैं। शुक्लपक्ष में सोम द्वारा तन्मय पितरों का सौर देवताओं के साथ भोग रहता है, इस कारण शुक्लपक्ष में पितरों से हमसे संबंध नहीं हो पाता है।
अमावस्या में ही पितर क्यों अतृप्त रहते हैं?
अमावस्या तिथि में सूर्यसंगम से चंद्रमा का ऊर्ध्वभाग प्रकाशित रहता है, इसलिए यह पितरों का मध्याह्न है। इस समय सौरअग्नि के मुख में प्रविष्ट चान्द्र पितर ‘अन्न’ बन रहे हैं, अतः यह ‘पितृह्रास काल’ कहा गया है। “अपक्षयभाजो वै पितर:” (शतपथ ब्राह्मण) इसके अनुसार अमा तिथि में पितरप्राण क्षीण होते जाते हैं। इसके अतिरिक्त अमावस्या में चंद्रमा के अधोभाग में स्थित सोम अत्यधिक मात्रा में पृथ्वी की ओर आता है, इस कारण पृथ्वी पर सोम की अधिकता से मनुष्यों और पितरों को जोड़ने वाला ‘श्रद्धासूत्र’ अत्यंत पुष्ट रहता है। इस प्रकार एक ओर पितरप्राण क्षीण होते हैं किन्तु दूसरी ओर मनुष्यों द्वारा उन्हें पुष्ट किया जाता है।
अथर्ववेद काण्ड १८ के ६३वें मन्त्र में पितरों से प्रार्थना की गई है कि “सोमरस प्राप्त करने के अधिकारी पितर! पितृयानों से अपने लोक को गमन करें और अमावस्या के दिन हवि भक्षण करने हेतु पुनः हमारे घर आयें। हमारे घर पुत्रों और उत्तम वीरों से युक्त हों।”
श्रद्धासूत्र
श्रद्धामयोऽयं पुरुषों यो यच्छ्रद्धः स एव सः। – श्रीमद्भगवद्गीता १७.३
यह पुरुष (जीव) श्रद्धामय है।
ऋग्वेद दशम मण्डल के १५१वें सूक्त के देवता ‘श्रद्धा’ हैं।
श्रद्धयाग्नि: समिध्यते श्रद्धया हूयते हवि:। – ऋग्वेद १०.१५१.१
“श्रद्धा से ही यज्ञाग्नि को प्रज्ज्वलित किया जा सकता है और श्रद्धा से ही हविष्यान्न की आहुति समर्पित की जाती है।”
श्रद्धा देवता से अभीष्ट फल प्रदान करने की स्तुति की गई है, दान देने वाले को दान का फल प्रदान करने को कहा गया है। श्रद्धा से ही मनुष्य धन-वैभव अर्जित करते हैं, इत्यादि। श्रद्धे श्रद्धापयेह न: – हे श्रद्धे! हमें इस जीवन में श्रद्धायुक्त करिए।
आपोमय: प्राण: – प्राण आपोमय (जलमय) है, इसलिए इसका संसर्ग भूततत्त्वों के साथ संभव है। श्रद्धा वा आप: – भूततत्त्वों में प्राणों का समन्वय श्रद्धा रूपी आप्य तत्त्व से होता है। यह श्रद्धातत्त्व शरीर में कहाँ से आता है? इसका उत्तर श्रीमद्भगवद्गीता और छान्दोग्योपनिषद में मिलता है कि मन अन्नमय है, प्राण जलमय है और वाणी तेजोमय है। इस श्रद्धातत्त्व का आगमन अन्न के द्वारा होता है, अन्न का आप्यतत्त्व ही श्रद्धातत्त्व के रूप में मन में प्रतिष्ठित रहता है। भोजन, यज्ञ, तप और दान यह सब स्वभावजा श्रद्धा द्वारा है, ऐसा श्रीमद्भगवद्गीता में कहा गया है।
सौर श्रद्धासूत्र (बुद्धि द्वारा) देवयज्ञ की प्रतिष्ठा है, चान्द्र श्रद्धासूत्र (मन द्वारा) पितृयज्ञ का प्रवर्तक है। पितृऋण से उऋण होने के उपाय इस प्रकार हैं –
१. प्रजा उत्पन्न करना (पुत्र जन्म) – जिससे सह: पिण्ड (गुणसूत्र) प्रतिष्ठित रहे, यह वैज्ञानिक रूप से ७ पीढ़ी तक मान्य है। अर्थात ७ पीढ़ियों तक मनुष्य अपने पूर्वजों से संबंधित रहता है। यही श्रद्धासूत्र का प्रमुख कारण बनता है।
२. सपिण्डीकरण –नीचे वाले सातवें पुरुष (सातवीं पीढ़ी) के निधन पर इस कर्म के द्वारा अपेक्षाकृत पहले पुरुष (पहली पीढ़ी) का बंधन विमोक होता है, अर्थात अब वह पार्थिव आकर्षण से मुक्त हो जाता है।
३. श्राद्धकर्म – जो भी श्राद्ध करता है वह ‘पुत्र’ नाम से पुकारा जाता है, अर्थात अपने से छः पीढ़ी पहले वाले तक पितरों का श्राद्ध कर्म भी पितृऋण से उऋण होने के लिए आवश्यक है।
४. कन्यादान – कन्यादान के मन्त्र में पिता वर से कहता है – “इमां कन्यां प्रदास्यामि पितृणां तारणाय च” अर्थात पितरों के उद्धार के लिए इस कन्या को मैं आपको प्रदान कर रहा हूँ।
५. गयाश्राद्ध – पुत्र को ‘गयातीर्थ’ में देखकर पितरों के यहाँ उत्सव होने लगता है, वे कहते हैं – क्या यह पैरों से भी जल का स्पर्श करके हमारे तर्पण के लिए नहीं देगा? अर्थात यदि पुत्र ‘गया’ चला गया तो पितरों का उद्धार कर देगा।
ब्रह्मज्ञानं गयाश्राद्धं गोगृहे मरणं तथा॥
वासः पुंसां कुरुक्षेत्रे मुक्तिरेषा चतुर्विधा। – अग्निपुराण ११५.५-६, गरुडपुराण आचारकाण्ड ८२.१५ तथा नारदपुराण उत्तरार्ध ४४.२०
“ब्रह्मज्ञान, गया में किया हुआ श्राद्ध, गोशाला में मरण और कुरुक्षेत्र में निवास – ये मनुष्यों की मुक्ति के चार साधन हैं।” यहाँ काल आदि का कोई नियम नहीं है, प्रतिदिन पिण्डदान देना चाहिए।
पुराणों के अनुसार गया नाम ‘गय’ नामक असुर तथा ‘गय’ नामक राजा के कारण पड़ा।
बृहदारण्यकउपनिषद के अनुसार “प्राणा वै गया:” अर्थात प्राण ही गय हैं, “गयांस्तत्रे तस्माद् गायत्री नाम” अर्थात इसने गयों (प्राणों) का त्राण किया इसलिए इसका नाम गायत्री है। इस प्रकार भी गया का नाम ‘गय’ अर्थात प्राण से हुआ। जिस तीर्थ में प्राणों (पितरप्राण) का त्राण हो वह ‘गया’ कहलाया। गयाश्राद्ध के अतिरिक्त गायत्री (पितृगायत्री) भी पितरों को कर्मबंधन से छुड़ाता है, इसलिए श्राद्ध में गायत्री जप भी विहित है।
ब्राह्मण ग्रंथों में भी “प्राणा वै गया:”, “एष ह वै चन्द्रमा भूत्वा सर्वाल्लोकान् गच्छति। यद् यद् गच्छति, तस्माद्गय:, तद् गयस्व गयत्वम्।” गय को प्राण तथा चन्द्रमा होकर सभी लोकों में गमन करने वाला कहा गया है क्योंकि यह गमन करता है इसलिए गय है।
गयातीर्थ में श्राद्ध का माहात्म्य पुराणों व इतिहास में अनेकों स्थान पर मिलता है, जैसे महाभारत के पितृगीता में पितर कहते हैं – “एष्टव्या बहव: पुत्रा यद्येकोऽपि गयां व्रजेत्” अर्थात बहुत से पुत्र पाने को अभिलाषा रखनी चाहिए, उनमें से यदि एक भी गया की यात्रा करे, जहाँ लोकविख्यात अक्षयवट विद्यमान है, जो श्राद्ध के फल को अक्षय बनाने वाला है।
गयाश्राद्ध के अभाव में पितर अपने वंशजों में संतति के निरोधक माने जाते हैं (पितृदोष), इसलिए गयाश्राद्ध गोत्रवृद्धि का कारण माना गया है।
श्राद्ध का अन्न पितरों को किस प्रकार मिलता है व प्रत्येक योनि में किस प्रकार पहुंचता है?
प्रत्यक्ष की अपेक्षा श्रुति का प्रमाण बलवान होता है, श्रुति से प्राप्त हुए ज्ञान का स्वरूप अमृत के समान होता है। श्राद्ध में उच्चारित पितरों के नाम तथा गोत्र हव्य-कव्य के प्रापक हैं अर्थात नाम व गोत्र का उच्चारण करने से तथा भक्तिपूर्वक पढ़े गए मन्त्र के द्वारा श्राद्ध का अन्न पितरों को मिल जाता है। शतश: योनियों में से जिस योनि में वह जीव रहता है, अग्निष्वात्त आदि पितृदेव उस अन्न को लेकर जाते हैं तथा नाम-गोत्र उच्चारण से उन जीवों की तृप्ति होती है। जैसा श्रुति में भी कहा गया है कि “हमने प्रातः सायं काल वंदना के योग्य अग्नि को दूत बनाकर पितरों के पास भेजा है, हे अग्नि! हमारी हवियों को पितरों को प्रदान करो”।
अग्नये कव्यवाहनाय स्वाहा सोमाय पितृमते स्वाहा – यजुर्वेद २.२९, “कव्य का धारण करने वाला जो अग्नि है उसे यह हविर्भाग दिया गया है। पितृयुक्त सोमसंज्ञक जो देव हैं, उन्हें यह हविर्भाग दिया है”।
भूतकालीन कर्म को देखने वाले जो पितृगण हैं उन्हें ‘कवि’ कहते हैं, उनको दिया हुआ हविर्द्रव्य ‘कव्य’ कहलाता है।
धाना धेनुरभवद् वत्सो अस्यास्तिलोऽभवत्। – अथर्ववेद १८.३२ “मंत्रों के अनुसार दिए गए धान यमलोक में जाकर तृप्त करने वाली गाय बनते हैं और तिल उस गाय का बछड़ा बनता है”। अर्थात पितर उन गायों पर ही आश्रित रहते हैं, इसके आगे के मंत्रों में कहा गया है कि ये गायें कामनायें पूर्ण करने वाली हों, पितरों के समीप रहें और उनकी सेवा करती रहें। ये गायें कभी नष्ट नहीं होतीं और सदा बल देने वाला दूध देती रहें।
प्रेतानां शृणु पक्षीन्द्र यथा श्राद्धन्तु तृप्तिदम्।
देवो यदपि जातोऽयं मनुष्यः कर्मयोगतः॥
तस्यान्नममृतं भूत्वा देवत्वेऽप्यनुयाति च।
गान्धर्व्ये भोगरूपेण पशुत्वे च तृणं भवेत्॥
श्राद्धं हि वायुरूपेण नागत्वेऽप्यनुगच्छति।
फलं भवति पक्षित्वे राक्षसेषु तथामिषम्॥
दानवत्वे तथा मांसं प्रेतत्वे रुधिरं तथा।
मनुष्यत्वेऽन्नपानादि बाल्ये भोगरसो भवेत्॥ – गरुडपुराण प्रेतकल्प १०.४-७
मनुष्य अपने कर्मानुसार यदि देवता हो जाता है तो श्राद्धान्न अमृत होकर उसे प्राप्त होता है तथा वही अन्न गन्धर्व-योनि में भोगरूप से और पशुयोनि में तृणरूप में प्राप्त होता है। वही श्राद्धान्न नागयोनि में वायुरूप से, पक्षी की योनि में फलरूप से और राक्षसयोनि में आमिष (मांस) बन जाता है। वही श्राद्धान्न दानव-योनि के लिये मांस, प्रेत के लिये रक्त, मनुष्य के लिये अन्न-पानादि तथा बाल्यावस्था में भोगरस हो जाता है।
श्राद्ध में श्रद्धासूत्र का महत्त्व इस प्रकार है कि श्रद्धा मन से है, और पितृयज्ञ करने के पश्चात मन अथवा चित्त परलोक में गया हुआ सा प्रतीत होता है, इस कारण यजुर्वेद के अनुसार ‘नाराशंस’ नामक स्तोत्र से हम अपने मन को वापस बुलाते हैं और पितरों से आज्ञा लेते हैं कि देवसम्बन्धी पुरुष हमारा मन हमें पुनः प्रदान करे।
लेख का प्रथम भाग : नमो व: पितरो!
लेख का द्वितीय भाग : श्रद्धाविश्वमिदं जगत्
बहुत ही ज्ञानवर्धक लेख 👍
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