योगः कर्मसु कौशलम्

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श्रीमद्भग्वद्गिता में भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा है ‘न हि कश्चित् क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत् ’ – गीता 3/5 अर्थात, कोई भी व्यक्ति कर्म किये बिना क्षण भर भी नहीं रह सकता।

अपने जीवन में भी इस बात की सत्यता सभी को ज्ञात है। इसके साथ ही जो कोई कर्म हो, उसका फल भी अवश्यम्भावी है। शास्त्रविहित जैसे संध्यादि का फल सुख है और शास्त्रनिषिद्ध जैसे, झूठ बोलना, मांसभक्षण आदि का फल दुःख होता है। यह सुख – दुःख भोगना ही भवबंधन है। कर्म से सुख – दुःख भोग, भोग से वासना, वासना से फिर कर्म। इस प्रकार अनादि काल से जो चक्र चलता आया है, उससे छूटना तभी संभव हो सकता है जब ज्ञान द्वारा आत्मा का यथार्थ रूप समझ लें – ‘ज्ञानाग्निः सर्वकर्माणि भस्मसात् कुरुतेर्जुन’ – गीता 4/37  अर्थात, ज्ञान रूपी अग्नि सारे कर्मों को जला देती है।

किन्तु उस ज्ञान की प्राप्ति इतनी सुगमता से नहीं होती। भगवान् ने गीता में कहा है:

मनुष्याणां सहस्रेषु कश्चिद्यतति सिद्धये ।
यततामपि सिद्धानां कश्चिन्मां वेत्ति तत्वतः॥

– गीता 7/3

अर्थात, अनेक जन्मो के पुण्य कर्म के कारण असंख्य मनुष्यों में कोई एक ही आत्म ज्ञान के लिए प्रयत्न करता है। श्रवणादि साधनों से प्रयत्न करने वाले सिद्धों में भी कोई एक मेरे स्वरुप को तत्वतः जान पाता है।

ज्ञान प्राप्त होने पर किसी भी कर्म की आवश्यकता नहीं रह जाती। लोकसंग्रह के लिए कृपावश ज्ञानियों के द्वारा किये जाने वाले कर्म बंधक नहीं होते, क्योंकि वे फल नहीं दे सकते (श्री योगवाशिष्ठ, व्युत्पत्ति प्रकरण, अंतिम अध्याय देखें)

जो आत्म ज्ञानी नहीं है, उनके कर्म अवश्य ही कोई न कोई फल देते हैं। साधारण मनुष्य ज्ञान पाने में असमर्थ होते हैं और कर्म सर्वथा छोड़ नहीं सकते। ऐसी परिस्थिति में वे कर्मफल रूप भवबंधन से छुटकारा कैसे पा सकते हैं? भगवान् ने इसका उत्तर भी गीता में सुचारू रूप से दिया है। ये कर्म यदि फल की इच्छा छोड़ कर भगवदर्थ किये जाएँ तो बंधक नहीं बल्कि मोक्षप्रद हो सकते हैं। उनसे चित्त की शुद्धता प्राप्त होगी। चित्त शुद्धि प्राप्त होने पर क्रियमाण श्रवणादि साधन आत्मज्ञान के साधक होते हैं। अहंकार और फलासक्ति से जो क्रियमाण कर्म बंधक होते थे, वे ही अहंकार और फलासक्ति त्याग कर किये जाएँ तो मोक्ष प्रद होंगे। इसी योग को गीता में कर्मों में कौशल कहा गया है।

अतः हम जो कोई भी कर्म करें, भगवत्प्रीती के लिए करें, कर्म फल की आशा छोड़ दें, कर्म करने का अभिमान, अहंकार त्याग दें तो भगवान् की कृपा से पात्र बनके ज्ञान प्राप्त कर कृतार्थता प्राप्त कर सकेंगे। गीता में भगवान् ने कहा है –

तेषामेवानुकम्पार्थमहमज्ञानजं तमः।
नाशयाम्यात्मभावस्थो ज्ञानदीपेन भास्वता।।

गीता 10/11

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4 years ago

Very good…nice information…

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