ऐ नादां परिन्दे
तुने समझा क्या था
ये अनंत आकाश हमारा है
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कभी समझा तो होता यह भी
आकाश की अहमियत को
धरती ने ही दिया सहारा है
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धरती नहीं गर इस जहाँ में
तो आकाश को कौन पूछेगा
हिन्दू बिन तुम दिल्ली में
कभी नहीं बैठ पाओगे
वो तो मर्जी हमारी है
वर्ना ये सिंहासन भी हमारा है
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होश में आओ
समरस की तुम करो
मिलजुल कर हम रहना चाहते
वर्ना 23 मई का निर्णय यह
अटल अडिग आगे भी हमारा है
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पाकिस्तान चाईना है
दुश्मन हमारा
इनसे हमदर्दी रखना छोड़ दो
कायरों बुजदिलों
समझोगे तुम भी एक दिन
लेकिन जब हो गया होगा
सत्यानाश तुम्हारा है।
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गंगा जमुनी संस्कृति हमारी
खिलने दो हर फूल
इसके चमन में
वर्ना अपनी ही मईयत
अपने ही सर पे लिए फिरोगे
तब समझोगे
कि हमारा
कोई न रोदनहारा है
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विष बमन तुम छोड़ दो
हमारा मजहब हमें सीखाता है
हम सबको साथ लेकर चलने वाले
क्योंकि ये वसुधैव कुटुम्ब हमारा है
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ऐ नादां परिन्दे
तुने समझा क्या था
ये अनंत आकाश हमारा है
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– सत्येन्द्र तिवारी
अति सुंदर
बहुत ही अच्छी व सुन्दर तरीक़े से आप ने लिखा है
वास्तव मे आप कविता बहुत ही अच्छी लिखते
👌👌👌👌
जयश्रीराम🙏
शुभ रात्रि🌷
तिवारी जी को सादर प्रणाम🙏💐
धन्यवाद पाण्डेय जी । तारीफ सुनना सबको अच्छा लगता है। मुझे भी बहुत अच्छा लगा है। लेकिन अफ़सोस लोगों के कसौटी पर खड़ा नहीं उतर पा रहा हूँ। हलाकि मैं जानता हूँ कि यह इतना आसान नहीं है और न शायद संभव।
जल्दी में लिखा, कुछ और अच्छा हो सकता था, जहाँ तक मेरा क्षमता है। खैर…
सुप्रभात, सादर प्रणाम 🙏🙏🙏
वाह!!
बहुत शानदार 👌👌
आपका धन्यवाद🌷🌷
जी आपका बहुत बहुत हार्दिक आभार और हृदय की गहराई से धन्यवाद 🙏🌹🌹🌹
अति सुंदर रचना…👌👌👌
धन्यवाद मिथलेश जी 🌹💐