वैदिक पर्व ‘रक्षाबंधन’

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भविष्य पुराण के अनुसार प्राचीन समय में देवासुर संग्राम में देवताओं द्वारा दानव पराजित हो गए। दुखी होकर दैत्यराज बलि अपने गुरु शुक्राचार्य के पास गए, गुरु ने वर्ष भर के लिए देवराज इन्द्र से संधि करने की सलाह दी। क्योंकि गुरु बृहस्पति व इन्द्रपत्नी शची ने श्रावण पूर्णिमा में इन्द्र को रक्षा सूत्र बाँधकर अजेय बना दिया था।

येन बद्धो बली राजा, दानवेन्द्रो महाबलः।
तेन त्वां प्रतिबध्नामि, रक्षे मा चल मा चल॥
भविष्य पुराण, उत्तर पर्व १३७.२०

इस मन्त्र से बृहस्पति ने श्रावण मास की पूर्णिमा के प्रातः काल ही रक्षा विधान किया था, उसके बाद इंद्राणी ने मंगलाचार करके इन्द्र के दाहिने हाथ में रक्षा पोटली बांधी और इससे इन्द्र ने दानवों पर विजय पाई थी।

यह रक्षाबंधन का प्रभाव है, इससे विजय, सुख, पुत्र, आरोग्य और धन प्राप्त होता है। पूर्णचन्द्र सुधानिधि होने के कारण आयु व आरोग्य देने का प्रतीक है, अतः इस कर्म को करने के लिए पूर्णिमा ही उचित तिथि है। श्रवण नक्षत्र के देवता जगत के पालनकर्ता विष्णु भगवान हैं और इस नक्षत्र तथा पूर्णिमा का योग केवल श्रावण मास में होता है। यह तिथि कितनी पुण्यदायी और शुभ है यह इससे पता चलता है कि श्रावणी को श्रवण नक्षत्र में प्रथम समय में भगवान हयग्रीव प्रकट हुए थे।

आजकल बहन के द्वारा भाई को रक्षाबंधन होता है, किन्तु इस कथा के अनुसार इन्द्र को गुरु बृहस्पति और इंद्राणी दोनों ने राखी बांधी थी। इससे यह सिद्ध होता है कि रक्षाबंधन केवल भाई बहन के लिए नहीं अपितु ब्राह्मण द्वारा राजा/यजमान के लिए और सौभाग्यवती स्त्री द्वारा अपने पति के लिए भी है।

प्राचीन काल में रक्षा पोटलिका बनाई जाती थी, कपास अथवा रेशम के वस्त्र में अक्षत, गौर सर्षप (सफेद सरसों), सुवर्ण, सरसों, दूर्वा, चंदन आदि पदार्थ रखे जाते थे।

अथर्ववेद के प्रथम काण्ड में रक्षाबंधन की मूल कथा मिलती है – “यजमान! दक्ष की संतान महर्षियों ने सौमनस्य को प्राप्त होकर राजा शतानीक के लिए जिस निर्दोष स्वर्ण को बाँधा था, वही स्वर्ण में तेरी दीर्घ आयु, तेज, बल प्राप्ति के लिए एवं सौ वर्ष की लंबी आयु पाने के लिए तुझे बांधता हूँ।”

यदाबध्नन् दाक्षायणा हिरण्यं शतानीकाय सुमनस्यमानाः।
तत्ते बध्नाम्यायुषे वर्चसे बलाय दीर्घायुत्वाय शतशारदाय॥
-अथर्ववेद, १.३५.१

धर्मसूत्रों के प्रचारक ब्राह्मण अपने राजा तथा यजमानों के दक्षिण हस्त में कौशेय सूत्र (रेशम के डोरे), तूलसूत्र आदि रक्षासूत्र बाँधते हैं और यजमान यथाशक्ति दक्षिणाद्रव्य देते हैं।

इस रक्षा का क्या अर्थ है? क्या हित साधन हो रहा है इस रक्षाबंधन से? किसकी कौन रक्षा कर रहा है? और किससे रक्षा कर रहा है?

मानव, मरणधर्मा व्यक्त शरीर और अमृतधर्मा अव्यक्त आत्मा का समन्वित रूप है।

अव्यक्त आत्मा का विनाश असंभव है, यह अजर-अमर-अविनाशी-सनातन है। इसको कोई भी विपत्ति कैसे छू सकती है, अर्थात यह स्वयं अपने द्वारा सुरक्षित है।

अब बचता है मानव शरीर जो दिग्-देश-काल सीमाओं से बनता है। यह मरणधर्मा और परिवर्तनशील है। इसे ही असंख्य द्वन्द्व भावों व विपत्तियों के आक्रमणों से सुरक्षित करने की आवश्यकता है। अब मानव शरीर के भाग देखिए – पार्थिवभाग स्थूल है (स्थूल शरीर), चांद्रभाग सूक्ष्म है (सूक्ष्म शरीर) और सौरभाग सूक्ष्मतम है (कारण शरीर)। इन तीनों का ही नाश-विनाश, क्षति-विक्षति आदि संभव है और इनका संरक्षण मानव का अतिआवश्यक कर्तव्य है।

इन तीनों शरीरों पर किस प्रकार की विपत्ति आ सकती है? इसका उत्तर पुराणों में मिलता है – त्रिविध ताप अथवा त्रिविध दुख

“आध्यात्मिकादित्रिविधं तापं नानुभवेद्यथा।” – नारद पुराण,

“दैहिक दैविक भौतिक तापा। राम राज नहिं काहुहि ब्यापा।।” – मानस

आधिदैविक ताप अर्थात प्राकृतिक विपत्तियाँ, आधिभौतिक ताप अर्थात दूसरों से मिलने वाले भौतिक दुख अथवा हानि (चोरी आदि), आध्यात्मिक ताप अर्थात शारीरिक-मानसिक-बौद्धिक दुख।

इन त्रिविध तापों से रक्षा करने वाला कौन है? जो कोई मानव श्रेष्ठ होगा, दिग्दर्शक होगा, धर्मसूत्रों के प्रचार से लोगों को उनके कर्मों को बताने वाला होगा, तत्वचिंतक होगा, ज्ञान-विज्ञान निष्ठ होगा, मूलरूप से उसे ही राष्ट्र-समाज-परिवार-व्यक्ति का रक्षक माना जाएगा। भारतीय सामाजिक व्यवस्था में यह कार्य ‘ब्राह्मण वर्ग’ का है।

ब्राह्मण ही शास्त्रीय अनुष्ठानों से प्रकृति को सुशान्त करके आधिदैविक रक्षा साधन करते हैं, पुरुषार्थ द्वारा आधिभौतिक ताप का निवारण करते हैं। आयुर्वेद-धर्म-दर्शन तीनों शास्त्रों के द्वारा ही स्थूल-सूक्ष्म-कारण शरीर सुव्यवस्थित सुरक्षित रखते हैं।

सारांश यह है कि त्रिविध ताप से रक्षा रहे, आयु-आरोग्य की अविच्छिन्नता रहे, इस आशीर्वाद के प्रतीकरूप में मांगलिक रक्षा-सूत्र ब्राह्मण पुरोहितों एवं बहन द्वारा बाँधा जाता है। यह रक्षाबंधन चारों वर्णों के लिए है, जो व्यक्ति विधिपूर्वक रक्षाबंधन करता है वह वर्ष भर सुखी रहकर पुत्र-पौत्र और धन से परिपूर्ण हो जाता है। इसलिए प्रतिवर्ष इस सनातन राष्ट्रीय पर्व को पूर्ण विधि-विधान से करना चाहिए।

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