तकारो मरणं प्रोक्तं तद् योग: स्यादुकारत:।
मृता लसति चेत्येवं तुलसीत्येव गीयते॥
‘त’ का अर्थ ‘मरण’ है। इसमें ‘उकार’ अर्थात योग लगा है जो मरणयोग्य अर्थात मृत है। ल+सी=लसी का अर्थ है ‘कान्ति’ अर्थात जो मृत होकर भी कान्तिपूर्ण है, वह ‘तुलसी’ है।
वृन्दा तथा जलंधर या शंखचूड़ दानव की कथा पद्म, देवीभागवत, ब्रह्मवैवर्त आदि पुराणों में मिलती है, जिसमें वृन्दा का सतीत्व नष्ट होने के कारण उसके पति की मृत्यु होती है। एक अन्य कथा बृहद्धर्म पुराण में भी मिलती है, जिसके अनुसार कैलास में वृन्दा नामक एक परम वैष्णव ब्राह्मण धर्मदेव की भार्या थी। इस कथा में वृन्दा द्वारा पत्नीधर्म पालन में हुई चूक से वह अपने पति के श्रापवश राक्षसी हो गई थी। किन्तु राक्षसी होने पर भी अपने पूर्वगुणों के कारण वह ब्राह्मणों व वैष्णवों को अपना आहार नहीं बनाती थी।
भगवान महेश्वर ने माता पार्वती से कहा – “यह वृन्दा राक्षसी है, यह पहले परम विष्णुभक्त ब्राह्मण की भार्या तथा परम वैष्णवी थी। दैववश राक्षसी होकर मरी, इसे मरे एक वर्ष हो गए तथापि इसकी कान्ति यथावत है तथा देह नष्ट न हो सकी।“
माँ पार्वती ने जब वृन्दा के मृत शरीर को सम्यक रूप से देखा तो पता चला उसके शरीर के सभी अंगों पर विष्णु नाम तथा सम्पूर्ण देह पर द्वादशाक्षर विष्णु मन्त्र अंकित है। मन्त्र के प्रत्येक वर्ण के गर्भ में विष्णु सहस्त्रनाम भी है।
महादेव ने अपने गणों से कहा कि “अभिशप्ता होने पर भी इसने ब्राह्मण हिंसा नहीं किया, इसकी देह वृथा नष्ट होना उचित नहीं है, अतः वृन्दा वृक्षरूपा होकर भगवान विष्णु की प्रसन्नता का वर्द्धन करे, विष्णु देव की प्रसन्नता हेतु इसकी देह को बो दो। हरि की पूजा वृक्षरूपा वृन्दा की पत्तियों से जितनी उत्कृष्ट होगी, वैसी पूजा मणि-मुक्तादि अन्य वस्तु से नहीं हो सकती। इसका नाम तुलसी होगा, जो पवित्रपावनरुपा होगी।“
वृन्दा के पति धर्मदेव ने भगवान महादेव से अपनी प्रिया की प्रीतिकामनार्थ उस वृक्ष का मूल होने का आशीर्वाद मांगा। शिवगणों ने पृथ्वी पर कालिन्दी के उत्तम तट पर वृन्दा के देह को रोप दिया, उस प्रदेश को ‘वृन्दावन’ कहा गया।
करपात्री महाराज भागवतसुधा में लिखते हैं – वैकुंठ दो प्रकार का है, भौम वैकुंठ और परम वैकुंठ। श्रीवृंदावन भौम वैकुंठ है। जहाँ भगवान जाते हैं वहीं उनका धाम भी पधारता है। वृन्दा भगवतकृपा से भगवदीया हो गई, उस वृन्दा का अरण्य ही वृन्दारण्य है। “वृन्दाया: वनं यौवनं वृन्दावनम्”, वृन्दा का यह यौवन है। यह अरण्य वृन्दा का देदीप्यमान स्वरूप ही है। हर स्थिति में प्रियतम श्रीकृष्ण के चरणों में सुशोभित होना – यही वृन्दा की अद्भुत स्थिति है, जहाँ प्रभु शालग्राम विराजमान हों, वहाँ वह तुलसी रूप में सेवा करती है। जब भगवान अवतार लेते हैं तो वह वन में प्रकट हुईं। यमुना वृन्दा के हृदय की प्रेमानन्द सरिता हैं, तरु रोमाञ्च और भूमि देह है।
राधाकृष्ण (युगल) सहस्त्रनाम स्तोत्र में वृन्दावननिवासकृत् (वृंदावन में निवास करने वाले), वृन्दावनविकासन: (वृंदावन का विकास करने वाले), सदावृन्दावनप्रिय: (वृंदावन के शाश्वत प्रेमी), वृन्दावनेश्वरी, वृन्दावनकुंजविहारिणी, श्रीवृंदावनचंद्रिका, नित्यवृन्दावनरसा (सदा वृंदावन का रस लेने वाले) इत्यादि नाम मिलते हैं।
यही श्रीवृंदावनधाम श्रीराधाकृष्ण विहार विपिन है, उनके चरण-कमलों के चिन्हों से सौभाग्य सम्पन्न है। कुछ भावुक इस वृंदावन के वृक्षों को कल्पवृक्ष से भी उत्तम मानते हैं, कल्पवृक्ष से जो मांगो वो देता है लेकिन क्या यह सर्वेश्वर सर्वशक्तिमान प्रभु को दे सकता है? यह चमत्कार कल्पवृक्ष में नहीं है, लेकिन वृंदावन के वृक्ष यह चमत्कार कर सकते हैं, वे अनंतकोटि गुणित फल प्रदान करते हैं। वृंदावन के वृक्षों के किरण (पादपांशु) बड़े-बड़े योगीन्द्रों, मुनीन्द्रों को बहुत तपस्या करने पर भी नहीं दिखती। श्रीधाम वृंदावन की प्रत्येक वस्तु दिव्य है।