मायां तु प्रकृतिं विद्यान्मायिनं तु महेश्वरम्। – श्वेताश्वतरोपनिषद
उपनिषदों में प्रकृति को ‘लोहित-शुक्ल-कृष्ण’ (अजामेकां लोहितशुक्लकृष्णां) कहा गया है क्योंकि उसमें तीन गुण होते हैं। गुण साम्यावस्था बीजावस्था है, यही शुद्ध माया है – साम्यावस्था अभिमानिनी देवी ‘महालक्ष्मी’ हैं (सूक्तरूप भुवनेश्वरी देवी और महालक्ष्मी देवी दोनों एक ही हैं, आयुध भेद है)। “सदाहं कारणं शम्भो न च कार्य कदाचन” भगवती सर्वदा कारण हैं, कार्य कभी नहीं।
बीज का अंकुरित होना कार्यावस्था है, अर्थात तमोगुण विशिष्ट में अभिमान करके (सगुणा निर्गुणा चाहं समये) उन्हीं देवी ने ‘महाकाली’ का रूप धारण कर लिया। दोनों ही देवियाँ अभिन्न हैं, तथापि रूप भेद है क्योंकि उनमें कर्म भेद है।
देवी महाकाली ने पूछा, मेरे लिए नाम और कर्म बताओ। देवी महालक्ष्मी ने महामाया, महाकाली, क्षुधा, योगनिद्रा, तृष्णा, एक वीरा आदि नाम और नाम के अनुरूप ही कर्म बतलाये। इसके पश्चात देवी महालक्ष्मी ने अति शुद्ध सत्व के द्वारा चंद्रप्रभा के समान अतिसुन्दर एक और रूप धारण किया, देवी महासरस्वती का। उनके नाम महाविद्या, महावाणी, भारती, वाक्, आर्या, ब्राह्मी, कामधेनु, बीजगर्भा, धनेश्वरी इत्यादि बतलाया गया और उसी के अनुरूप कर्म बतलाये गए।
चिदात्मिका भगवती में सिसृक्षा (सृष्टि की इच्छा) क्यों उत्पन्न होती है? प्राणियों के कर्म-फल-भोग का समय जब आता है, तब अव्यक्त (माया) में सृष्टि करने की इच्छा उत्पन्न होती है। गुण साम्यावस्था बीजावस्था है, इसके भंग होने का क्या कारण है यह जानना अत्यंत कठिन है। कहा जाता है कि ईश्वरीय संकल्प से ही यह गुण साम्यावस्था नियत पर भंग होती है। विभाग को प्राप्त न हुआ यह ‘बिन्दु’ अव्यक्त कहलाता है।
किसी भी कार्य को करने के लिए हलचल, प्रकाश और अवष्टम्भ अर्थात रुकावट इन तीनों की अपेक्षा हुआ करती है। इनमें से एक के बिना कोई भी कार्य सम्पन्न नहीं हो सकता है, इसलिए सृष्टि त्रिगुणात्मक है। प्रकाश सत्व (शुक्ल) है, हलचल रज (रक्त) है और अवष्टम्भ तम (कृष्ण) है। इस प्रकार त्रिदेव व त्रिदेवी भी तीन रंग के हैं, अर्थात वे इन गुणों का प्रतिपादन करते हैं। भगवान शङ्कर-देवी सरस्वती (शिवानुजा) शुक्ल रूप भाई-बहन हैं। भगवान ब्रह्मा-देवी लक्ष्मी रक्त वर्णी भाई-बहन हैं। भगवान विष्णु-देवी गौरी ये दोनों भाई बहन कृष्ण रंग के हैं। भाई-बहन ही एक रंग के होते हैं, पति-पत्नी नहीं। इसीलिए दंपति शिव-गौरी, विष्णु-लक्ष्मी, ब्रह्मा-सरस्वती एक रंग के नहीं हैं।
रज की हलचल तथा सत्व की ज्ञान शक्ति ही सृष्टि कर सकती है, इसलिए भगवान ब्रह्मा व देवी सरस्वती से सृष्टि होती है। तम की रुकावट और रज की हलचल से पालन होता है इसलिए भगवान विष्णु पत्नी लक्ष्मी से जगत का पालन होता है। स्थिति काल में भी उन्नति के लिए तीनों शक्तियों की अपेक्षा होती है- दोषों का संहार, रक्षणीय गुणों का पालन और अविद्यमान गुणादिकों का उत्पादन अभीष्ट होता है। रोगों का नाश, प्राणों का रक्षण और बल का उत्पादन यह भगवान शिव, विष्णु एवं ब्रह्मा का कार्य है।
सत्व के प्रकाश और तम के अवष्टम्भ से संहार होता है अतः भगवान शिवपत्नी गौरी से संहार होता है। अर्थात तम के प्रबल होने से अत्यंत रुकावट होने से पालन न होकर संहार होता है, परंतु संहार किसका, कब और कितने समय तक हो इसके लिए सत्त्व की अपेक्षा है – इसलिए महाकाली भगवान शिव का सहारा लेती हैं। ये त्रिदेव व त्रिदेवियाँ गुणों के वश नहीं अपितु गुणों के नियन्त्री हैं अतः स्वतंत्र हैं।
इतिहास की दृष्टि से पहले सृष्टि, फिर स्थिति, फिर संहार होता है। साधना में संहार, पालन और उत्पादन यह क्रम मान्य होता है।
आधार ग्रंथ – श्री करपात्री महाराज द्वारा विरचित भक्ति सुधा