भारत, सांस्कृतिक परम्पराओं और मूल्यों का निर्वहन करने वाला देश है। विश्व में भारत की विशेष पहचान है। भारत विश्व में विशिष्ट विशेषताओं यथा सहनशीलता, उदारता, अतिथि सेवा की विशेष परम्परा के कारण प्रसिद्ध है।
भारत की संस्कृति को नष्ट – भ्रष्ट करने का कार्य अंग्रेजों ने किया। अंग्रेज भारत को सिर्फ उपनिवेश के रूप में नहीं चाहते थे बल्कि वे भारत की संस्कृति को बदल कर अंग्रेजी बनाना चाहते थे। भारतीयों को मानसिक गुलाम बनना चाहते थे जिससे वह भारत को ब्रिटेन की तरह बदल सकें। इसे करने के लिए शिक्षा व्यवस्था को बदला गया और भारतीय गुरुकुल पद्धति को खत्म कर दिया। मुस्लिम काल में मदरसे के माध्यम से शिक्षा दी गयी जिससे कुछ मुस्लिम मान्यतायें हिन्दू धर्म में प्रवेश कीं। अंगेज उपनिवेशी व्यवस्था में शिक्षा का पूरा सिस्टम बदल दिया गया।
उदारता के नाम पर उन्होंने भारतीय धार्मिक मान्यताओं में भी हस्तक्षेप करना शुरू किया। शिक्षा का सार्वभौमिकरण कर पूरी व्यवस्था को नष्ट करने का कुचक्र रचा।
भारत की सबसे मजबूत इकाई ‘परिवार’ इस भौतिकवाद में बिखर गया। और आगे परिवार की इकाई स्त्री को टारगेट किया गया, जैसे शूद्रों को समझाया गया कि तुम्हारा शोषण उच्चवर्ग ने किया, उसी प्रकार नारीवाद में कहा गया कि पुरुषों ने स्त्रियों का शोषण किया उन्होंने स्वयं ग्रंथ लिखकर नारियों को हेय दिखाया। दूसरी तरफ शूद्रों को कहा कि धर्म ग्रंथों की रचना ब्राह्मणों ने शूद्रों के शोषण के लिए रची है।
नारी पर चिंतन करते हैं तो उसे पुरुषों से बहुत शिकायतें है। समाज के कुछ मनचले पुरुषों की हरकतों का बदला वह अपने पति के परिवार से पूर्वाग्रह के कारण ले रही है।
कुछ परिवार में नारी की स्वतंत्रता को नियंत्रित करने का प्रयास हुआ किन्तु यह प्रयास पुरुषों ने न कर नारी ने स्वयं किया जिसका दोषारोपण भी पुरुष पर आया।
नारी का आरोप है कि पुरुष दहेज लेता है। पहले दहेज को समझिये – विवाह के 8 प्रकार हैं जिसमें चार दैव विवाह में “ब्रह्म विवाह” को श्रेष्ठ माना गया है। जिसमें कन्या का पिता वर पक्ष को अपने घर आमंत्रित करके समाज, देवता, कुल देव, अग्नि देव को साक्षी मान कर विधि विधान से विवाह सम्पन्न करके कन्या को उपहारों के साथ विदा करता है।
आखिर यह उपहार कब दहेज के रूप ले लिया? इस बात पर मंथन जरूरी है। 1990 के दशक के पूर्व छ: – सात कन्याओं के पिता के पास दो – तीन बीघे खेती होती थी, उसी की आमदनी से वह अपनी सातों कन्याओं का विवाह कर लेता था, उसके खेत बिकने की नौबत नहीं आती थी।
लेकिन इसी दशक में खेती नौकरी से पिछड़ती गयी, किसान की एक ओर आमदनी घटी तो वहीं दूसरी ओर नौकरियों में तनख्वाह बढ़ता गया। सम्पन्न परिवार की जगह सरकारी चाकर वाले दूल्हे की मांग बढ़ी । IAS, PCS का दहेज करोड़ में पहुँच गया तो वहीं छोटी सरकारी नौकरी वालों का भी लाखों में हो गया।
दहेज को दो तरह से समझिये –
एक, कन्या का अपने पिता की सम्पत्ति में अधिकार। मान लीजिए पिता के पास कुल 1 करोड़ की संपत्ति है और उसके दो बच्चे एक लड़का और एक लड़की हैं। हिस्सा एक – एक का पचास लाख हुआ। यह 50 लाख छोड़िये 25 लाख दहेज दीजिये या बेटी – दामाद को घर। यह कैसे गलत है? व्यक्तिगत रूप से देखेंगे तो भारत में शादियां सबसे सस्ती होती हैं।
सुधार आक्षेपों से नहीं होते हैं वरन वास्तविक धरातल पर होते हैं। आदर्शात्मक व्यवस्था भी व्यवहार से अछूती नहीं रह सकती।
दूसरा, सरकारी नौकर बहुत कम हैं ऊपर से सभी लड़की वाले आर्थिक सुरक्षा की दृष्टि से सरकारी नौकरी वाला लड़का ही चाहते हैं, हालत ‘एक अनार सौ बीमार’ वाली है। अपने स्तर से बहुत ऊपर जाकर सोचते हैं कि बार – बार की झंझट से अच्छा है कि एक बार में किसी तरह करके सरकारी नौकर को दामाद के रूप में खरीद लिया जाय। विवाह का यह स्वरूप 1990 के उदारवाद के नाम पर उच्चशिक्षित वर्ग में देखा गया।
अब दहेज पर विचार करिये कि कौन ले रहा है और कौन दे रहा है? कौन सी व्यवस्था इसका समर्थन कर रही है?
सनातन हिन्दू व्यवस्था में दहेज लेने की बात ही गलत है, किसी भी ग्रन्थ में इसका कोई उल्लेख नहीं है। मनुस्मृति आदि में तो यहां तक लिखा है कि उपहार के रूप में भी धन या वस्तु न दी जाए। व्यक्तिगत स्वार्थ के चक्कर में आप स्वयं से दहेज दे रहे हैं और बदनाम पूरे समाज को किया जा रहा है। यह एक हाथ ले, एक हाथ दे वाली व्यवस्था पर निर्भर करता है।
नारी को यदि पुरुष से चिढ़ है तब वह नारी का चुनाव करें पुरुष का क्यों कर रही है? जबकि आज तो नारी – नारी के रिश्तों की मान्यता भी मिल गयी है। नारी, नारी की तरह न सोच पुरुष की तरह सोच रही है। अपनी तुलना पुरुष से कर रही है, यह तुलना प्रकृति के विरुद्ध है। स्त्री – पुरुष की शारीरिक संरचना और सोच के स्तर पर भारी भिन्नता है। नारियों को पुरुषों की नकल के लिए प्रेरित करने का कार्य पश्चिम की सभ्यता कर रही है।
उच्चशिक्षा और मल्टीनेशनल कंपनियों में व्यभिचार को शिष्टाचार की श्रेणी में रख दिया गया है। इस तरह के व्यभिचार की स्वीकृति बढ़ती जा रही है। उदारता अश्लीलता को बढ़ा रही है, नारी देह को नुमाइश का केंद्र बना दिया गया है। इस बहकावे को नारी समझ नहीं रही है बल्कि स्वयं फंस जा रही है।
पुरुषों की एक शिकायत को नारी स्वीकार करें – अपने पिता के घर वह 25 साल भी नहीं रहती है और बाकी जीवन पति के घर रहती है। नारी को जो प्रेम, सम्मान उसका पति देता है या देना चाहिए वह अन्य किसी से संभव नहीं है। फिर भी नारी की रुचि पति के घर न होकर मायके में रहती है। वह वहीं की पुरानी कहानी बताती रहती है, पति के परिवार की गाथा से उसका कोई सरोकार नहीं रहता और जब तक यह सही रूप में आता है तब तक या तो परिवार बिखर चुका होता है या वह नारी सास बन अपने बहु के इसी कृत्य से परेशान होने लगती है।
नारी को अपने माता – पिता की सेवा शुश्रूषा की चिंता तो रहती है लेकिन वहीं वह पति के माता – पिता पर पल्ला झाड़ लेती है। जो व्यवहार वह पति के परिवार से कर रही है वही व्यवहार उसके घर आयी बहु उसके परिवार से करती है तब उसे कितनी तकलीफ होती है।
अब प्रश्न यह है कि क्या दहेज के लिए लड़के का पिता ही अकेला दोषी है? क्यों की आप कन्या के लिए सरकारी नौकर ढूढ़ रहे हो। एक शिकायत यह भी इतना दहेज देने के बाद लड़का सही नहीं है। यदि इनसे पूछा जाय कि तुमने योग्यता का मतलब सरकारी चाकर को माना है तो अब चरित्र और संस्कार की बात क्यों कर रहे हो?
नोट: प्रस्तुत लेख, लेखक के निजी विचार हैं, यह आवश्यक नहीं कि संभाषण टीम इससे सहमत हो।
***