भारत शब्द सुनते ही मन में सभ्यता, संस्कृति, प्रेम और सौहार्द के विचार कौंधने लगते हैं जो आपको अपनेपन से सराबोर कर जाते हैं। भारत की भूमि पुण्यता और कर्मणा मानी जाती है। ऋषियों – मुनियों के अनुसंधान, नारी के त्याग और वीरों की शौर्यगाथा, महाकाव्यों से लेकर लोककथाओं में स्तंभित है।
भारत प्राचीन काल से ही भिन्न सभ्यता और संस्कृतियों का पालना रहा है जहाँ एक ओर भारतभूमि हिन्दू, बौद्ध, जैन, लोकायत और सिख धर्म की जननी रही है वहीं दूसरी ओर यहूदी, पारसी आदि धर्मों को उनके विपरीत समय में संरक्षण देने का काम भी किया। यहाँ तक कि इस्लाम धर्म को फलने – फूलने और उसके कई पंथों का जन्म भी इसी भूमि पर हुआ है।
वेदों की रचना इसी भूमि पर हुई जो प्रकृतिशास्त्र, विज्ञान, चिकित्सा, गणित, ज्योतिष, योग, दर्शन, खगोलशास्त्र आदि के जनक माने जाते हैं। लोहे का अविष्कार, पत्थर पर पॉलिश का जन्म और बचपन यही बीता है। आधुनिक विज्ञापन की शुरूआत मंदसौर के सूर्य मंदिर पर बुनकरों द्वारा संस्कृत भाषा उत्कीर्ण करा कर के कुमारगुप्त के काल में भारत में ही की गयी।
प्राचीन भारत विश्व का सबसे विकसित राष्ट्र था जिसका विवरण यहाँ आये विदेशी यात्री जैसे मेगस्थनीज, प्लिन, स्ट्रोबो, फाह्यान, ह्वेनसांग, इतसिंग अलबरूनी, मार्कोपोलो, बारबोसा, बर्नियर, पयास, हॉकिंग्स आदि अपनी पुस्तकों में देते हैं।
प्राचीन काल से भारत विश्व के लिये कौतूहल का विषय रहा। ज्ञान – विज्ञान, समाज आदि शिक्षा के क्षेत्र जिसमें भारद्वाजीय विश्वविद्यालय तक्षशिला, नालंदा, विक्रमशिला, बालभी आदि प्रमुख रहे, दक्षिण के मंदिर भी शिक्षा के बड़े केंद्र थे।
व्यापार पर नजर डाले तो भोगवा, खंभात, ताम्रलिप्ति आदि से विश्व व्यापार पर भारत का एकछत्र राज था। विश्व के व्यापर में अकेले 35% हिस्से पर कब्जा रहा। प्लिनी, रोम की स्थिति पर आँसू बहाते हुये लिखता है कि ‘विश्व भर से घूम फिर कर सोना चाँदी अंततः भारत पहुँच जाता है।’ 11वीं सदी की रचना कथासरित्सागर में विश्व व्यापार और बड़े – बड़े जहाजों के निर्माण के विषय में विस्तार पूर्वक बताया गया है। ‘पेरिप्लस ऑफ एरेथ्रियन सी’ से ज्ञात होता है दक्षिण भारत के अरिकामेडु में प्राचीन व्यापारिक रोमन बस्ती बसी थी।
सनातनी परम्परा, शिक्षा व्यवस्था और वर्णव्यवस्था को अंग्रेजी मानसिकता ने केवल नुकसान पहुचाने का कार्य किया, अंग्रेजों ने अपने शोध में पाया कि भारत की आर्थिक तरक्की के पीछे भारत की वर्णव्यवस्था है जो अर्थव्यवस्था को गति देती है। मंदसौर अभिलेख से पता चलता कि भारत में मृत्युदंड उसे दिया जाता था जो शिल्पियों के हाथ को नुकसान पहुँचता था।
राजसूय या बाजपेय यज्ञ को देखें या विवाह से लेकर धार्मिक संस्कार की बात करें तो सभी अनुष्ठानों में ब्राह्मण मंत्र जप करता है लेकिन सभी धार्मिक कृत्य शुद्र ही सम्पन्न करता है। लेकिन जातिप्रथा को अंग्रेजो ने जतिवाद में बदल कर भारत के लोगों को एक दूसरे के विरुद्ध कर दिया। जो संस्कृति सभी जीव का आदर व सम्मान करती है वह किसी मानव के विरुद्ध कैसे हो सकती है? यदि किसी तरह का दुराव रहा होता तो निश्चित ही क्रांतियां भारत को भी झकझोर देती जैसा विश्व के अन्य देशों में हुआ।
अंग्रेजो के इतिहास लेखन में चाच, दाहिर, बप्पा रावल, केशरी और तक्षक आदि जैसे योद्धाओं के वीरता पूर्वक कार्यो को छुपा दिया गया जिसे भारत में एक राजनैतिक एजेंडे की तरह सेक्युलिरिज्म के नाम पर वामपंथियों ने बढ़ाया। भगवान श्रीराम के साक्ष्य रोमिला थापर को अयोध्या में नहीं मिले लेकिन इराक में 6 हजार साल पुराने राम के साक्ष्य मिल गए।
सिंकन्दर अपने आक्रमण के समय जब भारत के पश्चिमी क्षेत्र में आया तो उसका सामना राजा पुरु और उनकी हाथियों की सेना से हुआ। हाथियों के रण कौशल को देख सिकन्दर के सैनिक भयभीत हो गये। भागने के क्रम में उनका सामना सीमा पर रहने वाली मालव जाति से हुआ जहाँ सिकन्दर के सैनिक उनकी औरतों के साथ अभद्रता करने लगे जिसमें युद्ध जैसी स्थिति उत्पन्न हो गई, एक मालव के द्वारा सीने पर कुदाल के प्रहार से सिकन्दर घायल हो गया जो अन्तत: उसी चोट से मर भी गया किन्तु विदेशी से लेकर देशी इतिहासकार सिकंदर के मौत को ही रहस्यमयी बना दिया।
इतिहास लेखन में जिस तरह से कुषाण वंश को तरहीज दी गई वैसे शुंग वंश, सातवाहन वंश को नहीं क्योंकि उन्होंने सनातन व्यवस्था को रोपा था, बौद्ध धर्म को सीमित किया था और वही भारतीय व्यापार का वह स्वर्णिम युग था जब भारत के पोत पूरे हिन्द महासागर को रौंद डालते थे।
शुरूआत में अंग्रेजो ने हिंदुओं को विजित और विदेशों द्वारा शासित घोषित किया लेकिन बाद में जेम्स प्रिंसेस द्वारा अशोक के शिलालेखों को पढ़ने से यह भ्रम दूर हुआ कि भारत में एक मजबूत शासन था जिसकी सीमा पश्चिम में ईरान से लेकर खोतान शिनजियांग, चीन, नेपाल तक फैली थी।
राजपूतों के शासनकाल को सामंतवादी कह कर उनकी उपलब्धियों को गौण बना दिया गया। मध्यकाल को अंधकार युग कहा गया लेकिन गौर करने वाली बात है कि पल्लव या चोल राजवंश का समय विदेश व्यापार के स्वर्णिम युगों में से एक था। हिन्द महासागर को चोल झील भी कहा गया। उनके समय में व्यापारिक दूत चीन, मलय, चंपा, जावा, सुमात्रा आदि तक गये।
मुस्लिम शासन के दौर को देखें तो पता चलता है कि भारत में यद्दपि विदेशियों के शासनकाल में सांस्कृतिक क्षरण हुआ, विद्या का ह्रास हुआ फिर भी व्यापारिक श्रेष्ठता बनी रही। रेड्डी, चेट्टियार, बोहरा आदि ने इसमें अग्रणी भूमिका निभाई। भारत के बड़े – बड़े जहाज यूरोप, अफ्रीका और पूर्वी एशिया तक जाते थे। सूती कपड़े, मलमल, जूट, शोरा, कालीमिर्च, इलाइची आदि मसलों पर भारत का एकछत्र प्रभुत्व था।
अंग्रेजी शासन ने भारत की सर्वथा अवनति की। सामाजिक, धार्मिक, आर्थिक सभी क्षेत्रों में आधुनिकता के नाम भारतीयों को एक दूसरे के विरूद्ध कर दिया। सवाल यह उठता है कि कृष्ण और चाणक्य का देश भारत, विदेशी अधीनता में कैसे चला गया? भारत के वीरों की तलवारें कैसे देश की रक्षा में कमतर हो गई।
कुछ तो खामियां रही होगी जैसे कूटनीतिक स्तर पर और सबसे बढ़कर द्रोहियों और गद्दारों की जमात जो सत्ता के लिए समय – समय पर अपने ही राजा और देश के विरोध में खड़े हो गये। उन्होंने विदेशियों के गुप्तचर बन कर स्थानीय कमियों को उजागर कर विदेशी दासता का शिकंजा कसने में मदद कर रायबहादुर और राजा बहादुर की उपाधि प्राप्त की और धन कमाया।
आस्तीन के सांपो ने भारत के उन्नति की डगर कठिन कर दी और यह फितरत आज भी बनी हुई है। शुरू से ही भारत को खतरा विदेशी आक्रमणकारियों से अधिक अपनों के लालच से रहा है।
आधुनिक शिक्षा, उदारवाद, समाजवाद, साम्यवाद, समानता, पूँजीवाद और अब धर्मनिरपेक्षता के नाम पर मूल भारत को ही कही पीछे छोड़ दिया गया है। आधुनिक शिक्षा के लाभ जरूर रहे हैं किंतु उसने मनुष्य को स्वार्थी, भ्रष्ट्राचारी बना दिया जो एक बार फिर अपने ही देश को लूट कर भारतीयों को ही गरीब बना रहा है।
जिस वर्ग को भारत में पिछड़ा और गरीब माना गया जब उसको अवसर मिला तो गरीबों के पीठ पर चढ़ ऐसी छलांग लगाई की नीचे वाला आज तक गिरा हुआ है।
राम, कृष्ण, ऋषियों मुनियों की भूमि पर आधुनिक शिक्षा ने उस नारी को जिसे मातृशक्ति के रूप में माना जाता था, भोग्य वस्तु बना दिया है। शहर चमकने लगे हैं किंतु बच्चों, गरीब और नारी के शोषण के आवाज को पैरों तले कुचला जा रहा है।
नोट: प्रस्तुत लेख, लेखक के निजी विचार हैं, यह आवश्यक नहीं कि संभाषण टीम इससे सहमत हो।
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