स्त्री – पुरुष भिन्न या अभिन्न : पुत्री – पुत्र समानता

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Dhananjay Gangey
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अक्सर ही मातृ शक्ति द्वारा एक प्रश्न किया जाता है कि क्या व्रत पुत्र संतान के लिए होता है स्त्री संतान के लिये नहीं? उसका मुख्य कारण है पुत्र द्वारा माता – पिता के लिए जो धार्मिक अनुष्ठान होते हैं।

पुन्नाम्नो नरकाद्यस्मातपितरं त्रायते सुत: ।
तस्मात पुत्र इति प्रोक्त: स्वयमेव स्वयम्भुवा ।।

– गरुण पुराण 7/9 (गीता प्रेस)

अर्थात जो पितरो की ‘पुम’ नामक नरक से रक्षा करता है। अतः स्वयं भगवान ब्रह्मा ने ही उसे पुत्र नाम से कहा है। जो धर्म – अर्थ – काम – मोक्ष की प्राप्ति करा दे वह पुत्र है। जो माता – पिता के शुभ के लिये अपने प्राणों की चिंता न करे वह पुत्र है। पुत्र का धार्मिक महत्व है क्योंकि ज्येष्ठ होने का अधिकार सिर्फ सबसे बड़े पुत्र को मिलता है। प्रथमो पुत्र: धर्मतो जाया। प्रथम पुत्र धर्म के लिए जन्म लेता है। बाकी कितनी भी संतान हो सब ‘काम’ से उत्पन्न मानी गयी हैं। पत्नी को पति के धार्मिक कर्म का अधिकार है पुत्री को नहीं।

यदि धर्म की बात की जाय तब पितरों हेतु सीधे तर्पण का विधान पुत्र के माध्यम से है। यह मातृ शक्ति के अपमान की चेष्टा नहीं है बल्कि उसके धार्मिक नियम हैं। नारी स्वयं यज्ञ वेदी है इस लिए उसे यज्ञ आहुति करने से रोका गया है। ब्रह्मसूत्र में “पंचम आहुति” इसे कहा गया है जब संभोग के माध्यम से पुरुष योनि में वीर्य की स्थापना करता है। यद्धपि शास्त्र स्त्री – पुरुष को पूरक कहते हैं जिसमें प्रतिस्पर्धा नहीं है बल्कि समागम, प्रेम और माधुर्य है।

समस्या है आधुनिक घोर समानता की जहाँ नारी पुरुष ही बन जाना चाहती है। मुंशी प्रेमचंद कहते है कि “जब पुरुष में नारी के गुण आ जाएं तो वह देवत्व को प्राप्त कर लेता है लेकिन जिस नारी में पुरुष के गुण आ जाएं वह कुल्टा हो जाती है”। दौड़ पुरुष बनने की नहीं होनी चाहिए बल्कि उसे भान होना चाहिए कि वह पुरुषों की जननी है। आज हर बात में संकरता की बात चल रही है। कुत्ते को बिल्ली, गाय को भैंस, कौवा को तोता बनाने का प्रयास।

सनातन धर्म के शास्त्रों में सब की सीमा निर्धारित गई है यहाँ तक कि यहाँ कौन व्यक्ति क्या खाये। संत, गृहस्थ, विद्यार्थी, ब्रह्मचारी, किसान, मजदूर, मेहनती नारी, गर्भवती और बलिका किन्तु आज सब खा तो खूब रहे हैं भले ही वह पचे या न पचे, भले ही डॉक्टर के पास जाएं। आज तो नारी का ही युग चल रहा है, कोई रोक कही नहीं है, वह सभी जगह प्रतिनिधित्व कर रही है। नारी यदि अपने माता – पिता के प्रेम में पड़ गई तो उसका जो निश्चित गृह है वह खंडित हो जायेगा। नारी के लिए सर्वाधिक महत्व उसके पति का घर है। उसके घर भी भविष्य में बहु आयेगी जो परिवार के जिम्मेवारी को समझेगी और यही नारी भी चाहेगी कि बहु अपने पति के घर को अपना माने। पिता के घर पुत्री का अधिक हस्तक्षेप उसके भाई के परिवार में विच्छेद भी ले आ सकता है।

धर्म में पुत्री को वह अधिकार क्यों नहीं है जो पुत्र को है? नारी जिस बच्चे को नौ महीने गर्भ में रखती है उसी को तीन महीने वीर्य के रूप में रखने के का कारण पिता “जनक” कहा जाता है। माता ‘खिल’ या ‘क्षेत्र’ होने के कारण जननी है। एक नारी दस, बीस, तीस बच्चें पैदा कर सकती है जबकि पुरुष का सामर्थ्य हजार बच्चों का है। नारी सृष्टि का आधार है संस्कार और परिवार का मूल है। महाभारत में कहा गया है:  “गरुणाम चैव सर्वेषाम माता परमको गुरु:” अर्थात गुरुओं में माता परम गुरु है। एक बात जरुर ध्यान दें कि कर्म करने पर तो नारी को रोक हो सकती है लेकिन फल प्राप्ति पर नहीं।

एक और बात विचार करने की है कि नारी को पित्र कर्म करने से क्यों रोका गया? यहाँ एक कारण नारी का मासिक धर्म भी है, उसे शारीरिक कष्ट हो तो क्रिया कैसे सम्पन्न होगी? जैसा कि ऊपर ध्यान दिलाया था कि मर्यादाओं का निर्माण प्राकृतिक सीमा तक है। होड़ और जोड़ में मैं भी पुरुष बनूंगी और ये बेजा की दौड़ पश्चिमी सभ्यता द्वारा उत्पन्न मानसिक विकृति की देन है। धर्म की उचित और निर्दिष्ट विधियां ही धर्म की प्राप्ति कराती हैं।


नोट: प्रस्तुत लेख, लेखक के निजी विचार हैं, यह आवश्यक नहीं कि संभाषण टीम इससे सहमत हो।

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