कांग्रेस प्रॉक्सी हिंदूवादी है जिसने समय – समय पर अपने को सेक्युलर सिद्ध किया है। किंतु कुछ ब्राह्मण और हिन्दू जो कांग्रेस की मानसिक स्खलन की पैदाइश हैं, वह अपने को सही वाला सनातनी हिन्दू सिद्ध करने में लगे हैं। राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की व्यवस्था को अपराधी बना कर स्वमेव कांग्रेस की सिद्धि करना है।
हिन्दू धर्म के प्रति कांग्रेस की दुविधा सदा से रही है, वहीं कांग्रेसी वर्णसंकरता को स्वीकार कर टट्टू को घोड़े की जाति का सिद्ध कर रहे हैं। वह भूल रहे हैं कि भारत में स्वजातीय स्वीकार्यता व्यवहार में अधिक है, वह वर्णसंकर को नेता के रूप में स्वीकार न करेगा। ‘स्व’ की पहचान और विश्वास उसे है।
कांग्रेस की मंशा सदा से सनातन धर्म से दुराग्रह की रही है। नेहरू, इंदिरा यहाँ तक की राजीव को ‘सहानुभूति’ में स्वीकार कर लिया गया। इसी ‘सहानभूति’ का लाभ सोनिया को मिला है किंतु राहुल और प्रियंका को कैसे स्वीकार करें? न शहादत है न सहानभूति, ऊपर से कांग्रेस पर उसके कारनामों से जिसमें राम कल्पनिक हैं, मन्दिर का विरोध और मस्जिद के साथ, 370 से लेकर, CAA का विरोध जो स्वयं कहता है कि वह वोट बैंक के लिए हिन्दुओं के साथ नहीं है।
कांग्रेसी कभी अंग्रेजी शिक्षा व्यवस्था के विरोध में नहीं रहा है, वे 26/11 के मुंबई हमले और हिन्दू आतंकवाद के षड्यंत्र की आलोचना भी नहीं करते हैं। कश्मीरी पंडित और वहां के हिन्दू वाल्मीकि की पीड़ा कभी महसूस नहीं कर सकें हैं।
सेक्युलर का खेल इस लिए भी है क्योंकि स्वयं से लेकर उनकी रिश्तेदारी गैर हिंदुओं में है, ऐसे में उनके नेता बनने पर संकट खड़ा हो जायेगा। साथ ही 74 साल की सत्ता में कितनी बार अल्पसंख्यकों के कारण कुर्सी मिली है। ऊपर से पोप पर आस्था के कारण वे वेटिकन से क्या कहेंगें?
यदि हम गांधी और टैगोर पर चर्चा करें तो गांधी की स्वीकार्यता अधिक थी, वहीं टैगोर तभी अप्रासंगिक हो चुके थे, जिसका कारण टैगोर का विश्व मानव होना था। वहीं गांधी अपने को वैष्णव हिन्दू कहते थे, बात-बात में रामायण की चौपाई और गीता का उद्धरण देते। उनके संस्कार हिंदुओं के थे, वह मुस्लिम का समर्थन तब कर रहे थे जब देश धर्म के नाम पर विभाजित नहीं हुआ था।
उनका मानना था वह अपने प्रयासों से पुनः अविभाजित भारत बनायेगे, लेकिन वह भी अन्तत: गलत साबित हुये।
नेहरू गांधी के प्रभाव में आधुनिकता और विकास कार्यों और सबसे बढ़ कर था 800 साल बाद दासता से मुक्त भारत का नेतृत्व भारतीय वह भी ब्राह्मण के हाथ में। कुछ हिन्दुज्म के तत्व अभी शेष थे। इंदिरा की राजनीति नेहरू प्रभाव में विकसित हुई, उस पर चार चांद पाकिस्तान के बंटवारे ने लगा दिया।
इमरजेंसी ने इंदिरा की लोकप्रियता को दोयम दर्जे पर लाई। वो सत्ता से बाहर हो गईं। संजय की मौत और राजीव का ईसाई से विवाह करना। इधर इंदिरा की खुद की शादी भी पारसी पिता और मुस्लिम माता से जन्में फिरोज जहाँगीर गैंडी से हुई थी। तब अल्पसंख्यक वोट को सुरक्षित करने के लिए मुस्लिम तुष्टीकरण और ईसाई संरक्षण शुरू किया गया।
अल्पसंख्यक आयोग, संविधान में “धर्मनिरपेक्षता” आदि को जोड़ा गया, सत्ता के लिए शिक्षा को कम्युनिस्टों के हवाले कर दिया गया जिन्होंने भारत के इतिहास को तोड़ – मरोड़ कर पेश किया। वहीं माओवादी संगठन भारत की आंतरिक सुरक्षा के लिए चुनौती बन गये।
आज भी JNU की शिक्षा से किसी को दिक्कत नहीं है, दिक्कत उसके हिन्दू विरोधी, राष्ट्र विरोधी संस्कारों से है। पक्षपात पूर्वक इतिहास और समाज निर्माण को बढ़ावा दिया जा रहा है। इस काम को अंजाम लुटियंस गैंग ने दिया जिन्हें शशि थरूर टाइप बौद्धिक माना जाता रहा है।
इस गिरोह का सबसे बड़ा कारनामा रहा है लॉबिंग और स्वयं के लिए लाभ। अपने बच्चों का उच्चशिक्षण संस्थान में दाखिला हो, आईएएस का एग्जाम पास करना हो या स्वयं के NGO की फंडिंग रही हो, सब बेधड़क चलता रहा है। इसीलिए पीर दूर तलक जा रही है।
राजीव को इंदिरा की शहादत की सहानभूति मिली किन्तु धार्मिक नसमझी, स्वयं की पत्नी और काँग्रेसियों की महत्वाकांक्षा ने उन्हें असमय ही लील लिया। इस राजनीति का फायदा दो लोगों को हुआ, सहानभूति ने मैडम सोनिया गांधी को बनाया और गलतियों ने BJP को।
अब राहुल – प्रियंका के लिए क्या बचा, कांग्रेस पार्टी जो दिशाहीन और विचारों में भ्रमित है, जिसके पास अब सहानभूति भी नहीं है, जिससे ये नेता बन सकें। ऐसे में पार्टी में टूट के साथ सत्ता में बेदखली संभव है।
राहुल – प्रिंयका से ज्यादा निराश वह ब्राह्मण कांग्रेसी हैं जिन्होंने अपने राजनीतिक विचारों और फायदों के लिए वर्णसंकर और हिन्दू विरोध को भी स्वीकार कर लिया था।
नोट: प्रस्तुत लेख, लेखक के निजी विचार हैं, यह आवश्यक नहीं कि संभाषण टीम इससे सहमत हो।
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