सिंडीकेट राजनीति और कम्युनिस्ट

spot_img

About Author

Dhananjay Gangey
Dhananjay gangey
Journalist, Thinker, Motivational speaker, Writer, Astrologer🚩🚩
JNU violence

आज भारत में बामपंथ का दीया बुझता जा रहा है। एक समय था जब भारत में बामपंथी और बुद्धिजीवी को एक दूसरे का पर्याय माना जाता था। स्वतंत्रता के बाद नास्तिक विचार सत्ता की सीढ़ी चढ़ा, यह सेकुलरिज्म के सबसे निकट बैठता है। पूंजीवादी व्यवस्था ने एक हाथ से नास्तिकता को बढ़ाया तो दूसरी तरफ वामपंथी सत्ता का भरसक खात्मा किया।

भारत में यह प्रयोग फ़िल्म, पत्रिका और इतिहास लेखन में किया गया। भारत में देसी की जगह इम्पोर्टेड का फैशन बनाया गया। रोमिला थापर, विपिन चंद, विमलराय, सत्यजीत रे, अडूर गोपालकृष्णन, कमलेश्वर, नेहरू आदि ने अपने – अपने माध्यम से कम्युनिज्म को आकार दिया जिसमें सत्ता को संतुष्ट करने की सोच निहित थी। सभी ने मिलकर सिंडिकेट के रूप में काम किया और बड़े संस्थानों में इनकी नियुक्ति की गई। हर्ष की तरह ह्वेनसांग के खिलाफ बोलने पर जीभ काट लेने का अघोषित ऐलान भी किया गया।

नेता, फिल्मकार, कथाकार, इतिहासकार और पत्रकार सब ने मिल कर अंग्रेजी विचार को बढाया जिसके अनुसार तुम सभी भारतीय निर्धन ब्राह्मण,  नट और सपेरे हो, तुम्हें आधुनिक बनाया जा रहा है इसलिए मौन रहो। यही वह दौर था जब कलकत्ता और कानपुर जैसे औद्योगिक शहरों का कम्युनिस्टो ने नाश कर दिया जिससे भारतीय अंजान ही रहे।

1990 का दशक इमरजेंसी के थपेड़े को देख चुका था, अकाल तख्त पर हमला, बब्बर खालसा के भिंडरावाला की मौत, इंदिरा गांधी की हत्या, मीनाक्षीपुरम में हिंदुओं का धर्मांतरण, शाहबानों प्रकरण, टेरेसा को भारत रत्न, श्रीलंका की समस्या साथ रामानंद सागर के रामायण सीरियल ने भारत की बहुसंख्यक आबादी को आध्यात्मिक राजनीति का विकल्प दिया। बाबरी विध्वंस से पहले शारीरिक फिर स्वतंत्रता के बाद मानसिक गुलाम हिन्दुओं ने मार्क्सवाद की कुलहि निकाल फेंका।

विश्व में मार्क्सवाद लगभग मर चुका था किन्तु चंद देशों ने चीन और रूस की तरह स्वरूप बदल के मार्क्सवाद का चोगा ओढ़ धुर पूँजीवाद में बांह पसार दी।

कम्युनिस्ट भारत में स्वर्णिम अतीत को लौटने की फिराक में है किंतु 1990 के बाद के दशक में ग्लोबलाइजेशन और संचार क्रांति ने कम्युनिस्ट के विचार को फिर से कम्युनिस्ट मिनिफिस्टो में वापस भेज दिया।

भारत की राजनीति का केंद्र दिल्ली होने साथ – साथ मीडिया का केंद्र भी है और यहीं के JNU में कम्युनिस्ट की नर्सरी लगी थी जिसकी अब प्रासंगिकता खत्म हो चुकी है किंतु उसके जो लम्बरदार या यूँ कहें कि राजनीति की यह अनुषंगी शाखा थी उसे बहुत तिलमिलाहट है क्योंकि इतने दिन मिलावटी दूध का पानी यही था। आज कई मीडिया हाउस पूर्व के नेताओं के ही हैं इस लिए उनकी सोच है कि इसी से JNU वाला मिश्रण बचा लेंगे।

लेकिन एक बात सदा स्पष्ट रहे कि जिस विचार का अंत समय आ गया है उसे शोर – शराबा करके रोका नहीं जा सकता। आदत बदलनी पड़ेगी, विचार तक ठीक था किन्तु बच्चों को ही राजनीति की प्रयोगशाला न बनाइये, विश्वविद्यालय पढ़ने के लिए है उसे छोड़ दीजिए।

छद्म राजनीति छोड़ कर तृणमूल स्तर पर आइये। JNU की दशा यह हो गयी है कि दल विशेष की सांत्वना जरूर है किंतु सामान्य जनता की सांत्वना वह खो चुका है जिसके पीछे देश के टुकड़े – टुकड़े, आजादी, कश्मीर, नक्सलवाद, हिन्दु धर्म का गलत तरीके से चित्रण है। अब यदि विद्यार्थी हैं तो नेतागिरी क्यों?

साम्यवाद इतना साम्य करता है कि लेनिनवाद, माओवाद, चे ग्वेरा का समाजवाद, नोम चाम्स की का नव साम्यवाद, नेहरू के पास यही जा जाकर मानववाद, मानवेन्द्र राय का मानवतावाद बन गया। वाद के विवाद में मूल से भटक गया।

जिन्हें सत्ता मिली वह दूसरे को बर्दाश्त नहीं करना चाहते स्वयं की पूजा को आतुर दिखे ऊपर से मुफ्त का प्रचलन। मनुष्य होने की मर्यादा मनुष्यता ही है और उसे ही केंद्र में रहना चाहिये। मानव केंद्रित विचार अहमकेन्द्रिता को ही स्थापित कर देता है। राजा को सीमित किया जा सकता किन्तु नेता को कैसे सीमित करें?

गौरतलब है कि एक बना बनाया सिंडिकेट जिसने छ: दशकों तक राज किया उसने अपने सभी हथकंडे खोल दिए, राजनीति के सारे दाव, पैंतरे जिन्हें पूर्व में लाभ दिया गया उनसे भी अपनी तरह का विरोध करते रहने को कहा गया। यह समाजवाद पूर्व में सबसे पुरानी पार्टी की अनुषंगी शाखा रही है जिसका मिश्रण बाद में दिखाई पड़ता है।

विचार और वाद की भेंट छात्रों को चढ़ाया जा रहा है। विश्वविद्यालय विद्या के लिए होते हैं, नित्य विरोध के लिए नहीं।

विवाद ने वहीं जन्म ले लिया जब हम सेकुलरिज्म के नाम सिर्फ हिन्दु धर्म को टारगेट करते हैं और अन्य धर्म की कुरीतियां जब कुरीति न रह कर तुष्टीकरण का साधन बन जाती हैं। भारत की जांची परखी राजनीति जानती है कि मुस्लिम के धर्म की आलोचना न करके उसका राजनीतिक दोहन बराबर किया जा सकता है। फिलहाल जो स्वयं गंदगी से नहीं निकलना चाहता, तुम्हारे जोर का कोई अभिप्राय नहीं है।

संविधान का बलात्कार करने वाले आज संविधान बचाओं का नारा दे रहे हैं, आलोचना, विरोध, वैमनस्य अब बदले में बदल चुका है। कल तक जो संविधान को अपने धर्म का उल्लंघन न करने देने की कसीदे पढ़ रहे थे, जिन्हें राष्ट्रगान गाने से भी गुरेज था, आज वह तिरंगा यात्रा निकाल रहे हैं। इस  परिवर्तन से अभिव्यक्ति की आजादी स्वच्छंद होगी या स्वतंत्र?

शांतिप्रिय कौम मध्यकाल से नहीं निकलना चाहती है। भारत का पुराना राजनीतिक दल पूर्व सदी की राजनीति बनाएं रखना चाहता है। सत्ता की प्रियता में जब देश दांव पर लगा दिया तो यह छात्र बलि चढ़ते हैं तो चढ़ जाएँ।


नोट: प्रस्तुत लेख, लेखक के निजी विचार हैं, यह आवश्यक नहीं कि संभाषण टीम इससे सहमत हो।

***

अस्वीकरण: प्रस्तुत लेख, लेखक/लेखिका के निजी विचार हैं, यह आवश्यक नहीं कि संभाषण टीम इससे सहमत हो। उपयोग की गई चित्र/चित्रों की जिम्मेदारी भी लेखक/लेखिका स्वयं वहन करते/करती हैं।
Disclaimer: The opinions expressed in this article are the author’s own and do not reflect the views of the संभाषण Team. The author also bears the responsibility for the image/images used.

About Author

Dhananjay Gangey
Dhananjay gangey
Journalist, Thinker, Motivational speaker, Writer, Astrologer🚩🚩
Subscribe
Notify of
guest
0 Comments
Inline Feedbacks
View all comments

About Author

Dhananjay Gangey
Dhananjay gangey
Journalist, Thinker, Motivational speaker, Writer, Astrologer🚩🚩

कुछ लोकप्रिय लेख

कुछ रोचक लेख