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गांव चला शहर बनने

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Dhananjay Gangey
Dhananjay gangey
Journalist, Thinker, Motivational speaker, Writer, Astrologer🚩🚩

एक समय था जब किसी के घर पर बच्चा पैदा होने वाला होता था तो आस – पड़ोस से महिलाएं आ जाती थीं और बच्चा पैदा होने के बाद पूरा गांव बधाई देने आता था। मां के दूध नहीं होने पर कोई पड़ोसी बोलती हमारी गाय दूध दे रही है लल्ला को पिलाने के लिए लेने आना। गांव में काकी बच्चे और मां की मालिश कर जाती थी। बच्चे को पूरा गांव खिलाने घर आ जाता था।


बच्ची पड़ोस के बच्चों संग स्कूल जाने लगी। अब वह बड़ी होने लगी। घर के कामों में हाथ भी बटाने लगी, अब उमर हुई शादी की और शादी तय हो गयी। पिता के पास पैसे कितने थे ज्यादा महत्वपूर्ण न था। गांव में सहयोग की भावना प्रबल रहती थी। सब मिलजुल कर विवाह का कार्यक्रम पूरा कर लेते थे। आलू, दूध, दही, कद्दू, कटहल, बर्तन, खटिया, बिस्तर सब गांव के लोगों के यहाँ से आ जाते थे। शादी का खाना और व्यवस्था वही गांव के लोग कर देते थे। टेंट और कैटरिंग की जरूरत ही न थी।

ऐसे में लड़की पिता का बोझ नहीं बनती थी। लोग कम पढ़े – लिखे थे लेकिन सुलझे ज्यादा थे, अन्तर्सम्बन्धों को जानते थे, समाजिक सहयोग के महत्व को समझते थे।

असहाय की मदद गांव वाले कर देते थे, खेती आदि के कार्यों में सहयोग देते थे। गांव में किसी के यहां कोई उपकरण आदि रहता तो उसका प्रयोग सभी बारी – बारी से कर लेते थे।

लेकिन समय के साथ खोते गांव बसते शहर, टूटते रिश्ते, बढ़ता अहंकार, गायब होती मनुष्यता, उपकरणों का गुलाम होता मानव धीरे – धीरे मशीन बनने की ओर कदम बढ़ा दिया है।

स्वाभाविक हंसी – टिठोली अब वर्चुअल होती जा रही है। गांव का प्राकृतिक प्रेम बनावटी रंग में रंगता जा रहा है। बड़े – बुजुर्ग का बहुत महत्व था, बच्चे बिना उनसे पूछे कोई कार्य नहीं करते थे यहां तक कि भोजन क्या बनना है इसमें भी उनकी इच्छा सर्वोपरि थी। माताओं द्वारा मसालों (पूर्व नाम औषधि) का संतुलित उपयोग, ऊपर से सिलबट्टे का प्रयोग कितनी ही बीमारिओं को वैसे ही दूर कर देता था।

भोजन के बहुत प्रकार थे जो मौसमानुसार प्रयोग में लाये जाते थे। बाजरा, जोधरी, बर्रे, कोदो, मक्का, जौ, चना, मटर, उड़द, मूंग, महुआ, दालभरी पूरी, पनगुझवा, लाटा (महुआ में तिल डाल कर बनाया जाता था) दाल का दूल्हा (गुजरात में दाल ढोकली), रिकोच, महुआ के रस और आटे का हलुआ आदि सामान्यतः बनाये जाते थे। लेकिन आज हम सिमट कर दाल, चावल, सब्जी और रोटी पर रह गये। जंक फूड का अलबत्ता प्रयोग कर रहे हैं। मैगी, पास्ता, मैक्रोनी, चाउमीन, समोसे जैसे जहर माताएं बच्चों को बड़े स्वाभिमान से खिला रही हैं।

गांव की कन्या की शादी जिस गांव में हो गयी उस गांव का सम्बंधित परिवार को छोड़िये पूरे गांव के लोग पानी तक नहीं पीते थे, न ही अपने पुत्र का विवाह करते थे। यह सामाजिक मर्यादा थी। पुत्री को अत्यधिक सम्मान दिया जाता था, उनके साथ उनके परिवार को पूज्यनीय माना जाता रहा है।

फिर आई अंग्रेजी शिक्षा व्यवस्था जो सब कुछ चौपट कर गई। ज्यादा पढ़ा व्यक्ति दहेज लोभी हो गया। लोगों के बीच परस्पर प्रेम ईर्ष्या में बदलने गये। लोग एक दूसरे को पहचानने तक को तैयार नहीं।

रिश्ते सिमट कर चहारदीवारी तक आ गये। कर्तव्य से किसी को मतलब नहीं रहा। हां, अधिकार अधिक से अधिक चाहता है। वह दूसरे को बर्दाश्त तक नहीं करना चाहता है।

आधुनिकता कुछ ऐसे पैर पसारी की मानव भौतिक इकाई बन गया। सब मूल्य धन बन गया है।

बिना अर्थ सब व्यर्थ।
पैसा खुदा नहीं, खुदा की कसम खुदा से कम भी नहीं है।

गांव में शहर जिस तेजी से बढ़ रहा है, युवा पीढ़ी शहर की नकल करने में अपना मूल भूलते चले जा रहे हैं। चीन, अमेरिका, यूरोप आदि देश जहां अपने गांवों को बचाने के लिये संरक्षण का कार्यक्रम चलाये हैं वहीं भारत अपने गांवों को स्वयं ही खत्म करता जा रहा है।

खेती को सरकारी अनदेखी ने घाटे का सौदा बना दिया है। किसान भगवान भरोसे है। कम से कम कृषि व्यवस्था में सरकार की कोई भूमिका कही नहीं दिखती है। उद्योग और शहरों में ही सरकार का ध्यान केंद्रित है। आज किसान मजदूर बनने पर विवश है। असमय मौसम की मार तैयार खेती को तबाह कर देती है। अभी हाल के “ताउते” तूफान के मामले में यही देखने को मिला है। किसान को अपनी उपज का जितना मूल्य मिलना चाहिए उससे बहुत कम मिलता है, सब बिचौलिए ले जाते हैं, ऐसे में खेती कौन करे?

गांव में कृषक आधारित व्यवस्था होने से रोजगार में दिक्कत आ रही है। कितने लोग खेत बेच कर शहरों में बस जा रहे हैं, उनका कहना है खेत से ज्यादा आमदनी बैंक में पैसा रख देने से हो रही है।

गांव से पलायन के कारण शहरों पर भी अतिरिक्त बोझ बढ़ रहा है, शहरों का पारिस्थितिकी तंत्र गड़बड़ा जा रहा है। दिल्ली जैसे शहरों में शुद्ध ऑक्सीजन की कमी देखने को मिली। कोरोना के मरीजों में ऑक्सीजन की कमी से लाखों जान कोरोना की दूसरी लहर में गयी है।

गांव के लोग वृक्ष और पोखर में देवत्व मानते थे उनकी पूजा करते थे, तरह – तरह के वृक्ष आम, महुआ, पीपल, पाकड़, जामुन, आंवला आदि के लगाते थे, आम के पेड़ को दस पुत्र के बराबर माना जाता था। अब जैसे ही गांव शहर पहुंचा, पुरानी पीढ़ी नहीं रह गयी। नई पीढ़ी द्वारा बाग और पोखर हटा कर खेत बनाया जा रहा है। मानव ने जंगल से लेकर तालाब, नदी तथा समुद्र में अतिक्रमण किया, जिसके परिणाम स्वरुप प्राकृतिक आपदा की दर में बढोत्तरी हुई।

पूर्व की ग्रामीण व्यवस्था पर्यावरण के अनुकूल थी जो आज शहरों की तरह ही प्रतिकूल हो गयी है। भौतिक संसाधनों की होड़ सब उजाड़ करने को ठानी है। अब हमारे सन्मुख चुनौती है कि किस प्रकार से हम व्यवस्था को पर्यावरण के अनुकूल रखते हुए विकास करें।


नोट: प्रस्तुत लेख, लेखक के निजी विचार हैं, यह आवश्यक नहीं कि संभाषण टीम इससे सहमत हो।

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अस्वीकरण: प्रस्तुत लेख, लेखक/लेखिका के निजी विचार हैं, यह आवश्यक नहीं कि संभाषण टीम इससे सहमत हो। उपयोग की गई चित्र/चित्रों की जिम्मेदारी भी लेखक/लेखिका स्वयं वहन करते/करती हैं।
Disclaimer: The opinions expressed in this article are the author’s own and do not reflect the views of the संभाषण Team. The author also bears the responsibility for the image/images used.

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