भारत की संस्कृति क्या है?

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Dhananjay Gangey
Dhananjay gangey
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भारतीय संस्कृति क्या है, यह आज भी एक बहुत ही ज्वलंत विषय बना हुआ है। भारत में सदा से आस्तिक और नास्तिक रहे हैं और इसके साथ ही वाममार्गी भी अपने विचार को समाज में रोपित करने का प्रयास करते रहे हैं। सनातन मान्यता की जड़ें बहुत मजबूत रही हैं जिसका आधार रहा है – ‘धर्म’। धर्म से अभिप्राय सक्रियता, वास्तविकता और स्वयं को जानने का सिद्धांत रहा है। सनातन धर्म भौतिकता पर न रुक कर आध्यात्मिकता पर जोर देता है। आध्यात्मिकता का तात्पर्य सम्पूर्णता से है।


मनुष्य होने के नाते एक चीज पर विचार बनता है कि हम पृथ्वी पर क्यों आते है अर्थात जन्म क्यों लेते हैं? यदि हम अपने शास्त्रों का रुख करते हैं तो शास्त्र समूल चिंतन के साथ आगे बढ़ता है। वह मनुष्य के विभिन्न पहलुओं अर्थात चार पुरुषार्थ धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष के साथ चार आश्रम ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और सन्यास का वृहद फलक देता है। स्त्री – पुरुष के सम्बन्ध यहां अभिन्न हैं किंतु अब नये विकसित तथाकथित धर्म पनप गये हैं जिनमें सामाजिक और धार्मिक दृष्टि से नारी को “देह” और “भोग्या” रूप में ही लिया गया है।

विश्व की किसी भी संस्कृति पर दृष्टि डालें चाहे वो यूनानी हो, मिश्र की हो, सुमेर की हो या बेबीलोन की हो; सभी में नारी के दैहिक भोग के साथ लौंडेबाजी भी एक बड़ा स्टेटस सिंबल था। जब विश्व में यहूदी, इसाई और इस्लाम (यहूदी से ही यह दोनों निकले हैं) में यह बुराई आम थी। इनके प्रसार के साथ – साथ नारी के अधिकारों में कटौती होती गयी। वहां नारी, पुरुष की यौन कुंठा का समाधान और बच्चा पैदा करने का उपकरण भर बन कर रह गयी। उसी समय सनातन धर्म में नारी को माता और अनन्य सम्मानित अधिकार प्राप्त थे।

सबसे बड़ा परिवर्तन देखने को तब मिला जब विश्व युद्ध के दौरान सभी पुरुष युद्ध के मोर्चे पर चले गये, ऐसे में समाज को संचालित करने के लिए नारी की जरूरत पड़ी और उन्हें अधिकार दिये गये। यूरोप में इसी समय तेजी से कम्युनिस्ट विचार फैल रहा था जिसका जन्म समाजवाद से हुआ था। कम्युनिस्टों ने नारी की भावनाओं को बढ़ा कर उनका मटेरियल की तरह बिस्तर में मौज के लिए प्रयोग किया और इसे नया नाम दिया ‘नारी स्वतंत्रता’ का। नारी को कुछ भी करने की आजादी और अपनी इच्छा से किसी से सम्बन्ध बनाने की स्वतंत्रता।

भारत के सनातनी व्यवस्था पर चिंतन करते हैं – सबसे पहले वर्णव्यवस्था के माध्यम से लोगों के रोजगार का प्रबंध जन्मजात कर समाज की ऊर्जा को नष्ट होने से बचाकर हमने अपनी अर्थव्यवस्था को विश्व में सर्वांगीण बनाया। यह विश्व की जीडीपी की 35% तक जा पहुंची थी। बेरोजगारी जैसा कोई विचार ही नहीं था।

बेरोजगारी पहली बार फिरोज शाह तुगलक के समय 14वीं में सदी में देखने को मिली जब प्रचलित हुआ – ‘पढ़े फ़ारसी बेचे तेल’। मुस्लिम शासन के दौरान धार्मिक शोषण जोर – शोर पर रहा है लेकिन प्रचलित अर्थव्यवस्था से छेड़छाड़ करने व जनमानस का विधिवत शोषण करने से भारत में बेरोजगारी बेतहाशा बढ़ी, यह बेरोजगारी अंग्रेजों की देन थी। इस विषय पर दादाभाई नौरोजी और रजनी पाम दत्त ने अपनी पुस्तक में काफी वर्णन किया है।

काम का विचार किसी भी समाज को बहुत जल्दी प्रभावित कर लेता है। भारत में इसे लेकर वृहद फलक पर चिंतन वात्सायन के कामसूत्र, कोकशास्त्र आदि अनेक धर्म ग्रंथों है। भारत एक गर्म जलवायु वाला देश है जहां सेक्स सामान्य वाला ही मान्य और सफल है। यदि 1990 के पूर्व का भारत देखें तो एक चीज कॉमन मिलेगी, पति – पत्नी मर्यादा की वजह से स्वयं के लिए एकांतिक समय बहुत कम दे पाते थे फिर भी पति – पत्नी को अपने सेक्स सम्बन्ध को लेकर कभी शिकायत नहीं रही।

1990 के बाद आये उदारवाद, मीडिया और सूचना क्रांति ने इंटरनेट को हाथ – हाथ में पहुंचा दिया। जिससें पॉर्न सहज उपलब्ध हो गया। लोगों के मन पर वर्चुअली कब्जा हो गया। सनातन हिन्दू धर्म किसी चीज की व्याख्या उसके पूर्णता में करता है। शरीर का भी विवेचन स्थूल, सूक्ष्म या प्राण शरीर में करता है। २५ तत्वों से मिलकर मनुष्य का निर्माण होना, अन्न और प्राण की व्याख्या, धार्मिक चिंतन से लेकर सामाजिक चिंतन, मनुष्य जीवन का उद्देश्य क्या है आदि उसके चिंतन का स्वाभाविक हिस्सा है।

मनुष्य धरती पर सिर्फ खाने और मरने ही आता है, यह सनातन परम्परा के चिन्तन में है ही नहीं। वर्ण व्यवस्था के माध्यम से व्यक्ति के जन्म के साथ ही उसके जीवन निर्वाह के लिए रोजगार का सृजन हुआ जिससे जन्म लेने वाले को ४० साल तक रोजगार की खोज में अपनी ऊर्जा न गवानी पड़े, कितनी अद्भुत व्यवस्था थी। वर्णव्यवस्था के बिना हिन्दू धर्म की कल्पना नहीं जा सकती है। समस्या यह है कि वर्ण को जन्म आधारित माना जाय या कर्म आधारित? वैदिक काल के शुरुआत में यह देखा गया कि वर्ण कर्म आधारित था। उस समय जनसंख्या कम थी, आज जनसंख्या एक बहुत बड़ी चुनौती है यदि कर्म आधारित वर्ण मानेगे तो आज कर्म दिनभर बदलते हैं।

लोग जीवन में कई व्यवसाय बदलते हैं। इन परिस्थितियों में वर्ण की स्थापना कैसे होगी? ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र सभी की व्यवस्था के सुचारु निर्वहन की आवश्यकता है। व्यापार प्रधान युग में सभी वैश्य बनना चाहते हैं, सम्मान के लिए ब्राह्मण भी बनना चाहते हैं। पेशे से आईएएस, डॉक्टर, इंजीनियर आदि शूद्र वर्ग में आते हैं। इनमें से कितने हैं जो अध्यापक बनना पसन्द करेंगे? यह आप उनसे पूछ के देख सकते हैं।

सामाजिक व्यवस्था में देखें तो लड़की के रजस्वला होने पर विवाह का विधान है। १८ वर्ष तक वह पति के घर जाती थी। लड़के को २५ वर्ष बाद गृहस्थ जीवन में प्रवेश करना होता था। इस उम्र का लाभ था व्याभिचार पर नियंत्रण और स्त्री – पुरुष अपनी अतिरिक्त ऊर्जा का क्षय किसी अन्य के विचार में न करें। अंग्रेजी शिक्षा व्यवस्था ने जो रोजगार का वादा किया, कर्मसंकरता को फैलाया, क्या वह आज रोजगार देने में सफल है? उत्तर है – ‘नहीं’।

अंग्रेजों ने भारतीय व्यवस्था पर चोट करने के लिए एक चाटुकार व आश्रित वर्ग तैयार किया। राजा राममोहन राय, ज्योतिबा फुले, पेरियार और भीमराव सकपाल आदि उनके एजेंट बने। इन्होंने सती प्रथा, आधुनिक शिक्षा, शूद्र का शोषण आदि मुद्दों के लिए एक विधिवत आवाज बना कर सनातन हिन्दू व्यवस्था को दोषी बना दिया। जबकि मुस्लिम और अंग्रेजों ने अपनी सामाजिक व्यवस्था परिवर्तन की ओर ध्यान नहीं दिया कि वहां किस तरह औरतों व गुलामों की बिक्री के लिए बाजार लगाए जाते थे। धर्म के नाम पर कत्ल-ए-आम किये गये जो आज भी बदस्तूर जारी है। रिलीजन, मजहब यह धर्म नहीं है। यह विशुद्ध राजनीतिक विचार है जिसमें लोगों की संख्या बढ़ाना और सत्ता की प्राप्ति उद्देश्य है। इसके लिए लोग मरते हैं तो मर जायें।

आज हिन्दू धर्म में नाना पंथ बन गये हैं और सभी अपने को ईश्वर मानने का दावा कर रहे हैं। इनका मानना है वही पूरी तरह से सही और विद्वान हैं, बाकी सब मूर्ख। शब्दों में हिंसा आ गयी है, उनके विचार को नहीं मानने पर वह कत्ल करने को भी तैयार हैं। सत्य की राह सहजता खो चुकी है। हिन्दू धर्म में गणित, विज्ञान, ज्योतिष, खगोलिकी, कला और काम की शिक्षा एक साथ दी जाती थी।

एलोरा से लेकर खजुराहों, कोणार्क, मोढ़ेरा आदि मंदिरों तक वासना (काम कला) का चित्रांकन किया गया। यह सहज स्फूर्ति थी कि जिन लोगों की वासना शांत नहीं हुई वह उसे समझें और सहज बनें। उसके लिए आडम्बर की जरूरत नहीं है। मनुष्य अपने जीवन के उद्देश्य को समझे। जिस दिन हिन्दू १० प्रतिशत धार्मिक हो गया उसकी समस्या का समाधान हो जायेगा।

विश्व में फैली हिंसा पर रोक सिर्फ सनातन हिन्दू व्यवस्था से ही हो सकता है। लोगों का शोषण हो रहा है। मजहब के नाम पर लाखों मारे जा रहे हैं। आधुनिकता के नाम पर नारियों को मसला जा रहा है। स्वाद के नाम पर सभी तरह के जीवों को भोजन की थाली में परोसा जा रहा है। इन सबके लिए अपने कुतर्क गढ़ लिए गये हैं।

व्यक्ति की पहचान कागज का टुकड़ा भर रह गया है। विश्व के लम्बरदारों को इन हितों की पूर्ति करने पर पुरस्कारों से नवाजा जाता है। आप के मामले में उनका दृष्टिकोण अपने हितों की पूर्ति है। यह प्रकृति आज की व्यवस्था से रुष्ट हो चुकी है सर्वत्र शोषण और झूठ का व्यापार जमा लिया गया है। प्रकृति मनुष्य की सीमा को बारम्बार बता रही है किंतु मनुष्य सब रौंद कर लाभ चाहता है। लोभ और दुष्प्रचार आधारित व्यवस्था को समाज में कितने दिन रोपित करेंगे? जिसको देखो, वही अपनी ढ़ोल पीट रहा है। कौन मर रहा है, कौन जी रहा है, ये मायने नहीं रखता है; मायने है कि किसका व्यापार चल रहा है।

हिन्दू व्यवस्था को हिन्दू भूल चुका है, एक समय धरती पर एक हिन्दू धर्म ही था, सबका एक ही धर्म होता है। तब हमें समानता, स्वतंत्रता, न्याय और लोकतंत्र की बैसाखी की जरूरत नहीं थी। एक – एक व्यक्ति महत्वपूर्ण था। आज की तरह भ्रामक विचार फैला कर लोगों का दोहन नहीं किया जाता था।

हिंदुओं को जगना होगा। बहुत देर हो चुकी है। प्रकृति और लोग कराह रहे हैं। लोगों को जाहिलियत और हैवानियत से बाहर लाकर मनुष्य बनाना होगा। ये यहूदी, ईसाई, मुस्लिम, कम्युनिस्टों से धरती को बहुत बड़ा संकट है।

आज कुछ लोग प्रयास कर रहे है सनातन हिन्दू धर्म को मजहब और रिलीजन की तरह बनाने का। हिन्दू को हिंसक बनाने का पर हिंसा से सिर्फ हिंसा का जन्म होता है। हम अपने मूल स्वभाव प्रेम को भूल जाएं, ऐसा कभी नहीं हो सकता है। तुम्हारे कहने से हम नपुंसक नहीं होने वाले हैं। जब देश पर बर्बरों के आक्रमण की शृंखला लगी थी, तब भी मूल स्वभाव नहीं छोड़ते हुए हमने अपने स्वधर्म की रक्षा की, उसकी कीमत के लिए लाखों हिन्दू रणभूमि में खेल रहे थे।

अब कुछ वाचाल बताएँगे कि हिन्दू धर्म कैसा व्यवहार करेगा? तुम्हारा जो संगठन है वह धन, मान के लिए है; सनातन के रक्षार्थ नहीं। पहले तुम धर्म धारण करो, नैतिकता का पालन करो और सीख बांटते न फिरो। सनातनी जानता है कि कैसे रक्षा की जाती है।

कोई इकोसिस्टम बना रहा है, कोई देहात्मवाद, व्यवहारवाद को सत्य मान पूंजीवादी परिपाटी को उपयोगी कहता है। व्यक्तिवाद और मानवतावाद की आड़ में लोकतंत्र के विचार को अधिरोपित करके बाजारवाद को संरक्षण दिया जा रहा है। जहाँ से पेट्रोल चाहिए वहाँ राजतंत्र ही ठीक है। जहाँ बाजार चाहिए वहाँ प्रजातंत्र का मीडिया के माध्यम से स्थापना की जाती है।

आधुनिक शिक्षा शोषण आधारित है जिससें निर्मित व्यक्ति दूसरे का खून चूसता है, वह परजीवी में परिणित हो जाता है। इन दुर्व्यवस्थाओं के बीच क्या आप को नहीं लगता है कि अब सनातन धर्म को विश्व की बागडोर संभालनी चाहिए जिससें अफ्रीका जैसे शानदार महादीप को अंधकार दीप, प्रयोग और परीक्षण का स्थल न बनना पड़े। अमेरिका के मूल निवासियों को बायोरिजर्व में रहने पर विवश न होना पड़े। ऑस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड के मूल निवासियों को किताबों में न खोजना पड़े। एशिया के देशों का सदा आपस में गुत्थमगुत्था न हो।

राम और कृष्ण पर संशय है क्योंकि तुम्हें अपने होने पर संदेह है। राम और कृष्ण भारतीय संस्कृति के आदर्श हैं, प्रणेता हैं और प्राण भी। तुम अभी भी धर्म के मर्म को नहीं समझे हो, तुम्हारी पहुँच मजहब तक है। इस लिए पूर्व की मनुष्य प्रक्रिया से तुम रस्खलित हो चुके हो, तुम्हें पुनः मानव धर्म में संस्कारित करना होगा। तुम इस धरती, समुद्र, आकाश के स्वामी नहीं हो, जो इसका दावा करता है प्रकृति उसे बर्बाद कर देती है। हो सकता है इसमें कुछ समय लग जाय। नेपोलियन और हिटलर इसका उदाहरण हैं, उन्हें दुश्मनों ने नहीं बल्कि प्रकृति ने पराजित किया था।

आओ मिलकर विश्व को सनातन मार्ग पर ले चलें, उन्हें शांति, प्रेम, बन्धुता और अहिंसा को बोध कराएं ताकि उनके बच्चे भी खुशहाली से रह सकें।


नोट: प्रस्तुत लेख, लेखक के निजी विचार हैं, यह आवश्यक नहीं कि संभाषण टीम इससे सहमत हो।

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