सनातन शास्त्रों में बताया गया है कि प्राणियों की 84 लाख योनियां होती हैं जिस पर नासा आदि वैज्ञानिक संस्थाओं ने भी पुष्टि की है। इन्ही 84 लाख योनियों में से मनुष्य सबसे विकसित है, उसे अन्य प्राणियों की जिम्मेदारी दी गयी है।
जेहन में प्रश्न कौंधेगा कि मनुष्य ही क्यों? मनुष्य के चुनाव के पीछे अहम वजह है उसकी विकसित चिंतन प्रणाली जो उसे विद्या के अभ्यास से मिल जाती है।
आधुनिक विज्ञान कहता है कि मनुष्य का बच्चा जब जन्म लेता है तब उस अवस्था में कई प्राणियों के जैसे गिब्बन, ओरंगगुटान आदि के बच्चे ज्यादा विकसित होते हैं किंतु मनुष्य का बच्चा समय के साथ सीखते – सीखते सबसे विकसित हो जाता है। अन्य प्राणियों की अपेक्षा वह पैर से चल कर हाथ का प्रयोग निर्माण और रक्षा के लिए किया करता है।
एक बात एकदम सच है कि मनुष्य में बहुत सी खूबियां के होने बाबजूद उसने प्रकृति, पर्यावरण और अन्य प्राणियों का दोहन किया है।
प्रदूषित पर्यावरण का दानव आज पृथ्वी के दरवाजे पर बैठा है। बाढ़, सूखा, सुनामी आदि प्राकृतिक झंझावात में मानवीय हस्तक्षेप से इनके अंतराल में कमी आ गयी है लेकिन तरह – तरह की बीमारियों ने डेरा जमा रखा है।
एक मनुष्य के कारण प्रकृति और प्राणियों को अपार क्षति पहुँची है। जानवरों की अनेक समस्याएं हैं, कुत्ता कहता है मैं सोता रहता हूँ मनुष्य लात मार देता है।
गाय, भैस, बकरी कहती है कि मेरे बच्चे के हिस्से का दूध तो पीता है साथ ही मांस के रूप में मुझे मारकर खा लेता है।
चिड़िया, मुर्गी, सांप, केकड़ा, मछली, चूहा, सुअर आदि की पीड़ा भी ऐसी ही है। जंगली पशुओं का कहना कि उनके जीवन में मनुष्य बेजा खलल डालता है।
अब कल्पना करिए मनुष्य नहीं होता तब दुनिया कैसे होती? बाजार नहीं होता, मनुष्य का स्वार्थ भी नहीं रहता और दुनिया प्राकृतिक रूप से चलती। अन्य प्राणी निर्बाध जीवन जीते उसके ऊपर मनुष्य जैसे भयंकर जानवर की गिद्ध दृष्टि न रहती।
जल को बिना रोक के बहने, हवा के निर्बाध बहने पर कोई रोक नहीं होती। कंकरीट के जंगल न खड़े होते, शोषण नाम की कोई कहानी न होती।
मनुष्य को यह जानना चाहिए कि वह धरती का अकेला प्राणी नहीं है। यदि कोई उसके जीवन में दखल नहीं दे रहा है तो वह क्यू दूसरे प्राणियों के जीवन को नष्ट कर रहा है। एक कहावत है जिसपर किसी का बस नहीं चलता उस पर प्रकृति चाबुक चलाती है।
भूकम्प, सुननी, संक्रामक बीमारी आदि उसी का एक रूप है। यदि आप मनुष्य हैं तो मनुष्यता धारित करें, जीयें और जीने दें। यह धरती जितनी आप की है उतनी ही अन्य प्राणियों की भी है। ऐसा न हो कि मनुष्य का इतिहास डायनासोर की तरह सिर्फ किताबों तक सिमट कर रह जाय।
नोट: प्रस्तुत लेख, लेखक के निजी विचार हैं, यह आवश्यक नहीं कि संभाषण टीम इससे सहमत हो।
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