मनुष्य जीवों को खाने का दावा कैसे कर सकता है? इसे उचित ठहराने के अधिकार कैसे मिल जाता है? आधुनिक विज्ञान भी मानता है कि 1 किलो मांस तैयार होने में 6 किलो अन्न और 200 लीटर पानी खर्च होता है, जबकि 1 किलो अन्न तैयार होने में कुछ बीज और एक से दो लीटर पानी खर्च होता है। एक किलो अन्न दो लोग आराम से खा सकते हैं वहीं सिर्फ मांस खाना हो तो एक किलो मांस एक व्यक्ति के लिए कम पड़ सकता है।
एड्स, इबोला, मर्स, स्वाइन फ्लू अब करोना जैसे वायरस बंदर, मुर्गी, चमगादड़, सुअर से सीधे मनुष्य में आते हैं।
चीन में जब वन चाइल्ड पालिसी लागू थी, तब मीडिया का उतना प्रसार नहीं था और विश्व ग्लोबल गांव नहीं बन पाया था, उस समय विश्व की सबसे महंगी डिश थी ‘मनुष्य के चूज़े’। अन वांटेड चाइल्ड जिन्हें माता – पिता एबार्ट करवा देते थे, उसे वहां के लोग बहुत चाव से खाते थे। प्रोटीन के स्रोत कब तक मांस बने रहेंगे?
आधुनिक विकास या वैज्ञानिक विकास ने धरती को और सुंदर बनाने के बहुत से दावे किये थे, लेकिन अब वही दार्शनिक और वैज्ञानिक कहने लगे हैं कि भारतीय शास्त्रों की विकास की परिभाषा ही सही है जिसमें मनुष्य और प्राणी के उन्नति के विषय में सम्पूर्णता में बताया गया है।
शाकाहार को लेकर विश्व में एक नई बहस और क्रांति तो शुरू हुई है, किंतु जीभ इतने वर्षों तक जीवों को मार कर उसके स्वाद लेने को आदी हो चुकी है। उसमें परिवर्तन कैसे आये? मांस के नाम पर पारस्परिक सहमति रहती है, तुम भी खाओ हम भी खाएं। मांस खाने वाले खाने का कूतर्क भी गढ़ लेते हैं जिससे स्वयं की नैतिकता बची रहे। क्या कभी इस पर विचार हुआ है कि कितने जीव – जंतु प्रतिदिन मनुष्य के जीभ का शिकार बन रहे हैं?
मनुष्य वही है जो मनुष्यता धारण करता है, अन्य प्राणियों के लिए भी उसमें मित्रवत भाव रहते हैं न की उन्हें भोजन के रूप में ग्रहण करने के।
यह भी विचारणीय विषय है कि जिस परम शक्ति ने हमें बनाया है, उसी ने अन्य प्राणियों को भी बनाया है। यदि वह अन्य प्राणियों को मनुष्य के लिए मात्र भोजन के लिए बनाता तब उसे अन्न और फल बनाने की क्या आवश्यकता थी? यदि मनुष्य को खून पीने से प्यास बुझ जाती तो पानी की जरूरत क्या थी।
इस सृष्टि का सबसे महत्वपूर्ण और होशियार प्राणी मनुष्य है, जिस पर अन्य जीव जंतुओं की भी जिम्मेदारी है न कि उन्हें खाने की। बात स्वाद की ही है तो मनुष्य से स्वादिष्ट किसी और का मांस नहीं हो सकता। बनाने वाले ने जिस सोच को लेकर मनुष्य को बनाया था वह भी आज पछता रहा है।
पृथ्वी संतुलन का नाम है, मच्छर, मक्खी, चींटी, मेढ़क, कीड़े, सर्प, चिड़िया, जंगल, नदी, समुद्र आदि सभी मिलकर संतुलन बनाते हैं जिससे पृथ्वी पर जीवन संभव होता है। लेकिन आज उसके संतुलन को सबसे बड़ा खतरा मनुष्य जाति से है। वह अपने साथ भयंकर प्रदूषण लेकर कर बढ़ता जा रहा है जिसके परिणामस्वरूप कितने जीव – जंतु और प्रजातियां नष्ट होती जा रही हैं।
जंगल में वृक्षों पर विचार करें तो आज भले ही वह विशालकाय बन गये किन्तु उसे वहाँ पहुँचाने का श्रेय चिड़िया की बीट को है। इसी तरह परागकण के प्रसार में कितने जीव – जंतुओं की भूमिका होती है, कई ऐसे जानवर हैं जो प्राकृतिक सफाई करते हैं।
सभी प्राणीओं के महत्व को समझना पड़ेगा। मनुष्य वैसे भी अपने विचार और व्यापार के लिए बहुत से युद्ध लड़ा है और मानव ही मानव को मारने का यंत्र बना कर चंद मिनट में हजारो की संख्या में मानव को मार डालता है। मनुष्य बहुत चतुर है अपनी गलतियों पर पर्दा डालने के लिए एक वाद या सिंद्धात बना कर अपने को सुरक्षित महसूस कराता है जो पलायनवाद का संकेत देती है।
मनुष्य को आध्यात्मिक प्राणी इसी लिए कहा जाता है कि वह बेहतर संतुलन स्थापित कर लेता है। सभी प्राचीन सभ्यतायें आज इतिहास का हिस्सा हैं, एक भारतीय सभ्यता को छोड़ कर, कारण भारत ने प्रकृति से उतना ही लिया जितना एक बच्चा अपनी मां के स्तन से दूध लेता है। इससे मां को कोई क्षति नहीं होती और बच्चा भी अपना जीवन बना लेता है।
विचार करना होगा क्या मनुष्य को मांस खाने की नैतिकता है? यह वायरस जनित रोग संकेत दे रहे हैं मार्ग बदल लो नहीं तो चीजें तुम्हारे हाथ से निकल जाएँगी। जिस दिन प्रकृति बदला लेने पर आयेगी उस दिन मनुष्य जाति का इतिहास पुस्तकों में पढ़ने के लिए भी नहीं बच पायेगा।
नोट: प्रस्तुत लेख, लेखक के निजी विचार हैं, यह आवश्यक नहीं कि संभाषण टीम इससे सहमत हो।
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