मुद्रा का चलन यह बताता है कि मानव व्यवस्थित हो गया है। मनुष्य के विकास यात्रा की कुछ न कुछ कहानी तो मुद्रा कहती ही है।
जिसकी मुद्रा मजबूत उसका देश मजबूत ये बहुत पुराना लेकिन सटीक ख्याल है। भारत में मुद्रा का प्रचलन प्राचीन काल से बहुत व्यवस्थित तरीके से रहा।
वस्तुएं के अदला बदली से शुरू हुआ व्यापार एक समय में वस्तु के विनिमय का माध्यम गाय भी बनी थी। सम्पत्ति का आकलन गाय में किया जाता था ।
अर्थव्यवस्था को गति देने और सुविधा के लिये स्वर्ण, आहत सिक्के से दौर शुरू हुआ जो हूण, पैगोडा, वराह, कार्षापण, दीनार, द्रम्म, टका, आना, जीतल, अद्धा, बिख, दिरहम, जलाली, पैसा से होते हुये भारतीय मुद्रा शेरशाह सूरी के समय में रुपया कहलाई।
यही मुद्रा रुपया भारत में ब्रिटिश मुद्रा प्रणाली का आधार बना आधुनिक रुपया अंग्रेजों द्वारा 1835 में जारी किया गया। 1947 में जब अंग्रेज भारत से जाने लगे तो एक रुपया एक डॉलर के बराबर था।
अब देखिये हमारी भारतीय व्यवस्था 71 सालों में रूपये को एक डॉलर की तुलना में 70 रुपये तक पहुँचा दिये है। आजादी के बाद भारत में कुछ प्राकृतिक विकास जरूर हुआ है। इस दौर में नेता, बिजनेसमैन और प्रशासनिक अधिकारी के गठजोड़ ने खूब माल बनाया। इनके घर, सम्पत्ति और कारोबार खूब बढ़े जातिवाद के आड़ में विकास के लोकलुभावन नारे में जनता की स्थिति कुछ ज्यादा परिवर्तन नहीं आया।
रुपये की गिरती कीमत के पीछे राजनीति और संस्थागत भ्रष्टाचार रहा है। 1984 में रुपये की कीमत लगभग 12.36 ₹ थी 1990 में 17.50 ₹, 1995 में 35₹, 2000 में 47₹, 2010 में 45₹, 2015 में 63.78 ₹ और 2018 में 70 तो 2019 के शुरुआत की तिमाही में 68 रुपये आसपास एक डॉलर के सापेक्ष कीमत बनी है ।
रुपये की कीमतों में 1991 के उदारीकारण के बाद 28 सालों में लगभग 45 ₹ की गिरावट आई। भारत जैसा एक बड़ा मुल्क जो अपने लोगों के स्वास्थ्य पर GDP का मात्र 1.02% खर्च करता है। 11082 लोगों पर मात्र एक डॉक्टर है। मालदीव जैसा छोटा देश अपने जीडीपी का 10% लोगों के स्वास्थ्य पर खर्च करते है।
मातृ मृत्युदर में विश्व में स्थिति अफ्रीकी देशों से बुरी है। सरकारी हॉस्पिटल में मरीज दिखाना मतलब बीमारी को जीत लेने के बराबर है।
भारत की समस्या को दूर करने से ज्यादा किसी को मतलब नहीं है। वह तो धर्म जाति के नाम पर लड़ा कर कुर्सी पा लेगा फिर पांच साल बाद वही चाल दुहरायेगा। भारत मे एक चीज जांची परखी है थानेदार और नेता पहले वाले से बुरा ही आता है। एक कहावत है सब रुपये का खेल है बाबू जो हमलोगों के साथ खेल जा रहा है।
सबसे पहले भारत प्रशानिक अधिकारियों के चोले को उतार फेके। नेता व्यापारी गठजोड़ दरके। जनता की भागीदारी, पारदर्शी व्यवस्था, उत्तरदायी शासन का निर्माण हो। जिससे हमें भारतीय होने का एहसास हो। जो सिर्फ संसद, विधानसभा, पंचसितारा होटल और एंटलीना जैसी शानोशौकत में गुम न हो जाय।
Paise ki kimat har ek ko samjhni hogi tahi apna apno evm Bhart desh ka klyan ko skta h
सही कहा आपने!