एक भावना होती है साथ जीने की, साथ चलने की, साथ मरने की। अपनी बात कहने की, किसी कंधे पर सिर रख के रोने की या कह सकते हैं पूर्ण होने की। उसे पा जाने की।
बिना भावना “भगवान” भी नहीं हो सकते हैं। भावना है इसलिए मानवीय सम्बन्ध है, एक दूसरे से मिलने का समाज भी। भावना का विकसित होना आवश्यक है, द्वय का एक होना ही सुख है “अद्वैत” के बिना उस सृजनकर्ता ब्रह्म को भी नहीं जान सकते।
वह दोनों स्वरूपतः अभिन्न है, यह भिन्नता कैसे आ गई, हम से “मैं” और “तू” कैसे हो गया? सामंजस्य एक होने का था, अंहकार ने उस ‘प्रेममय भावना’ को खत्म कर दिया। वह अलग होके किसी और की होना चाहती है। अब उसके लिए मेरी भावनाओं का कोई मूल्य नहीं रहा है। वह लाभ-हानि का गुणा-गणित सीख गई है।
मन की दशा पर आत्मा हँसते हुए कहती है कि पूर्व में बोला था- भावनाओं में उसे बसाओ जिसने तुम्हें निर्मित किया है। जीवन में कुछ जानने जैसा है तो वह तुम स्वयं हो। मानवीय सम्बन्ध की सीमा स्वार्थ है, परमार्थ नहीं।
मेरे स्वार्थ पूरे होने पर तुम प्रियतम नहीं, नहीं होने पर अन्य को प्रियतम बना लेगी। तुम नितांत निर्वेद में घिर जाते हो ऐसे समय यह जीवन मिथ्या प्रतीत होगा। हे मनुज तुम्हारी खोज है कि आखिर ‘तुम’ कौन हो? बाकी भावनाओं का ज्वार मात्र भटकाव देगा सांत्वना सत् ही देगा। यह सत् तुम्हारी आत्मा में है तुम्हें द्वार खोलना भर है। अन्यथा आकण्ठ दुःख में गोता लगाते रहोगे।
माता नास्ति पिता नास्ति नास्ति बन्धो सहोदर:।
अर्थं नास्ति गृहं नास्ति तस्मात जाग्रतो जाग्रत:।।