तुम कब जाग्रत होगी? मेरा इंतजार जन्मों जन्म का है, इस जनम में न सही तो अगले जनम में मिलेंगे।
ये प्रेम ईश्वर को अपना बना लेता है। प्रेम की एक छोटी देन मानव है। हम तुम एक मनुष्य ही है जिसकी सीमा शरीर है किंतु मन और आत्मा की कोई सीमा नहीं है। मन तो सेंकड के करोड़वें हिस्से में ब्राह्मण्ड का चक्कर लगा कर आ जाता है। रही आत्मा की बात तो यह न मरती है न नष्ट होती है।
शरीर पंचभूतों का संघात है जो यहीं का है यहीं रह जायेगा। अमरत्व शरीर को बरदान में नहीं मिलता है। सखी मैं सोचता हूँ कि तुम अचेतन अवस्था में ही मुझसे बात करती होगी। मैं जरूर तुमसे कहता हूंगा मेरे लिए जियो तुम। तुम्हारे बिना मेरे जीवन की कल्पना कैसे होगी?
मैं बुढौती में किससे झगडुगा? तुम जीना चाहती हो तो मौत को मारकर आ सकती हो।
मेरे जगने के साथ लगता है कि तुम आज बोलोगी फिर शाम के बाद नई सुबह की वही आस…
प्रेम आसान होते हुये भी कठिन है, यह एक साधना है जो नित्य जीवन में साधना पड़ता है।
सखी मुझे लगता है कि मेरी बात तुम तक जाती है। तुम सुनती हो..
ह्रदय के रिश्ते में किसी बनावटी माध्यम (इलेक्ट्रॉनिक उपकरण मोबाइल आदि) की जरूरत नहीं पड़ती है।
सखी ऐसा लगता है कि जल्द ही स्वस्थ कर मुझसे बोलोगी। यह भी कहना है तुमसे इस भौतिकता की भूल भुलैया में मानव मनुष्य होने का हक खो दिया। रिश्ते की डोर पैसे के जोर ने पकड़ ली है। अब एक दूसरे के लिए फीलिंग नहीं है बस जरूरत है।
मैं हर उस चीज में तुम्हें महसूस करता हूं जिसमें प्रकृति समाहित है। मेरे मनुष्य होने की सीमा न होती मैं ही तुम्हारा स्वास्थ्य बन जाता है। तुम्हे चेतन करता मैं रहता या न रहता।
हम दोनों तो उस मानसरोवर के हंस की तरह हैं जिसे लौटकर वहीं जाना है जहाँ से आया है। यदि प्रेम ईश्वर है तो हम जरूर एक होंगे। तुम आना मेरे इंतजार का कोई समय सीमा नहीं है बस तुम हो।
हे री सखी… आज मोहे श्याम से मिला दे।
नोट: प्रस्तुत लेख, लेखक के निजी विचार हैं, यह आवश्यक नहीं कि संभाषण टीम इससे सहमत हो।
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