कोरोना काल में एलोपैथी और आयुर्वेद की चर्चा लगभग आम है। आयुर्वेद कफ, वात और पित्त इन तीनों के असंतुलन को बीमारी का प्रमुख कारण मानता है। स्वस्थ्य रहने के लिए आयुर्वेद कहता है ऋतभुख, मितभुख और हितभुख आर्थत सात्विक भोजन, अल्पाहार और खाये हुए को पचाना।
एलोपैथी डॉक्टर से पूछेंगे कि स्वास्थ्य क्या है? उनका उत्तर होगा ‘बीमार न होना’। यह नकारात्मक परिभाषा है। आयुर्वेद कहता है कि यदि आप खाने को सही तरह से पचा ले रहे हैं तो आप स्वस्थ हैं।
मगध साम्राज्य में ईसा पूर्व छठी शताब्दी में जीवक नामक राजवैद्य थे जिनकी शिक्षा तक्षशिला में हुई थी उन्होंने मगध के सेनापति के कटे पैर की जगह लोहे का पैर लगा दिया। जिससे उन्होंने आगे के युद्ध में भाग लेने के साथ अपना सामान्य जीवन जीया।
भारत की चिकित्सा पद्धति की भारत से दूर अरब, अफ्रीका, चीन और लंका सहित सुदूर एशिया में फैली थी, यह विवण अशोक के एशिया माइनर (तुर्की) से प्राप्त शिलालेखों में मिलता है जिसमें इंद्र, मित्र, वरुण, नासात्य का उल्लेख है, यह नासात्य अश्विनी कुमारों में से एक थे। तब के समय में यही यूरोपीय लोग जानवरों की तरह कंदराओं में रहते थे।
अश्वनी कुमारों ने ऋषि दधीच से मधु विद्या सीख कर उनका सिर काट कर अश्व का सिर लगाया और पुनः उसे हटा कर दधीच के सिर को लगा दिया। यह प्रयास आज के आधुनिक वैज्ञानिक और डॉक्टर भी कर रहे हैं किंतु असफलता ही हाथ लगी है।
ऋषि च्वयन के वृद्धावस्था में देख कर उनकी पत्नी सुकन्या द्वारा किये तप से प्रसन्न होकर अश्विन कुमार ने पुनः अपने ज्ञान से उन्हें चिर युवा कर दिया। प्रजापति दक्ष का सिर जब क्रोध में आकर शिवजी ने काट दिया तब भगवान विष्णु अज (बकरे) का सिर लगा कर उन्हें जीवित किया।
गणेश जी को माता पार्वती ने अपने शरीर के मैल से बना कर उसमें प्राण फूंक दिया। बालक गणेश ने जब शिव जी का मार्ग रोकने का प्रयास किया तब शिव जी ने त्रिशूल के प्रहार मस्तक अलग कर दिया। माता पार्वती के रुदन को देख विष्णु भगवान ने हाथी के मस्तक को लगा कर उसमें प्राण डाल दिये। भगवान विष्णु का एक अवतार धनवन्तरि का है जो आयुर्वेद चिकित्सा के जनक कहे जाते हैं।
महाराज चन्द्रगुप्त के शासन काल में मगध के चिकित्सक धनवंतरि की प्रयोगशाला का आज भी पटना में अवशेष है। वैज्ञानिक चिकित्सा के चमत्कार, अनुसंधान और प्रयोग पर निर्भर करते हैं। भारत के चिकित्सा चमत्कार यही नहीं रुकते। भगवान बलभद्र का देवकी के गर्भ से रोहिणी के गर्भ में प्रत्यारोपण हो या उत्तरा गर्भ की रक्षा द्रोण पुत्र अश्वत्थामा के ब्रह्मास्त्र से हो। धृतराष्ट्र और गांधारी के सौ पुत्रों का कुम्भक द्वारा वेदव्यास की विद्या से जन्म हो या व्यास जी द्वारा अपने पुत्र शुकदेव को गर्भ में समस्त ज्ञान की शिक्षा। यह चमत्कारिक जरुर लगता है किंतु यह भारत का विकसित चिकित्सा विज्ञान था जिसकी आज कल्पना भर की जा रही है।
ऋषि पतंजलि अपने शिष्य से पूछते हैं ‘कौन स्वस्थ्य है?’ शिष्य : ‘हितभुक, मितभुक और ऋतभुक अर्थात जो सात्त्विक भोजन और अल्पाहार करे, भोजन को पचा ले, वही स्वस्थ है।’
आयुर्वेद के अनुसार भोजन भी तीन प्रकार के होते हैं सत्व, रज और तम। भोजन के तीन दोष हैं आश्रय, स्थायी और निमित्त। शुद्ध और ताजा भोजन ही हमारे शरीर के लिए उचित होता है। रोग का कारक अन्न है क्योंकि अन्न के साथ विकार शरीर में उत्पन्न होता है।
फिर प्रश्न उठता इतनी चमत्कृत चिकित्सा व्यवस्था कैसे लुप्त हो गयी? हमें इतिहास देखना होगा। कोई भी विद्या बिना राजाश्रय के दम तोड़ देती है। भारत पर मुस्लिम फिर इसाई शासन में उपेक्षा का शिकार आयुर्वेद दम तोड़ता गया। अनुसंधान के सिद्धांत अथर्ववेद आदि में धूल धूषित पड़े रहे हैं, उस पर अनुसंधान और सुधार बन्द हो गये।
चरक संहिता, सुश्रुत संहिता, अष्टांगसंग्रह आदि आयुर्वेद के महान ग्रंथ है। अष्टांगसंग्रह को 11वीं सदी में अलबरूनी ने विश्व की सबसे अच्छी चिकित्सा पुस्तक बताया था। मनुष्य ही नहीं वरन जानवरों की चिकित्सा पर भी अद्वितीय ग्रन्थ लिखे गए। हस्तायुर्वेद पुस्तक हाथियों की चिकित्सा विश्व की अनुपम व अद्वितीय कृति है।
स्वतंत्रता के बाद भी भारतीय राजनेताओं ने यूरोपीय एलोपैथी को ही सही माना और उसी पर निवेश और शोध होते रहे। अधिकांश आयुर्वेदिक चिकित्सकों को ‘नीम-हकीम खतरे जान’ मान लिया गया।
भारत में आज भी आयुर्वेद पर कोई विशेष निवेश नहीं है। आज भारत में जहां एलोपैथिक डॉक्टरों कि संख्या करीब १२.५ लाख है तो वहीं आयुर्वेद के ४.५ लाख चिकित्सक ही हैं। जो थोड़ा बहुत प्रचार-प्रसार एक बाबा ने किया है तो उसकी छवि बार-बार खराब की जारी है। एलोपैथिक डॉक्टरों का उपनिवेशवादी सिद्धांत है मेरे अलावा सब गलत है।
एलोपैथी चिकित्सा की आकस्मिक सेवा जिस तरह से काम करती है, उसके गुणवत्ता पर प्रश्न नहीं है। प्रश्न डॉक्टरों की व्यवस्था पर, हॉस्पिटल, टेस्ट, दवाओं पर है। डॉक्टर के बढ़ते बिल पर है। इन्हें भगवान माना जाता था लेकिन अब इन पर प्रोफेशनलिज्म हावी हो गया है। वह कम समय में करोड़पति बनना चाहते हैं। फीस हर साल बढ़ने के साथ ही दवाओं और टेस्ट पर कमीशन ले रहे हैं। हॉस्पिटल में अनाप-शनाप बिल बढ़ाते जा रहे हैं।
मेरे एक रिश्तेदार प्रयाग के हॉस्पिटल में हार्टटैक से एक निजी चिकित्सालय में भर्ती हुये, उन्हें 10 दिनों से ICU में रखा गया था। संयोग से उन्हें देखने एक रिश्तेदार आये जो PGI में डॉक्टर थे, उन्होंने जैसे ही देखा तो कहा इन्हें मरे दो दिन हो गये होंगे, तुम लोग ICU में रख के पैसा बना रहे हो?
मेडिकल स्टाफ ने पहले तो उनसे बहुत बहस किया लेकिन जैसे ही पता चला कि यह लखनऊ PGI के डॉक्टर है सब ने माफी मांग ली और बिल भी बहुत कम कर दिया।
सरकारी हॉस्पिटल के ज्यादातर डॉक्टर मरीज को बहुत हिराकत के नजरिये से देखते हैं और थोड़े में ही अभद्र व्यवहार दिखाने लगते हैं। वह सोचते हैं कि गरीब ही सरकारी अस्पतालों में आते हैं।
एलोपैथी चिकित्सा इस समय पूर्णतया व्यवसायिक बन चुकी है, वह अधिकतम लाभ लेना चाहती है। डॉक्टरों में मानवता का क्षरण हो चुका है। वह जल्द से जल्द हॉस्पिटल का खर्च निकलना चाहते हैं यदि हॉस्पिटल नहीं है तो बनवाना चाहते हैं। उसे लगता है कि मरीज के पास पैसे का पेड़ जो है, हिला कर एक बोरी लाकर दे जायेगा।
आयुर्वेद शल्य चिकित्सा की सरकार से अनुमति चाहता है। आयुर्वेद बाजार में स्थान बनाने लगा और कुछ चुनौती के रूप दिखाई पड़ा तो भारतीय मेडिकल एसोसिएशन को दिक्कत हो रही है क्योंकि डॉक्टरों के एकाधिकार को चुनौती घास-पात, जड़ी-बूटी वाला कैसे दे सकता है?
एलोपैथी अपने साथ अंग्रेजी संस्कृति लाती है वहीं आयुर्वेद भारतीय संस्कृति। युद्ध सदा सांस्कृतिक रहा है और रहेगा। यूरोपीय संस्कृति सांकृतिक श्रेष्ठता यूरोप में मानती है।
आज भारत के अधिकतर लोग भी अक्ल के अंधे हैं। वेद, रामायण और महाभारत के साथ आयुर्वेद के कई ग्रंथों में चिकित्सा सिद्धान्त फैला है, उस पर काम करने की जरूरत है। यदि आयुर्वेद पर अनुसंधान बढ़ाया जाता है वह निश्चित ही कारगर होगा। यह बात अलग है कि कहीं आप ऐसा मानते हों कि जब एलोपैथी का भारत में प्रसार नहीं हुआ था तब भारत में चिकित्सा व्यवस्था ही नहीं थी?
नोट: प्रस्तुत लेख, लेखक के निजी विचार हैं, यह आवश्यक नहीं कि संभाषण टीम इससे सहमत हो।
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बेहतरीन लेख, साधुवाद।