सार्वभौमिक सनातन हिंदू धर्म शोर नहीं मचाता है बल्कि वह बौद्धिकता के कारण विकास पथ पर दृढ़ता के साथ चलता रहा है। वह अपने समय के इन्तजार में है, आज तक उसकी आध्यात्मिक शक्ति ही उसके मौलिक संस्कृतियों को बचा कर रखी है। निश्चित रूप से आने वाला समय हिंदू ज्ञान, विज्ञान निहित परम्परा पर निर्भर करेगा।
ईसाई धर्म में कहा जाता है कि जो भी ईसाई धर्म को स्वीकार नहीं करेगा उसे ईश्वर नर्क में भेज देगा। ईसाईयों से ही जन्मा मुस्लिम धर्म कहता है कि जन्नत का दरवाजा सिर्फ मुसलमानों के लिये है, गैर मुस्लिम को वह काफिर कहता है जिस पर अल्लाह रहम नहीं करता और उसे जहन्नुम की आग में जलना पड़ता है।
इस्लाम और ईसाई, धर्म से अधिक एक राजीनीतिक विचार हैं। पूर्व के इनके कृत्य उजागर हैं, अमेरिका में आज से 450 साल पहले मूल निवासियों को विकल्प दिया गया था कि ईसाई और मौत में से एक चुन लो।
यही हाल 1200 वर्ष पहले यूरोप में भी हो चुका है। आज भी देखिए यह धर्म गरीब और आदिवासी क्षेत्र में लालच और लोभ देकर संख्या बढ़ाने पर जोर दे रहा है जिसे धर्मांतरण कहते हैं।
मुस्लिम धर्म एक विशुद्ध राजनीतिक विचार है जिसने बौद्धिकता को ताक पर रख दिया। हिंसा के दम पर इसे फैलाया गया। कई देश उजाड़ दिए गये, कई पर धार्मिक कब्जा और कई पर राजनीतिक कब्जा कर लिया गया। मध्यकाल विश्व को अंधकार में ले जाने वाला युग है जिसमें बर्बरता और भय दिखा कर धर्मांतरण प्रबल रहा है। इसमें कमोबेस मुस्लिम और ईसाई समान भूमिका में रहें है।
इस्लाम और ईसाई की बात करते हैं तो एक प्रश्न सहसा उठता है कि क्यों इन्होंने भारत के संदर्भ में उदारवादी दृष्टिकोण अपनाया और भारत को मुस्लिम या ईसाई नहीं बनाया?
भारत आदि काल से आध्यात्मिक और धार्मिक दृष्टि से बहुत सक्षम देश रहा है। यहां आने वाले ईसाई और मुस्लिम भारत के दर्शन और ज्ञान के भंडार से बिना प्रभावित हुये नहीं रह सके।
मार – काट, लोभ – लालच आदि से ईसाई – मुस्लिम धर्म का जितना विस्तार करना था या हो सकता था, उतना किया गया। चुनौती अब बुद्धि के अधिकतम प्रयोग पर बल देने वाले लोगों से थी।
हिंदू धर्म चरित्र और ज्ञान के आधार पर सत्य को खोजने का मार्ग है। इस धर्म में साहित्य, संगीत, वास्तु, नृत्य, विज्ञान, खगोल, भूगोल, चिकित्सा, अर्थ शास्त्र, नीतिशास्त्र, कामशास्त्र आदि पर विस्तृत शोधपरक अध्ययन सम्मिलित हैं।
मुस्लिम के भारत में आगमन के समय भारत एक बहुत बड़ा देश था जिसकी सीमा ईरान से शुरू होकर चीन के शिनजियांग तक और बर्मा से लेकर लंका तक थी। इतने बड़े देश को तलवार के दम पर मुस्लिम नहीं बनाया जा सकता था। उसपर भारत जैसे मजबूत सांस्कृतिक परम्पराओं वाले देश में ज्ञान, विज्ञान और कला की एक मजबूत परम्परा आदि काल से चली आ रही थी।
अरब देशों का भारत से सम्बन्ध प्राचीन समय से था, उन्होंने भारत के ज्ञान भंडार से पूर्व में लाभ उठाया था। इस्लाम के भारत आगमन के बाद स्वाभाविक रूप से एक बौद्धिकता, सूफी परम्परा के रूप में जन्म ली। जिसमें भारत के ऋषियों का अनुसरण किया गया है ब्रह्मचर्य, योग, संगीत, साधारण शाकाहारी जीवन तथा मनुष्य मात्र से प्रेम आदि के आधार पर। अब इस्लाम से सूफी को मिटा दिया गया है।
बाद के समय में ब्रिटिश उपनिवेशवादी व्यवस्थाओं ने भारतीयों को उनकी प्राचीन परम्पराओं से दूर रखने में सफलता पाई, इतना ही नहीं बल्कि उनको नकारेपन तक पहुंचा दिया। अंग्रेजी शिक्षा प्राप्त भारत का अभिजात्य वर्ग अपनी मौलिक संस्कृति से दूर होकर अंग्रेजों के बताए विश्वास को ही मान बैठा। इस व्यवस्था के लिए अंग्रेजों ने भारतीयों के “ब्रेनवाशिंग” को अंजाम दिया।
बौद्धिक संपदा की चोरी :
अंग्रेजों के आने पूर्व भारत 600 वर्षों से मुसलमानों का गुलाम रहा था, उससे भी पूर्व के 500 वर्षों तक अपनी सम्पूर्ण ऊर्जा मुस्लिमों से संघर्ष करने में लगा दी थी। भारत के वैज्ञानिक शोध को देशी शासन न होने के कारण अंजाम नहीं दिया जा सका जैसा कि पूर्व में होता रहा है।
मुस्लिम भारत की बौद्धिक संपदा की चोरी नहीं कर पाये, इसका कारण उनका मोटी बुद्धि का होना था। वह धन संपदा, शासन और मंदिर तोड़ने तक ही सीमित रह गये थे। इस्लाम में सूफी, जो गरीब हिंदू क्षेत्र में कुछ करामात दिखा कर मुस्लिम बनाता था, उन्हें छोड़ कर बाकियों ने तलवार से इस्लाम को फैलाने का प्रयास किया गया जिससे भारत में वह धर्म के स्तर पर असफल रह गए।
ईसाई जिनमें चतुराई थी, उन्होंने भारत के बौद्धिक संपदा की चोरी शुरू की, वैदिक गणित, बैटरी, सौर ऊर्जा, रेडियो, रसायन और खगोलिकी आदि के सिद्धांत जो हमारे ग्रंथो में मौजूद थे, उनपर दिखावे के लिए शोध कर अपने नाम पर कर लिया।
भारत के शोध पर ईसाई लेबल लगाया गया, क्योंकि तब भारत में कोई विरोध करने वाला भी नहीं था। अभिजात्य वर्ग भारत के ज्ञान, मन्दिर और मूर्तिपूजा का विरोध करने में ही व्यस्त था। जिसमें राममोहन राय और केशवचन्द्र सेन जैसे लोग शामिल थे। भारत में मूल वेद, पुराण आदि के स्थान पर अंग्रेजों के तर्जुमा पढ़े जाने लगे थे।
आज भी पश्चिमी देशों में हिंदु धर्म के समृद्धि ज्ञान भंडार को समझा जाता है किंतु भारतीय नहीं समझ पा रहे हैं। विश्व में सभी धर्मों ने अपना विस्तार करने के लिए हिंसा का सहारा लिया लेकिन वहीं सनातन हिंदू धर्म ही एक मात्र ऐसा रहा है जिसने हिंसा या बल का प्रयोग धर्म प्रसार के लिए कभी नहीं किया।
भारत का ज्ञान भंडार वेद, उपनिषद, ब्राह्मण, आरण्यक, स्मृति, महाभारत और रामायण आदि से समृद्ध है। हम “विश्व के कल्याण” और “सर्वे भवन्तु सुखिनः” की बात करने वाले हैं। वही ईसाईयों का मानना है कि स्वर्ग वही जायेगा जो ईसाई है, गैर ईसाई को ईश्वर नर्क की अग्नि में जलायेगा और यही बात मुस्लिमों में अरबी भाषा में यथावत लिखी गयी हैं।
यहूदी, मुस्लिम और ईसाई एक ही परिवार के धर्म हैं ठीक उसी प्रकार जैसे हिंदू परिवार में बौद्ध, जैन और सिख लेकिन हमारे शास्त्रों में यह बात कहीं नहीं गई है कि “मुक्ति” सिर्फ हिंदु को ही मिलेगी या मात्र हिंदू धर्म ही श्रेष्ठ धर्म है।
हिंदू सामान्यतया मूर्ति पूजक हैं, हमारे देवी, देवताओं आदि के मन्दिर हैं। सगुण साकार भक्ति में हमारी आस्था है लेकिन साकार और निराकार दोनों की समान मान्यता है लेकिन मुस्लिम और ईसाई केवल निराकार की बात करते हैं, ऐसी स्थति में उन्हें मस्जिद और गिरजाघर की क्या जरूरत है?
दलाई लामा कहते हैं कि भारत में संसार की सहायता करने की महान संभावनाएं हैं।
अंग्रेज कितने चालक थे जो अपने पीछे भारत में एक ऐसे अभिजात्य को वर्ग छोड़ गए जो आज भी उनके हितों की पूर्ति कर रहा है। पश्चिमी रंग में रंगे चितकबरे (काले अंग्रेज) भारतीय कैसे समझेंगे इस महान देश को जिनकी आस्था ही मैकाले, स्मिथ, मिल, मैक्समूलर, रिजवे आदि में हो? वह आज भी जातिवाद, मंदिर, ब्राह्मणवाद आदि का ही ढोल पीट रहे हैं।
भारत में कभी मुस्लिम – ईसाई गुलामी, बंटवारा, लूट आदि कभी मूल विषय नहीं बने बल्कि इनके स्थान पर पर्दाप्रथा, सतीप्रथा, विधवा विवाह, मूर्तिपूजा, ब्राह्मणवाद, मंदिर आदि को जानबूझकर मूल विषय बनाया गया जबकि वास्तव में यह या तो बहुत छोटे स्तर पर फैली कुरीति थी या विदेशी दासप्रथा जैसी कुरीति को भारत में शूद्रों पर रोपे जाने की साजिश जैसे थी जो यह एक सोची समझी रणनीति का हिस्सा रही।
आज हम अपने बौद्धिक सामर्थ्य को झोली में भर कर खूंटी पर टांग दिए हैं और पश्चिमी देशों से बौद्धिकता का आयात कर रहे हैं। हम भूल गये हैं कि हमारी अहिंसक भावना, प्रेम और बन्धुता की सोच प्राकृतिक तौर पर समानता और स्वतंत्रता को संरक्षण देती है। हमारे शासन में भी रामराज्य का महत्त्व है जिसमें समाज के अंतिम व्यक्ति के कल्याण की भावना निहित है।
आज जबकि अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति ओबामा, ब्राजील के राष्ट्रपति आदि को हनुमान जी से प्रेरणा मिल सकती है लेकिन भारत का नेता गांधीजी और अधिक से अधिक जोर देने पर कट पेस्ट के संविधान से ही प्रेरणा ले पाते हैं।
भारत में एक अच्छी संख्या ऐसे लोगों की भी है जो बात – बात पर भारतीय संस्कृति, धर्म, वेद आदि को बिना जाने समझे आलोचना करने लगते हैं क्योंकि अंग्रेजों ने भी ऐसी ही आलोचना की थी। बौद्धिक परम्परा वाले देश में अंग्रेजों ने अपनी शिक्षा नीति से अधिकतर लोगों मस्तिष्क को विकलांग बना दिया है। उसका मस्तिष्क पश्चिमी ज्ञान से ही प्रभावित होता है। यही तो मैकाले की मुख्य चाहत थी।
अमेरिका, ब्रिटेन, जर्मनी, फ्रांस, इटली आदि को मूल रूप से सेकुलर देश होने पर भी स्वयं को ईसाई धर्म का देश कहलाने पर गर्व है लेकिन हम भारतीय संस्कृति, बौद्धिक परम्परा, ज्ञान भंडार, वेद आदि पर गर्व नहीं बल्कि विरोध में रहते हैं, हमारे लिए विकास का पर्याय जातिवाद और पश्चिम सस्कृति से प्रेरित अर्थ हैं।
भारत मौलिक ज्ञान के अभाव में अब एक दूसरे से ही संघर्ष कर रहा है। हमरा गर्व गंगा – जमुनी तहजीब और लोकतंत्र रह गया है। इस बौद्धिक अल्पज्ञता से भारत जैसे महान सांस्कृतिक देश को कैसे मुक्त किया जाय यह एक बड़ा प्रश्न है। पश्चिमी संस्कृति की जड़े भारत में बहुत मजबूत हो चुकी हैं, यहां एक जाति वर्ग वाला दूसरे को विदेशी कहता है।
विश्व इस्लाम और ईसाई धर्म के झंडे तले रह कर देख चुका जिसे मिला है शोषण, गुलामी, बर्बरता, बलात्कार, बंटवारा और आपसी द्वेष। अब एक बार सनातन हिंदू धर्म के झंडे तले रह कर क्यों नहीं देखते? यदि वैश्विक उन्नति और लोगों का उत्थान न हों तो दरवाजे खुले हैं मस्जिद और गिरजाघर जाने के।
जिसे आज आधुनिक विकास कहा जा रहा है उसमें बहुत लोगों से छीन कर कुछ लोगों की भौतिक उन्नति कराई जाती है। एक पूरे महादीप “अफ्रीका” को अंधकार दीप कहा जाता है। कोई देश कोरोना महामारी का उत्पादन करके विश्वभर में फैलता है और कोई आतंकवादी इस लिए पैदा कर रहा है जिससे लोगों में दहशत पैदा करके अपने धर्म को फैलाया जा सके।
1786 इस्वी में प्राच्य और आंग्ल के विवाद में विलियम जोंस ने कहा था कि ग्रीक लैटिन की अपेक्षा संस्कृत अधिक पूर्ण और समृद्ध भाषा है। आरम्भ में यूरोप के विद्वान मानते थे कि उनकी भाषाओं को जन्म देने वाली भाषा स्रोत का गहरा सम्बन्ध भारत से है। ऐसा कार्ल मार्क्स भी अपने 1853 इस्वी के भारत सन्दर्भ के लेख में लिख चुके हैं।
1835 इस्वी में जब अंग्रेजी शिक्षा प्रारूप पर चर्चा शुरू हुई तब भारत की शिक्षा व्यवस्था को समेकित करने में अंग्रेज प्राच्य विद्या समर्थक और आंग्ल विद्या समर्थक, दो भागों में विभाजित हो गये। प्राच्य विद्या समर्थक जेम्स प्रिंसेज तथा विल्सन थे तो वहीं आंग्ल शिक्षा के समर्थक मैकाले, मुनरो और एलफिंस्टन आदि मुख्य थे। अंग्रेजी शिक्षा व्यवस्था वाले मैकाले का मानना था कि इस शिक्षा व्यवस्था से अगले तीस वर्षों में बंगाल के सभ्य वर्ग में एक भी मूर्ति पूजक नहीं रह जायेगा। वो रक्त और रंग से भारतीय होंगे परन्तु प्रवृत्ति, विचार, नैतिक मापदंड और प्रज्ञा अंग्रेजों जैसा होगा अर्थात “काला अंग्रेज”। जिससे अंग्रेजी वृक्ष सुदूर भारत में भी रोपा जा सकेगा।
भारत के संविधान में अंग्रेजों का उपनिवेश कानून 1935 के इंडिया एक्ट, जिसे नेहरू तब दासता का कानून कहते थे, से लगभग 250 अनुच्छेद लिए गये। यही वह भारतीय संविधान है जिसमें 70 साल में 100 से संशोधन संशोधन हो चुके हैं।
वह संविधान भी विचारणीय है कि किस प्रकार इसका सहारा लेकर भारतीयों में फूट डाली जा रही है। आरक्षण के खेल की कोई सीमा नहीं है। आरक्षण पाया व्यक्ति इसे मूल अधिकार मान बैठा है। मुस्लिमों को ओ.बी.सी. आरक्षण किस आधार पर मिलता है जबकि वह 600 वर्षों तक भारत में शासक रहा है। सवर्ण की परिभाषा क्या है? अंग्रेजी कट पेस्ट संविधान में समानता की परिभाषा रहस्यमयी है। आरक्षण अभी कितने वर्ष चलेगा? जबकि कितनों का प्रतिनिधित्व पूरा हुआ तो सरकार मौन हो जाती हैं।
संविधान के अनुच्छेद 30-30A में किस आधार पर मुस्लिम और ईसाई अपने स्कूलों में धार्मिक शिक्षा दे सकते हैं किंतु हिन्दू नहीं? जातिवाद दूर करते – करते जातियों को ही संवैधानिक दर्जा मिल गया, “बन्दर रोटी बांटने में रोटी ही खा गया”। संविधान में ऐसी व्यवस्था की गयी है कि हिंदू एक नहीं हो सकता है और मुस्लिम और ईसाई को एक करने का पूरा जतन है।
व्यवस्था ऐसी निर्मित की गयी है जिससें भारत की मौलिक संस्कृति को कोमा में रखा जाए क्योंकि जिस दिन भारत अपने मूल को जान गया, वह विश्व गुरु से लेकर विश्व की महाशक्ति बन जायेगा और सम्पूर्ण यूरोपीय व्यवस्था स्वतः ध्वस्त हो जायेगी।
अभी तक के वैश्विक सांस्कृतिक संघर्ष में हम सिर्फ दूसरों के मोहरें भर हैं और शतरंज और उसकी चालें पश्चिमी देशों की हैं। भारतीय संस्कृति की ताकत पश्चिमी देशों को पता है और इसे निष्प्रभावी करने लिए इसाईयों ने बहुत काम किया है।
नोट: प्रस्तुत लेख, लेखक के निजी विचार हैं, यह आवश्यक नहीं कि संभाषण टीम इससे सहमत हो।
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धन्यवाद सर🙏अँखा खोल देने वाले लेख है।
बहुत ही सुंदर लेख।