वह भी क्या जमाना था जब अपनों से ही आशियाना था। जिसमें बस चलते ही जाना था। बचपन के वो दिन भी क्या थे, न कोई चिंता, न कोई रोक, जब जैसे मन हो वही कर लेने की आज़ादी।
संडे मानो सबसे बड़ा त्योहार। जैसे ही टीचर बोले कल छुट्टी है फिर लगता पूरा जहाँ मिल गया। खूब खाना दौड़ लगाना, चिल्लम – चिल्ली करना। अपने मन का न हो तो खूब रोना। माँ का दुलार पापा की डॉट, दादी का वो कहानी सुनाना, दोस्तों से बात – बात में झगड़ पड़ना। चिड़िया, तोता, तितली, चंदा मामा के किस्से सुनना और उसे ही वास्तविक मानना। माँ से कहना मैं बड़ा होके चांद ले आऊंगा। छोटी – छोटी बातों में भी खूब खुश हो जाना, यही तो था वह बचपन का जमाना।
पापा को देख के लगता मैं भी जल्दी बड़ा क्यों नहीं हो जाता? कभी न थकना, स्कूल से आ कर तुरंत खेलने चल पड़ना। मां का वो जबरदस्ती पकड़ के खाना खिलाना। किसी से कोई बैर नहीं बस खिलौने में भागीदार कोई और नहीं। खेल को जीवन मानना बस पढ़ाई के लिए कोई न कहे, हर चीज का इंज्वाय करना।
न जाने कब बड़े हो गये जिंदगी की धक्कम – धुक्की में सब भूल गये, जब छोटे थे तो बड़े होना चाहते थे, अब बड़े हैं तो छोटा होने की ख्वाहिश है। सारी समस्या, चतुराई, चिंता इसी बड़े होने पर ही आती हैं।
ठीक से भूख क्या, नींद भी नहीं आती है। जीवन मे सिर्फ काम – काम, अब तो लगता है ठीक से हँसे भी अरसा बीत गया। ये बड़ा होना पाजी है यहाँ सबसे आगे जाना अपने को सबसे बेहतर समझने की चालाकी सीख भर लेना है। पूरा जीवन बनने और सजने में बीता जा रहा है।
कोई ऐसा है जो सब कुछ ले ले और मुझे मेरा बचपन लौटा दे? उस जमाने को लौटा दे, वो मेरी खुशियां वापस ला दे।
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Aap ne bachapan ki yad dila di