विद्या का पर्याय शिक्षा है। विद्या ही मनुष्य को पशु से अलग कर ‘मानव’ बनाती है। मनुष्यता का अर्थ प्रेम और सौहार्द से है जो मनुष्य तक सीमित न रह कर सभी प्राणियों को छू ले।
भारत में शिक्षा दो तरह की है, एक भारतीय प्रणाली (गुरुकुल व्यवस्था जो आज देखने को नहीं मिलती) और दूसरी पाश्चात्य परम्परा जिसको 1930 ईस्वी में लार्ड मैकाले द्वारा शुरू किया गया था और आज मैकाले शिक्षा व्यवस्था के नाम से जानी जाती है।
भारतीय शिक्षा धनोपार्जन के लिए न होकर काबिल बनाने की थी तथापि भारतीय परम्परा में 64 प्रकार की रोजगारपरक शिक्षायें मिलती हैं, इसका सर्वप्रथम उल्लेख यजुर्वेद अध्याय 30 के 5 से 22वें तक की ऋचा में मिलता है, यहीं से कामशास्त्र, याज्ञवल्क्य स्मृति, परशुराम स्मृति, महाभारत आदि में भी लिया गया है।
ध्यान दें तो बेरोजगार जैसा शब्द भारतीय परंपरा में ही नहीं था, अलबत्ता मुस्लिमों के “पढ़े फ़ारसी बेचे तेल से प्रचलित हुआ”, इससे यह पता चलता है कि भारत में मुस्लिम शासनकाल में बेरोजगारी आ चुकी थी।
अंग्रेजी शिक्षाव्यवस्था जो सुखवाद और अहमकेन्द्रिता पर आधारित है, रोजगार का बड़े जोर – शोर से दावा करती है। वह तो भारत की कृषि आधारित व्यवस्था है जो दावे की खुली पोल को भी संभाल देती है। अंग्रेजी शिक्षा काबिल से ज्यादा सफल होने पर जोर देती है और इस चक्कर में विद्यार्थी, मूल स्वभाव से यांत्रिक होता चला जाता है। यह विद्या विनयशीलता और सहनशीलता नहीं सीखा पाती।
भारतीयों की एक बड़ी मानसिक समस्या है, बच्चों को उच्च अंग्रेजी माध्यम में पढ़ा कर आशा भारतीय व्यवस्था वाली करते हैं। त्याग, सेवा, सम्मान की अपेक्षा करते हैं, जिससे अंत में निराशा ही हाथ लगती है। हमारा स्वभाव है हम फल (लाभ) तो वैदिकी चाहते हैं लेकिन विधि या माध्यम अंग्रेजी रहती है, अब जिस विधि का प्रयोग होगा उसी के अनुरूप ही परिणाम होगा। बबूल के पेड़ को लगा कर आम तो नहीं प्राप्त कर सकते।
आज का शिक्षा स्वरूप उपार्जन मूलक है जो कभी ज्ञानमूलक था। अंग्रेजों के समय नया वाक्य आ गया ‘अर्थकरी च विद्या’, अर्थात जो धन प्राप्त कराये वही विद्या है। चरित्रबल, आत्मबल, नैतिक बल की जगह नया सिद्धात आ गया “तुम्हारे जीने से अगर मैं मरता हूं तो तुम मर जाओ जिससे मैं जीवित रहूं।”
आज काले अंग्रेजों ने मैकाले को देवी सरस्वती का स्थान दे दिया है। हमारे पास इतना समय नहीं था या आज भी हमें इससे कोई मतलब नहीं है कि हम यह जान लें कि जिस मैकाले को संस्कृत भाषा नहीं आती थी, जिसने “ब्रह्म और ब्राह्मण” को मिला दिया उसे ही भारतीय ज्ञान का पितामह मान कर उच्च शिक्षित रायचंद और ज्ञानचंद भारतीय ज्ञान परम्परा को गलत बताकर लंदन के गलियों में ऐसे खोये कि उन्हें जगाने के लिए JNU में 2005 में कंडोम की 10 वेंडिंग मशीने लगानी पड़ी क्योंकि शिक्षा का द्वार अब सेक्स की गाड़ी चढ़ आने वाला था।
आज आत्मनियंत्रण और आत्मानुशासन की बात भी मत करिए वरना लेने के देने पड़ जायेंगे। नीति, नैतिकता, चरित्र, तप, सेवा, त्याग और समर्पण प्राचीन कहानियों के हिस्से हैं। हम सब करने को तैयार हैं सिवा अगले की पीठ से उतरने को।
नोट: प्रस्तुत लेख, लेखक के निजी विचार हैं, यह आवश्यक नहीं कि संभाषण टीम इससे सहमत हो।
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