लालू यादव चारा चोरी में कसूरवार पाये गये हैं, लालटेन की रोशनी कमजोर होती जा रही है। मुलायम सिंह यादव की उम्र हो चुकी है, अब उनकी अखिलेश भी नहीं सुनते तो जनता कैसे सुनेगी।
मायावती सक्रिय राजनीति से लगभग दूर हैं, उन्हें अगले राष्ट्रपति की दौड़ में सबसे आगे माना जा रहा है। बाल ठाकरे, रामविलास पासवान और शिबू सोरेन के चले जाने से राजनीति में कुछ कमी महसूस हो रही है। सोनिया गांधी, प्रकाश सिंह बादल और ओमप्रकाश चौटाला की भी चुनावी उम्र हो चुकी है।
राजनीति ने भी सेक्युलर की ओर पीठ और राष्ट्रवाद की तरफ मुँह कर लिया है।
मुस्लिम 370, NRC, तीन तलाक और हिज़ाब के लिए कितनी बार सड़क पर उतरे। उसे भी राजनीति में जमीन खिसकती नजर आ रही है, वह भारत में निर्णायक मूड़ में खड़ा है।
ओवैसी, चंद्रशेखर और हार्दिक पटेल अपने लिए नई राजनीति संभावनाएं देख रहे हैं, वहीं पर केजरीवाल की हसरतें बढ़ी-चढ़ी हैं। सिद्धू की तरह वह भी पंजाब के CM का सपना देख रहे हैं।
ममता बनर्जी बंगाल में पुनः सफल रही हैं। किन्तु समस्या यह है कि विपक्ष के नेता के रूप में राहुल गांधी एक नये राजनीतिक गुरु के लिए रोज गूगल करते तो हैं लेकिन लौटकर सेक्युलर के बाड़े में घुस जाते हैं।
नरेंद्र मोदी एक मजबूत नेता हैं जिनकी स्थिति गुजरात वाली ही है जो राजनीति को विपक्ष विहीन करने में सफल रहे हैं।
राजनीति में एक बिलबिलाहाट है, परम्परागत राजनीति में जाति वर्ग के समीकरण पर राष्ट्रवाद की लहर चल पड़ी है। परिवारवादी से लेकर अल्पसंख्यक तुष्टीकरण की राजनीति हवा-हवाई हो गयी है।
लाल, हरी और गोल टोपी पहनाने को नेता आतुर हैं। विकास और रोजगार की संभावना भारतीय लोकतंत्र के साथ चलती रही है। चुनाव के समय वादे और दावे बढ़े-चढ़े तो हैं किंतु यही आलम चुनाव दर चुनाव होता है। चुनावी आकांक्षा, महत्वाकांक्षा का विस्तार है। नाम सेवा का, बाकी सब व्यापार है।