दुनियां में मूर्ख अधिक की प्रेमी? झूठे अधिक या व्यापारी? मनुष्य के साथ मनुष्य क्यों छल, कपट दुराग्रह करता है? विज्ञान के आविष्कार हैं, भगवान के विश्वास हैं, फिर भी हमें जो बनना चाहिए वो कभी नहीं बन पाये।
राम, कृष्ण, गीता, रामायण सजाये हैं फिर भी अपने को ही न पहचान पाये। विज्ञान पर विचार की जरुरत सबसे ज्यादा है। भगवान को लोग मानने का दावा करते हैं फिर किस्मत को दोष क्यो लगते हैं? बुद्धि भी एक सीमा के बाद साथ छोड़ देती है। क्या कोई किसी को प्रेम करता है? या दुनियां में सब काम निकालते हैं।
पुरुषों में काम नहीं होता तो क्या नारी को जीवित रहने देता ? क्या पशुओं के साथ नहीं बांध देता ? किन्तु वही तो पुरुष को जनती है। प्रकृति ने बचा लिया नारी को जानवर बनने से नहीं तो पुरुष इससे अधिक तो दर्जा नहीं देता। जबकि दोनों एक दूसरे के पूरक हैं जीवन रूपी गाड़ी के दो पहिये ।
हम लोग छोटी सोच, सीमित दायरा होने के कारण वास्तविकता नहीं देख पाते हैं क्योंकि आगे रिश्ते वैसे नहीं रहेंगे जैसे चलते आ रहे थे। मनुष्य के रिश्ते नई सदी आते – आते इतने बदल गये कि जितने 6000 साल में नहीं बदले थे। स्त्री – पुरुष सम्बन्ध भी इतने बदले कि जितने 1500 साल में नहीं बदले थे। दावा सब का है कि मै न बदलूँगा फिर वही, वही नहीं रहते हैं।
मैं मनुष्यता की वैज्ञानिकता की बात करता हूं जो इनर इंजीनियरिंग से अंदर सब ठीक कर दे, जो चल रहा है, जो भाग रहा है जो दौड़ रहा है। ये देखा जा सकता है कि पति, पत्नी, माँ, पिता, पुत्र, पुत्री, समाज और लोग, परिवर्तन के खिलाफ कौन हिम्मत दिखायेगा? लोग टेस्ट बदल – बदल के रिश्ते का मजा लेना चाह रहे हैं लेकिन रिश्ते मजे लेने के लिए नहीं हैं।
मानसिक थकावट हर जगह महसूस हो रही है, कुछ नया तो चाहते ही हैं पर कैसे? इस सोच का अभाव है। कितना भी हम रोक ले, पुराने को बनाने की कवायद चलाये फिर भी नये की अदावत नहीं रोकी जा सकती क्योंकि परिवर्तन तो हो के रहता है।
मनुष्य को आनंद की तलाश है जैसा वह जानता है। मनुष्य को जन्म कौन देता है? काम, स्त्री, पुरूष, अन्न या ईश्वर? सच कैसे पता लगे? दावा तो सब कर रहे हैं हमारे पैदा होने की, सोने की, काम की, नींद की, स्पर्श की, माँ से पूर्व बच्चा तीन महीने पिता में रहता है। क्या न्यूटन से पूर्व पेड़ से सेब नहीं गिरते थे? चिंतन आपको को वहाँ पहुचा सकता है जहाँ आप पहुँचना चाहते हैं।
हम भूख से अधिक का विचार नहीं कर पाते हैं। मनुष्य के मन और मस्तिष्क दोनों के तार खुलने चाहिये, वह सिर्फ वही न देखे जो देखना चाहता है। ये वह विचार है जो मानवता को ऊर्जा देगें।
आइये समझते हैं हम कैसे द्वंद में फंस जाते हैं? क्यों मूल को नहीं समझ पाते है? शरीर और आत्मा का भेद क्या है?
उसे जो नहीं जानता वह उसे जानता है। जो उसे जानता है वह उसे नहीं जानता। जो स्वयं को ज्ञानी मानते हैं वह उनकी समझ में नहीं आता है, जो स्वयं को ज्ञानी नहीं मानता वह उसके समझ आता है। किसकी इच्छा से मन चलता है? किसकी इच्छा से प्राण हलचल करता है? किसकी इच्छा से इस वाणी में शक्ति है?
कौन आँखों और कानों को उनके कार्यों की प्रेरणा देता है? कौन है वह जो आग जलाता और वायु बहाता है? श्रवण का श्रवण, मन का मन, वाणी की वाणी, प्राण का प्राण कौन है? जिससे बिना वाणी बोल नहीं सकती है बल्कि जिसके द्वारा वाणी बोलती है।
सूर्य और चंद्र को उगने की चिड़िया को चहकने की प्रेरणा कौन देता है? वह कौन था जो नींद में भी सक्रिय था? किसके कारण नींद में भी सारी इंद्रिया सक्रिय हैं। यह चेतना तुम स्वयं हो, आत्मा अर्थात ब्रह्म हो। अज्ञान, अहंकार और अंधकार के बाहर आओ। तुम विचार करो।
स्वयं को पहचानो, उस निर्माता की श्रेष्ठ रचना हो तुम जो स्वतंत्र बुद्धि से सब का चिंतन कर सकता है।
Adbhud
Prabhu ki ejajat ke bina sab shunya h ngany h ap ne jo bi likha bilkul satya bahut sundar.👌