भारत में एजेंडावादी लोग बहुत प्राचीन समय से रहे हैं। उनका एक ही ध्येय रहा है कि कैसे भी करके सत्ता मिल जाये। दलित, अल्प संख्यक, पिछड़ा, आरक्षण उसी के हथकंडे हैं। लोकतंत्र खत्म कर दीजिए यह एजेंडे स्वयं समाप्त जायेंगे।
एक अपराधी को दिल्ली से बादा पहुँचाने मीडिया का पूरा गिरोह चला, वही मुख्तार का भाई लोकतंत्र को बचाने की बात कह रहा है उसके लिए जिसके ऊपर 18 मर्डर, दंगा, वसूली, जानलेवा हमले जैसे संगीन आरोप चल रहे हैं। अपराधी का राजनीतिकरण उसमें भी साम्प्रदायिकरण करके एक तबके को वोट बैंक दिख रहा है।
लोकतंत्र में स्मरण शक्ति बहुत छोटी होती है, विपक्ष में रहते हुए पार्टी की जो मांग होती है, सत्ता में आते ही उसी मांग को खारिज किया जाता है। ममता बनर्जी कभी लोकसभा में NRC की मांग करती थीं जब तक वामपंथ पश्चिम बंगाल में सत्तासीन था लेकिन सत्ता पाते ही आज विरोध में हैं। यही ममता बनर्जी एक समय चुनाव आयोग से मांग की थीं कि बंगाल का चुनाव कई चरणों में कराये जाय जबकि आज सत्ता में होने पर चुनाव कई चरणों में होने पर बिलबिला रही हैं।
बंगाल और केरल के चुनाव पूरे भारत से बिल्कुल अलग होते हैं, इसमें हिंसा का बोलबाला रहता है, मतदाता को सत्ता पक्ष से डराया जाता है और कुछ कार्यकर्ता तो मारे जाते है.. आदि.. आदि।
इन सबके बाद दिल्ली में बैठा लुटियंस गैंग विक्टिम का नैरेटिव बनाता है उस विक्टिम में ममता, लालू, मुख्तार, नक्सली और भटके हुए आतंकवादी भी हो सकते हैं। वही सेना बलात्कारी बन जाती है लेकिन दिल्ली वाले बौद्धिक चाचा सुकमा में हुये कांड पर मनमोहन बन गये हैं। अभी वह मुद्दें खोज रहे हैं, प्रकट होंगे जब कुछ महिला, दलित, सवर्ण आदि का विषय मिलेगा। यह पूरा खेल एजेंडे का है।
पिछले दिनों एससी/एसटी एक्ट के फर्जी केस में 20 सजा की सजा काट चुके विष्णु का मामला आया जिस पर न्यायपालिका के मिलार्ड तक निष्क्रिय बन गये तब बौद्धिक एजेंडवादी कैसे मुँह खोले?
कुछ विषय ऐसे हैं जिस पर लोकतंत्र मौन है जैसे :
• चुनाव में जो इतना धन बर्बाद किया जाता है उस पर रोक कैसे लगे?
• आरक्षण अभी कितनी पीढ़ी तक?
• पुलिस सुधार कब? आदि
सार्वभौमिक शिक्षा अर्थात सभी को शिक्षा का अधिकार देश को ले डूबेगा क्योंकि शिक्षा से अर्थ ही गलत लिया जाता है। भारत में शिक्षा से मतलब संस्कार से है न की उपार्जन से। आधुनिक शिक्षा का दुष्प्रभाव यह है कि पहले तो सभी को रोजगार चाहिए और दूसरा भ्रष्ट्राचार की स्वीकार्यता मिल गई है। नेताओं को आशा रहती है कि समाज जितना विखंडित होगा, राजनीतिक राहें उतनी रपटीली हो जाएँगी।
नोट: प्रस्तुत लेख, लेखक के निजी विचार हैं, यह आवश्यक नहीं कि संभाषण टीम इससे सहमत हो।
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