रामेश्वरम और दक्षिण भारत की यात्रा – भाग ३

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Dhananjay Gangey
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रामेश्वरम और दक्षिण भारत की यात्रा – भाग २ से आगे …

कन्याकुमारी दर्शन और वापसी :

कन्याकुमारी में कन्याकुमारी माता का मंदिर, समुद्र में विवेकानन्द रॉक, कन्याकुमारी माता के पद चिन्ह,  और तिरुवल्लुवर की मूर्ति है जहां स्टीमर से जाना पड़ता है। लेकिन कभी स्वामी विवेकानन्द यहां तैर कर गये थे। यहां का समुद्र घाट रामेश्वरम की तरह न होकर गहरा और बहाव तेज लिए हुए है। यही पर तीन समुद्र हिंद महासागर, बंगाल की खाड़ी और अरब सागर का मिलन होता है।


यहां की सबसे बड़ी विशेषता है उगते सूर्य नारायण की छवि जिसे देखने के लिए रोज हजारों यात्री आते हैं। सूर्य निकलने से पहले ही कैमरा, मोबाइल लिए चित्र खींचने के लिए उत्सुक दिखते हैं।

यहां समुद्र स्नान करके हम भी मंदिर में दर्शन के लिए आगे बढ़े। मंदिर में दर्शन करते समय प्रयाग के एक बाबा जी मिल गये जिनसे बातों – बातों में मंदिर दर्शन में लगने वाले समय का पता नहीं चल पाया। धर्म के विषय पर चर्चा करते हुए कब माता जी विग्रह आ गया, पता ही नहीं चला।

मंदिर दर्शन के पश्चात नारियल पानी और गन्ने के रस से भेंट हुई और मंदिर के निकट ही एक मारवाड़ी भोजनालय में लगभग 10 दिन बाद उत्तर भारतीय भोजन मिला जिसके स्वाद में अपनापन आया।

एक बार पुनः नेपाल की याद आई जब पशुपति नाथ के दर्शन को गये थे। वहां भी सहयात्री विनय ही थे। हमारे लिए शुद्ध शाकाहारी भोजन मिलने की कठिनाइयों के बीच वहां पर भी एक मारवाड़ी महानुभाव का भोजनालय मिला था। मारवाड़ियों के व्यापार को छोड़ दिया जाये, तब भी वे एक प्रकार से शाकाहारी भारतीयों की उत्तम सेवा अन्न के माध्यम से करते हैं।

यह भारत का दक्षिणतम भू-स्थल है, यहां से प्रयाग लगभग 3000 किमी दूरी पर है।

दिन में ही केरल की राजधानी तिरुवनंतपुरम में स्वामी पद्मनाभ मंदिर के लिए यात्रा शुरू हुई। केरल और तमिलनाडु में अंतर दिखाई दिया, यहां की बसे तेज थीं जिनमें लगातार बजते गाने से मुक्ति भी मिली। थोड़ा अधिक आधुनिक और तमिलनाडु की अपेक्षा प्राकृतिक वातावरण अधिक सुंदर था।

पद्मनाभ स्वामी मंदिर भगवान विष्णु को समर्पित है, यह भारत के धनाढ्य मंदिरों में से एक है। सुंदर नक्काशी है। मंदिर के दर्शन में दक्षिण भारतीय परम्परा के अनुसार ही “दीपक” का प्रयोग होता है। मंदिर की एक और विशेषता यह है कि पुरुष और महिलाओं का प्रवेश भारतीय पोशाक धोती में होता है, धोती भी एक रंगी होनी चाहिए, इसके लिए मुझे दो बार कतार से निकलना पड़ा था और पुनः नई धोती लेनी पड़ी तब जाकर प्रवेश मिला। जल्द ही भगवान के दर्शन हो गये।

यहां भगवान का विग्रह बहुत सुंदर है, ऐसा लग रहा था कि जैसे सजीव विष्णु भगवान निद्रा में लेटे हुवे हैं। दर्शन से मन नहीं भरा किन्तु दुबारा दर्शन की प्रक्रिया लम्बी थी। साथ ही हम लोगों की आगे की यात्रा भी लम्बी थी।

आपने कभी मंदिरों पर विचार किया है कि जब लोग मिट्टी के छोटे घरों में रहते थे तब इतने भव्य मंदिर बनाने का क्या प्रयोजन था? मंदिर बनाने में मनुष्य की काया को ही आधार माना जाता है। पंच महाभूत और स्वयं को समझने के लिए ध्यान की प्रक्रिया के लिए भूमि के उन स्थलों का चयन किया जो जाग्रत ऊर्जा के केंद्र थे। कभी यहां ध्यान लगा कर देखिये दिव्य ऊर्जा (ईश्वर) से जुड़ने को मिलेगा।

यहां से आगे के लिए गुरुवायुर मंदिर का दर्शन करना था, यह मंदिर त्रिचूर जिले में है जिसे केरल की सांस्कृतिक राजधानी कहते हैं। हम सुबह 2:30 पर पहुंच गये लेकिन रुकने के लिए होटल नहीं मिल पाया। कई होटल में जाने के बाद पता चला कि आचार्य श्री श्री रविशंकर के कार्यक्रम चल रहे हैं। छोटा शहर है और लोग अधिक संख्या में आ गये हैं इस लिए रूम उपलब्ध नहीं है।

कुछ देर बाद बस हम स्टैंड वापस आ गये जहां से मंदिर के लिए बस मिल गयी। सुबह 4:30 बजे मंदिर पहुंच गये। रास्ते भर एक अयप्पा भक्त तरह – तरह की महिमा और कथाएं बताता रहा।

हम वहीं मंदिर में नहा कर कपड़े बदले फिर दर्शन करने के लिए भक्तों की कतार में लग गए लेकिन इस बार थकान हावी हो चुकी थी।

यहां मंदिर में विवाह संपन्न होते हैं। नव-विवाहित जोड़े भगवान के आशीर्वाद की प्रतीक्षा में थे। गजराज (हाथी) भी आरती में सम्मिलित होने के लिए मंदिर की ओर लाये गये थे। सुबह 5 बजे से कतार में लगे – लगे 11:30 बज गया था।

अभी आदि गुरु शंकराचार्य के जन्म स्थान “कालटी” भी जाना था और आज रात्रि में ही प्रयाग के लिए ट्रेन पकड़ने हेतु वापस एर्नाकुलम भी। कतार बिल्कुल रुकी सी थी, लगा दर्शन नहीं हो पायेगा। यहीं संयुक्त अरब अमीरात से आयी ब्राह्मण कन्या से केरल के सामाजिक जीवन और राजनीतिक जीवन पर चर्चा हुई।

11:45 पर कतार में तेजी आयी और 12:50 तक मंदिर में प्रवेश मिल गया। मंदिर के लिए कथा है कि जब द्वारका नगरी भगवान कृष्ण समुद्र को वापस करने लगे उस समय भगवान के बाल स्वरूप के विग्रह को देव गुरु बृहस्पति और वायु देव ने द्वारका से लाकर यहां स्थापित किया था।

दक्षिण की द्रविड़ शैली में इस पर केरल का भी प्रभाव है जो त्रावणकोर के राजाओं द्वारा बनवाया गया था।

भगवान के वंदन के लिए कथकली नृत्य भी चल रहा था। भारत मुनि के द्वारा व्याख्यित नृत्यों में भरतनाट्यम, कथकली और यक्षगान तीनों शास्त्रीय नृत्य इन तीन राज्यों में देखने को मिला।

मंदिर दर्शन के साथ ही अब कालटी गांव पहुंचने की जबरदस्त अभिलाषा थी, लगा कि यदि इस बार नहीं पहुंच पाये तो दुबारा पता नहीं कब आगमन हो पाये। आचार्य शंकर में अपार श्रद्धा होने से आखिरकार उनकी जन्मभूमि पहुंच गये।

गांव के बाहर संस्कृत का विश्वविद्यालय स्थापित है। उनका घर पूर्णा नदी के तट पर है इसी नदी में बालक शंकर ने अपनी माता से नहाते समय कहा था माता जी उन्हें ग्राह (मगर) ने पकड़ लिया है और कह रहा है कि सन्यासी बन जाओ तभी छोडूंगा। मां समझ गईं कि बच्चे का मन है कि इसे 8 वर्ष में सन्यासी बनना है।

मां ने बाल शंकराचार्य के मन को समझ कर सहमति दे दी लेकिन शंकर से एक वचन लिया कि उनके आखिरी समय में वह जहां कहीं भी हों उनके पास आयेंगे। आचार्य शंकर को साक्षात शिव का अवतार कहा जाता है।

जिस प्रकार भगवान राम ने भारत का आर्यीकरण किया था, आचार्य शंकर ने उसे एक सांस्कृतिक सूत्र में संगठित कर दिया। पुनः लुप्त हुए धर्मग्रंथों को प्रकट किया। अपने दर्शन अद्वैतवाद के कारण आस्तिक दर्शन को ऊँचाई तक स्थापित किया। 2000 सालों में भारतीय दर्शन उनकी पुनरुक्ति भर करता रहा है। ‘अहम् ब्रह्मास्मि’ कहने का सामर्थ्य किसी में न आ पाया। यहां आकर बहुत आनंद आया।

वापसी में हम त्रिचूर से कोच्चि आए और वहां से कोच्चि मेट्रो के माध्यम से एर्नाकुलम रेलवे स्टेशन पहुंच गए। थकावट ऐसी थी किसी बस लग रहा था कहीं लेटने को मिल जाए।

पिछले कई दिनों धर्म, संस्कृति के साथ भारत में स्वयं को खोजने की यात्रा चलती रही, भगवान के दर्शन और उन मंदिरों तक पहुंचे जिनकी कहानियां बचपन से सुनी और पढ़ी थी। स्वयं को आज इतना भाग्यशाली माना जैसा कोई न था। यह भी डर लगा कि अब ईश्वर से विरह हो जायेगा और फिर से उसी प्रपंच शील जीवन की शुरुआत हो जाएगी जो अभी ट्रेन के साथ ही चलने लगेगा।

ईश्वर को तर्क और बुद्धि से नहीं जान सकते हैं, वह तो श्रद्धा और अनुभूति का विषय है। मेरा अभी क्या छुटा क्या आप समझ सकते हैं? मन की गहराई में जाकर इतने आंसू झर रहे हैं जैसे लगता है उनके लिए बहुत जोरों से रोऊँ।

अब खाना खाकर अपने को वापसी के सफर के लिए तैयार करना था लेकिन 8 बजे मालूम हुआ कि एसी क्लास-टू के आरक्षण टिकट की 2-3 वेटिंग अब 1-2 पर रुक गयी है। अब क्या हो? प्रयाग के लिए रोज ट्रेन न थी। 2600 किमी की दूरी कैसे तय हो?

तत्काल माध्यम से दूसरी ट्रेन में अगले दिन का तिरुपति से टिकट मिला जो ट्रेन बंगलुरू से चली थी। अब एर्नाकुलम एक्सप्रेस के जनरल बोगी में रात भर संघर्ष करना था। चढ़ने की भीड़ में हम और विनय अलग  हो गये। फोन करने पर विनय का मोबाइल नम्बर ऑफ बता रहा था। मुझे ऊपर की सीट मिल तो गयी लेकिन विनय के पास ही मेरा बैग रह गया, मेरे पास पानी की बोतल भर थी। थकावट ऐसी थी कि जैसे ही लेटे, सो गये और जब मोबाइल की घंटी बजी तब पता चला कि विनय इसी डिब्बे में आगे हैं।

सुबह 7 बजे उठकर विनय के पास पहुंच गये। 11 बजे तिरुपति स्टेशन आया। वेटिंग रूम में नहा धो कर फ्रेश हुए तब जाकर पुराना शरीर वापस मिला। स्टेशन से बाहर जाकर कुछ खाने को लिया और चाय की चुस्की ली जो दक्षिण भारत के यात्रा की हमारी आखिर चाय थी। आगे के लिए तैयार हो गये। ट्रेन बदले और जब एसी सेकंड क्लास में जब बर्थ मिल गया तब जान में जान आयी क्योंकि अभी 38 घण्टे का सफर बाकी था।

केरल में एक विशेष बात जो दिखी कि वहां इस्लाम और इसाई धर्म का बोलबाला है। इसाई को पैसा अमेरिका और यूरोप से आ रहा है जबकि मुस्लिमों का अरब देशों से। केरल का काफी हद तक अरबी करण कर दिया गया है। कई ऐसे मुस्लिम बाहुल्य जिले मिले जहां हर एक किलोमीटर पर बड़ी – बड़ी मस्जिदें बनी थीं। PFI नामक चरमपंथी संगठन का यहीं से संचालन होता है। CAA के विरोध में रास्ते भर सभाएं चल रहीं थीं।

इसाईयों की संख्या केरल में पर्याप्त है किंतु मुस्लिम ताकत के सामने हिंदू और इसाई लड़ाई में कहीं नहीं हैं। यहां मुस्लिम आर्थिक रूप से भी बहुत मजबूत हैं।

इसाइयों का आलम यह है कि धर्मांतरण का पूरा खेल जोरों पर जारी है। गांव – गांव में छोटे – छोटे चर्च मंदिर की तरह बनाये गए हैं, उसमें मरियम और यीशु की फोटो लगी है। महिलाएँ हिंदू तरीके से मोमबत्ती से आरती करती हैं। भारत की रक्त बहाती राजनीति, सेकुलरिज्म और गंगा-जमुनी तहजीब वाले मजाक पर बहुत क्रोध आया।

सनातन धर्म और ऋषि मुनियों की भूमि पर इसाई और मुस्लिम फल फूल रहे हैं यहां तक भी ठीक है लेकिन वह अबाध धर्मांतरण भी कर रहे हैं।

बड़े चर्च के सामने गरुण स्तम्भ पर क्रॉस का निशान लगा कर वह यीशु को कृष्ण की तरह दिखा रहे हैं वह भी श्री श्री 1008 चोगा पहना लिया गया है। हिंदू आकार दिखा कर गरीबों को भ्रमित कर अपने में
शामिल करना उद्देश्य है।

यात्रा में राजनीति की काफी बातें अब यादें रह गयी हैं और हम प्रयाग पहुंच गए हैं। दक्षिण भारत से बहुत कुछ सीखने को भी मिला है।


नोट: प्रस्तुत लेख, लेखक के निजी विचार हैं, यह आवश्यक नहीं कि संभाषण टीम इससे सहमत हो।

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