भारत में कम्युनिस्ट को वामपंथ या वाममार्ग का पर्याय माना जाता है। सनातन परंपरा सभी को अधिकार देती है कि वह अपना उत्थान कर सके। सत्य का ऐसा दावा नहीं करती कि एकमात्र सत्य उसके ही विचार, नीतियां और धर्म हैं, बाकी सभी झूठे हैं।
जिन्हें सनातन व्यवस्था मूल रूप में नहीं पसंद है वह दूसरे रूप में आजमा सकते हैं। हम नास्तिक उसे मानते हैं जिनका वेदों पर विश्वास नहीं है, नास्तिकता का ईश्वर से कोई लेना देना नहीं है।
भारत में सुधार, विरोध या वाममार्ग के हिमायती लोकायत, चार्वाक, वृहस्पति, वात्सायन, भाग्यवादी मोक्खलि गोशाल, घोर अक्रियावादी पूर्णकस्यप, उच्छेदवादी (भौतिकवादी) अजितकेस कम्बलिन, नित्यवादी पकुघकच्चायन, संदेहवादी (अज्ञेय या अनिश्चयवादी) संजय बेलदुपुत्र, यह सब बुद्ध और महावीर से पूर्व हुये। लेकिन ये आंदोलनों से आकर बदलाव करने में असफल रहे क्योंकि इनके मानने वाले बुद्ध और महावीर को भगवान नहीं बना पाये।
भारत विचारों को लेकर कभी संकीर्ण नहीं रहा है। भारतीय दर्शन के वो सम्प्रदाय जो वेद पर तो विश्वास करते हैं किन्तु ईश्वर को न मान कर एक प्रकार से प्रकृति में आस्था व्यक्त लरते हैं। जैसे कपिल का सांख्य दर्शन और गौतम का न्याय दर्शन।
आप यह जरूर सोच सकते हैं कि यह सनातनी विचार नहीं है, किंतु समग्र दृष्टि में देखेंगे तो यह सनातन के मूल विचार तक पहुँचने के व्यक्तिपेक्षित सिद्धांत हैं, जिसमें व्यक्ति की उन्नति सृष्टि और शक्ति का वर्णन निहित है।
अधकचरे ज्ञान और उसपर विचार से समाज में समस्या पैदा होती है, जिसमें स्वार्थ निहित होते हैं और व्यक्ति को भ्रमित किया जाता है। जैसे कि ओवेन का समाजवाद, फिर मार्क्स का वैज्ञानिक समाजवाद जिसे कम्युनिज्म कहा गया, जो वर्ग संघर्ष अर्थात हिंसा आधारित समाज की बात करता है।
यह विचार शुरू में बहुत अच्छे लगते हैं किंतु अधिनायक वाद की तरफ मुड़ कर जिस पूँजीवाद का यह विरोध करतें हैं, आगे चल कर स्वयं ही घोर पूँजीवादी हो जाते हैं, जिसमें सिर्फ चंद लोगों को सर्व समाज का नियंता बना दिया जाता है।
कम्युनिस्ट विचार को उलट – पुलट कर देखिये साथ ही इसके इतिहास पर गौर करिये तब पता चलता इस एक विचार के कारण करोड़ो लोग मारे गये। इसके साये में दो विश्व युद्ध लड़े गये लेकिन शांति फिर भी नहीं हुई। विश्व की खेमेबंदी शीत युद्ध में की गई जो 47 वर्ष तक चली। आज भी इसके प्रयोग से लुभावने समाज के चक्कर में लोग मारे जाते हैं।
सनातन व्यवस्था आप को सदा दो मार्ग देती है, एक तरफ राजतंत्र तो दूसरी तरफ गणतंत्र। गणतंत्र और उसके प्रधान का वर्णन इतिहास में मिलता है जिसमें मिथिला के जनक, चेटक, मल्ल, शुद्दोधन आदि प्रमुख थे। श्रेष्ठियों (व्यापारिक) को सीमित स्तर पर स्व-व्यवस्था के लिए शासन की छूट थी। वहीं राजतंत्र में राजा निरंकुश होकर भी धर्म से अंकुश किया गया है। “प्रजा सूखे सुखं राजा” अर्थात, प्रजा के सुख में राजा का सुख निहित है। राजा घोषणा करता था कि उसके राज्य में मद्यपान करने, द्युत खेलने वाले, चोर तथा अपराधी नहीं रहते हैं।
न्याय का यह तकाजा है कि मनुष्य क्या पशु – पक्षी को भी न्याय मिलेगा। मर्यादा पुरुषोत्तम राम के राज्य में कुत्ता भी श्रीराम से न्याय की मांग करता है और रामजी उसे भी न्याय देते हैं। इसका बहुत सुंदर वर्णन बाल्मीकि रामायण में है।
यदि हम आज के लोकतंत्र या किसी और तंत्र का मूल्यांकन करें तो वह न्याय की कसौटी पर खरा नहीं उतरता। अदालतों में केस इतने लम्बे चलते हैं कि न्याय का मतलब ही नहीं रह जाता है। धर्महीन शासन व्यक्ति को भ्रमित और असंतुष्ट करता है जो अंततः समाज के लिए घातक बनता है।
नोट: प्रस्तुत लेख, लेखक के निजी विचार हैं, यह आवश्यक नहीं कि संभाषण टीम इससे सहमत हो।
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