आखिरकार अफगानियों का आखिरी किला पंजशीर भी ढह ही गया। कार्यकारी राष्ट्रपति सालेह ने देश छोड़कर ताजिकिस्तान में पनाह ली है। अब बस नार्दन आलाइन्स के अशद का छिटपुट प्रतिरोध बचा है, उन्होंने कहा है कि वह आखिर सांस तक लड़ेंगें। पाकिस्तान ने जब देखा पंजशीर में तालिबान असफल हो रहा है, उसे भारी क्षति पहुँची है, उन्होंने पंजशीर के साथ ही हक्कानी नेटवर्क का दबदबा तालिबान पर बना दिया है।
पिछले दिनों की हुई गोलाबारी में तालिबान प्रमुख बरादर गोली लगने से घायल है, जिसका इलाज अनजानी जगह पर चल रहा है। अफगानिस्तान पर विदेशी समुदाय, खासकर अमेरिका का रुख बौद्धिक लोगों की समझ से बाहर रहा है। बाइडेन को तालिबान और हक्कानी में क्या ‘गुड’ दिखा है। अलकायदा और ISIS में ‘बैड’ इस लिए दिखा क्योंकि इनके द्वारा अमेरिका को चुनौती दी जा चुकी है।
अफगानिस्तान में वैश्विक आतंकवाद की सबसे बड़ी फैक्ट्री बन रही है। पाकिस्तान और चीन का सहयोग तालिबान को इस लिए प्राप्त है क्योंकि उन्हें भारत को अस्थिर करना है।
वर्तमान में भारत की स्वयं की नीतियां उसके लिए आत्मघाती हैं। अफगानिस्तान मामले में मोदी जी ने जो रुख अपनाया है वह बिल्कुल नेहरू जी से मिलता-जुलता है। भारत की गुट निरपेक्षता अभी जारी है।
नार्दन आलाइन्स को विश्व समुदाय से, खासकर भारत से बड़ी उम्मीद थी लेकिन भारत का लोकतांत्रिक इतिहास कहता है कि भारत ने अपने मित्रों का साथ कभी नहीं दिया है। मात्र इंदिरा गांधी का बंगलादेश की मुक्तिवाहिनी बनने को छोड़कर।
तालिबान, पाकिस्तान और चीन के साथ मिलने पर नार्दन आलाइन्स अकेले कब तक प्रतिरोध करता है, यह देखने वाली बात होगी। नार्दन आलाइन्स विश्व समुदाय और भारत से बार-बार अपील करता रहा लेकिन अमेरिका का हित भारत के लिए सर्वोपरि रहा।
भारत अपनी आंतरिक राजनीति में ही अधिक उलझा रहा है जैसे पड़ोस में कुछ हो ही न रहा हो। मुफ्त के अनाज की बंदरबाट, ओबीसी आरक्षण विधेयक और हिंदु-मुस्लिम के पागल प्रेम प्रलाप में अभियान जारी है। भारत की कुटिनीति बिल्कुल भारत के पति-पत्नियों जैसी है, ‘दिन भर गहमा-गहमी, रात में मान मनौव्वल।’
विदेश नीति में दूरदृष्टि अधिक नहीं है उसका एक कारण यह भी है कि भारतीय लोकतंत्र में रोज ही कहीं न कहीं चुनाव की तैयारी ही होती रहती है।
स्वस्थ्य नीति और मजबूत नेतृत्व के अभाव में भारत जैसा सम्पन्न देश आज कायर बना हुआ है। यहाँ सेना का मतलब बहुत ज्यादा नहीं है, उनका कार्य है अपने को बचाते रहना। वीर योद्धाओं को कायर नेताओं द्वारा सीमित कर दिया गया है। भारत विश्व गुरु बनने का ढोंग भर रचता है किन्तु इसके पीछे कोई रचनात्मकता नहीं है।
अफगानिस्तान को बर्बरों ने जिस तरह हथियाया है, कभी मध्य काल में इसी तरह भारत के क्षेत्रों पर अवैध अधिकार होता गया। यहाँ के कुछ ही राजाओं ने मोर्चा संभाला बाकी आज की दिल्ली की तरह गुटनिरपेक्ष और पंचशील के पालन में लगे थे। उन्हें ज्यादा मतलब आंतरिक राजनीति से ही था। तभी अरबी, गुलाम, अफगान, मुगल और अंग्रेज शासक बन गये।
हम नुक्ता-चीनी में ही लगे रहे। वह उच्च हैं, वह नीच है, उसकी पत्नी ऐसी है, उसका पति ऐसा है। विदेशी शासकों ने खैरात बाटी, यह बात भारतीयों को जच गयी। वह भूल गये कि वे गुलाम हैं। जैसे ही जिसने मुफ्त का खाया उसकी बची खुची बुद्धि चली गयी। कुछ पुरस्कार और सम्मान पाने की फिराक में वह उन विदेशियों की प्रशस्ति गायन करने लगा।
आज भी भारतीयों की स्थिति में बहुत परिवर्तन नहीं आया है, अधिकांश आज भी मुफ्त पाने के लिए कतार में खड़े हैं। उन्हें देश से ज्यादा फिक्र, अधिक पाने की है।
यह वही दिल्ली है जहाँ से कभी भीष्म ने कांधार को हस्तिनापुर में शामिल किया था। आज यहाँ की अधिकांश जनता मुस्लिम होने के बाद भी इसने तालिबान और पाकिस्तान का विरोध किया लेकिन गोली के दम पर उनकी आवाज को रौंद दिया गया। यहाँ की जनता के पास ज्यादा कुछ नहीं है, आसन्न गरीबी ऊपर से मौलवियों का तालिबान को समर्थन, विरोध करने पर गोली सीधे शरीर पर लेना।
यह भारत का नकारापन है कि भारत की भूमि पर आतंकी शरिया लागू कर रहे हैं और हमें चिंता अमेरिका, रूस, चीन की है कि कहीं वे नाराज न हो जाएँ। यह अफगान भूमि हमारी है लेकिन हम मौन हैं। हमारी चिंता जातीय जनगणना और अपनी-अपनी मूर्तियां लगाने की कहीं अधिक है।
नोट: प्रस्तुत लेख, लेखक के निजी विचार हैं, यह आवश्यक नहीं कि संभाषण टीम इससे सहमत हो।
***