कांग्रेस पार्टी अपनी जड़ें खुद खोदती है, पार्टी में नीतियों को लेकर सदा दुविधा बनी रहती है, किधर पाव पसारे।
सिद्धू भाजपा से कांग्रेस में गये, कैप्टन अमरिंदर सिंह कांग्रेस के मुख्यमंत्री से भाजपा के सिपाही बन रहे हैं तो वहीं कन्हैया कुमार और जिग्नेश मेवानी जैसे कम्युनिस्ट को कांग्रेस में शामिल किया जा रहा है।
इस पूरे घटनाक्रम में कोई कह रहा है चन्नी मुख्यमंत्री बन राहुल के चरण छूकर आशीर्वाद लेते हैं, कोई अपने को सोनिया गांधी का सिपाही कह रहा है, कन्हैया कुमार कांग्रेस पार्टी को बचाने की बात कर रहे हैं, उनका कहना है कि कांग्रेस नहीं होगी तो कैसे देश विरोधी बयान देने वालों को सुरक्षा मिलेगी? मतलब ‘फ्रीडम ऑफ स्पीच’।
दौर ऐसा है जब सेक्युलर विचार की राजनीति, राजनीतिक मूल्य खो चुकी है, खोने का कारण है कि पूरे सेक्युलरिज्म का तामझाम मात्र हिन्दू संस्कृति के लिए ही है। मुस्लिम या ईसाई पर वह वोट की खातिर मौन हो जा रहे हैं। कांग्रेस का दोहरा मापदंड ही आज भाजपा की शक्ति बन गया है।
कांग्रेसी का आलम मुस्लिमों वाला है, जैसे मुस्लिम मध्यकाल से नहीं निकलना चाहता है वैसे ही कांग्रेस अपने गोल्डन एरा वाले परिवार से।
कांग्रेस और सेक्युलर जमात की कल तक जो ताकत थे, भाजपा उन्हें ही हथियार बना कर अपने लिए राजनीतिक बिसात पर वोट इकट्ठा कर रही है। कांग्रेस की मूर्खता देखिये, कैप्टन को किनारे कर सिद्धू को कार्यकारी कप्तान बनाया, किन्तु सिद्धू की मंशा तो खुद कैप्टन बनने की थी, अंततः उन्होंने छुब्ध होकर कार्यकारी कप्तान का त्याग कर दिया।
कांग्रेस के कुछ नेता जैसे दिग्विजय, थरूर आदि का बड़बोलापन उनकी पार्टी के लिए बहुत खतरनाक साबित हुआ। अब वे फिर से कम्युनिस्ट कन्हैया के बड़बोलेपन पर दांव लगा रहे हैं। अब देखिए कहीं पंजाब, छत्तीसगढ़ और राजस्थान से भी साफ न हो जाएँ। कहीं 2024 में 30 सीट तक सिमट जाएँ, क्योंकि नेता की खोज जमीन पर और नीति से न कर राज से कर रहे हैं, ऐसे में राजनीति कैसे होगी। चुनाव के समय इनके स्वयं के बयान ही इन्हें पीछे धकेल देंगे।
कितना ही प्रयास करिये क्रिकेट के खिलाड़ी को राजनीति का कैप्टन नहीं बना सकते हैं। कांग्रेस नीतिगत भूलें कर रही है जिसका खमियाजा उसे चुनाव-दर-चुनाव भुगतना भी पड़ रहा है।
कांग्रेस पार्टी एक परिवार का शो रही है, जो करिश्माई व्यक्तित्व नेहरू और इंदिरा का रहा है वह सोनिया, राहुल, प्रियंका में नहीं मिलेगा। हर राज्य से बगावत की सुगबुगाहट है। फिर भी परिवार अपने रबर स्टैम्प पर ही दाव लगाए जा रहा है और जनाधार वाले नेता क्षुब्ध होकर पार्टी बदल रहे हैं। वोट बैंक की राजनीति का समय जा चुका है, जो अल्पसंख्यक कांग्रेस की ताकत थे उन्हें भाजपा ने गेम चेंजर बना लिया है। कांग्रेस का अल्पसंख्यक मोह उसे प्रशांत किशोर तक लेकर जा रहा है, कोर कमेटी को गौड़ बना दिया गया है।
देश कि एक पुरानी पार्टी अपने पुराने मूल्यों भूलकर बिना मुद्दे के चुनाव में जा रही है। लगातार मिलते हार से सबक कम लेकिन प्रतिरोध की भावना ज्यादा विकसित कर रही है।