वास्तविकता यह है कि मनुष्य अपने अलावा अन्य प्राणियों को जीव नहीं मानता है, यदि मानता तो उन्हें भोजन कैसे बना सकता है।
हमारे स्वयं के अनुभव की दो कथाएं हैं, पहली बंदर की कहानी समझें – एक बंदरिया को प्रसव पीड़ा हो रही थी। उसकी चीख सुनकर बंदर की एक टोली आई जिसमें पुरुष बंदर प्रसव स्थल से दूर रहकर कर निगरानी कर रहे थे। बंदरियों को चारों ओर से अन्य बंदरियों ने तब तक घेरे रखा जबतक वह अपने बच्चे को जन्म नहीं दे दी। कामद गिरि पहाड़ से उतरने के क्रम में मुझे बंदरों के राजा का दरबार दिखाई पड़ा। ऊपर से नीचे, सामने बंदर की रानी और बच्चे बैठे थे अगल-बगल उनकी प्रजा थी। न जाने किस विषय पर मंत्रणा चल रही थी। फिलहाल उन्होंने मुझे कोई नुकसान नहीं पहुँचाया।
दूसरा, गौरैया और बुलबुल दो ऐसी चिड़िया हैं, जो अपना घोंसला मनुष्यों के आसपास बनाती हैं। हम चिड़ियों को रोज सुबह दाना और उनके खाने की कुछ चीज डालते हैं, इस क्रम में किसी दिन दाना डालने में देर हो जाए तो उन्हें पता होता है कि ये वाला मनुष्य अपने कमरे या छत पर होगा। कौवा, किलहटी, चरखी आदि पहुँच जाते हैं, नींद से उठा कर अपनी भाषा में कहते हैं ‘चलो दाना डालो’।
हमारी गाय जिसका आज प्रसव होना था, वह बहुत पीड़ा में थी। कई घण्टे बाद भी उसका बच्चा नहीं हो पा रहा था, वह पीड़ा से कराह रही थी। अंततः एक डॉक्टर की मदद से गाय ने बच्चे को जन्म दिया। जब डॉक्टर वहाँ से जाने लगे, गाय अपनी भाषा उन्हें बुलाई और उनके हाथों को चाटने लगी। बोली तो कुछ नहीं किन्तु जान पड़ा जैसे संकेत से उन्हें बहुत धन्यवाद दी हो।
आप चाहें तो कुत्ते, बिल्ली, गाय आदि को रोटी खिलाकर स्वयं इस बात को महसूस कर सकते हैं कि यह जीव भी आप के प्रति संवेदनशील हैं। ऐसे में आप गाय, बकरी, भैंस, मुर्गी आदि जीवों के मांस खाने की वकालत कैसे कर सकते हैं? मनुष्य मांस के बगैर भी जीवन जीता रहा है। यदि आप मनुष्य हैं तब आपकी मनुष्यता दिखनी चाहिए। जीवों पर दया करिए, उन्हें भी हमारी तरह जीने का पूरा अधिकार है।
आप मनुष्य कब बनेंगे? भोजन में हिंसा त्याग कर अहिंसक बनिए, “जीवो जीवस्य भोजनम्” छोड़ जीवो जीवस्य जीवनम्” के मार्ग का अवलम्बन करना चाहिए। यही मनुष्य का धर्म है। मनुष्य होने के नाते न आप मांस खाने की इच्छा रख सकते हैं और न ही इसका समर्थन। विश्व में समानता की बात होती है, किंतु कोई भी समानता बिना दया के कैसे हो सकती है। दया विहीन समानता मात्र कुटिलता और वैमनस्यता को ही प्रश्रय देते हैं।
मांसाहार भोजन का कोई विकल्प नहीं है। मात्र आपके जिह्वा का स्वाद बदलता है, जिसके लिए हिंसा बढ़ती है और वही हिंसा हमें धर्म और समाज में दिखती है। इसीलिए आज मनुष्य मानसिक रूप से हिंसात्मक प्रवृत्ति का बनता जा रहा है।