बहकते समाज और संस्कार का अर्थ भारतीय संस्कृति के गिरते मूल्यों से है जो पीढ़ी दर पीढ़ी हमारी संतति में बढती जा रही है। आधुनिक शिक्षा जो रोजगार के खोखले दावे करती है और अंग्रेजी भी बोलती है, इससे समाज में ठसक बढ़ती जा रही है। रोजगार की सबसे ज्यादा जरूरत है तो वह नहीं है। इंजीनियरिंग और प्रबंधन की उच्चशिक्षा भी आज मजाक का पात्र बन गई है, बाकी के विषय में क्या कहा जा सकता है।
सोशल मीडिया, टेलीविजन, इंटरनेट, खुले समाज, सुखवादी, उपयोगितावादी, व्यवहारवादी और व्यक्तिपरक सोच ने आज समाज को बारूद के ढेर पर बिठा दिया है। खुले समाज में सेक्स की बात करने वाले, संभोग से समाधि की ओर ले जाने वाले मनीषियों को भूल गये, आज काम एक प्राथमिक जरूरत है जो रोज और काफी वर्षो तक चाहिए। बच्चों के मनोविज्ञान पर पोर्न काफी असर डाल रहा है। 1991 के उदारीकरण के पूर्व शायद किसी ने सुना हो कि किसी छोटी बच्ची का रेप करके मार दिया गया।
आधुनिक समय में आप यह भी नहीं कह सकते हैं कि कम पढ़े लिखे लोग रेप जैसी शर्मनाक घटनाओं को अंजाम दे रहे हैं। नेता से लेकर अधिकारी, बाबा, मौलवी, पादरी यौन शोषण और चाइल्ड ट्रैफिकिंग में शामिल हैं किंतु सफेदपोश, पावर और पैसे वाले होने की वजह से इनके सामने कानून बौने हो जाते हैं। सिर्फ एक दो मामले में सजा देकर राजनीति अपनी पीठ ठोकने लगती है।
एक मित्र जो कि शहर के बड़े इंग्लिश मीडियम स्कूल में पढ़ाती हैं, वह अपने स्कूल के पांचवी कक्षा की घटना बताईं कि एक लड़का आया और बोला मैडम यह लड़की मुझे आई लव यू बोल रही है। उन्होंने बताया कि धीरे – धीरे पता चला कि सभी बच्चे गर्लफ्रैंड और ब्वायफ्रेण्ड के खेल में शामिल हैं। अब चिंतनीय विषय यह है कि 9 – 10 साल के बच्चों को यह सीख कहाँ से मिल रही है? क्या मोबाइल, टेलीविजन इसके लिए जिम्मेदार नहीं है?
पढ़ाई हो या न हो इन छोटे या तरुण युवा पीढ़ी में GF/BF स्टेटस सिंबल बन गया है। कम उम्र के अपराध में एक ऐंगल यह भी बन रहा है। नशे की तरफ बढ़ते भारतीय युवा पीढ़ी आज रोके से नहीं रुक रही है। हालिया आई एक खबर को माने तो गांजे की खपत में विश्व में दिल्ली तीसरे स्थान पर है, एक बड़ी तादाद युवा वर्ग की इसमें शामिल है। बीयर, शराब या सिगरेट के सही आंकड़े उपलब्ध होते तो संलिप्त युवाओं के आंकड़े जरूर दिखाई देते।
नैतिकता, सांस्कृतिक मूल्य, पारिवारिक अनुशासन गायब होते गये, आज युवा पीढ़ी आधुनिक बन रही है, वैसे भी आधुनिक विचार और वामपंथी सोच इन बातों पर विश्वास ही नहीं करती है। दूसरी ओर समाज में वृद्ध होती पीढ़ी अपने बेटे – बहु से परेशान हैं। मनोविज्ञान यह भी कहता है बच्चे बुरी चीज जल्दी सीख जाते हैं। जिससे पूछिये वही बताता है समय नहीं है माता – पिता और बच्चों के लिए भी, फिर यही बच्चे बड़े होते हैं उनके पास अपने माता – पिता के लिए समय नहीं होता।
आधुनिकता के नाम पर नंगे – पुंगे बनना, अपने नैतिक मूल्यों को भूलना, समाज में बढ़ते नशाखोरो की संख्या, बिलखते माता – पिता, टूटते परिवार, दरकते रिश्ते, छोटे बच्चों से लेकर महिलाओं का यौन उत्पीड़न, इनकी जिम्मेदारी कौन लेगा? सभी या तो मौन हैं या जिम्मेदारी दूसरे पर डाल रहे हैं। राजनीतिक वजीफा पाकर सामाजिक चिंतन शून्य है।
बौना और निर्लज्ज व्यक्ति फिर से टेलीविजन के आगे बैठ जाता है …
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Verry verry nice post