मेरी दिव्य यात्रा का पड़ाव – पंढरपुर

spot_img

About Author

Dhananjay Gangey
Dhananjay gangey
Journalist, Thinker, Motivational speaker, Writer, Astrologer🚩🚩

पिछले वर्ष अप्रैल के अंत में मुझे कोरोना हुआ जो घर बैठे दवा खाने से न गया, अंत में हॉस्पिटल जाने से बस इतना समझिये कि प्राण बच गये। कोरोना का वह २० दिन बड़ा ही उबाऊ था। लग रहा था मर क्यों नहीं जाते। खैर, जीवन शेष था जो अब तक जारी है।

कोरोना के दौरान मई के महीने में एक दिन स्वप्न में भगवान विट्ठल की नगरी पंढरपुर दिखाई पड़ी। उसी दिन से स्वास्थ्य में सुधार होने लगा। अब एक नई यात्रा पर जाने का समय आ गया था। जुलाई महीने में भगवान विट्ठल की नगरी पंढरपुर की यात्रा मानो जीवन का अभिन्न अंग बन गई। हम इसे ईश्वरीय प्रेरणा मानते हैं कि २४ जुलाई को हम पुणे नगरी पहुँच गये।

महाराष्ट्र का पुणे नगर महाराज शिवाजी और श्रीमंत पेशवा की राजधानी होने के कारण प्रसिद्ध है। इसे महाराष्ट्र की सांस्कृतिक राजधानी कहते हैं। नगर बहुत खूबसूरत होने के साथ ही यहां का मौसम भी बहुत सुहावना रहता है, रात होते – होते गुलाबी ठंड हो जाती है।

पुणे का प्राकृतिक नजारा बहुत ही मनोरम है। शनिवार वाड़ा आज भी पुराने मराठा शूरवीरों की गाथा समेटे हुए है। सतारा के किले में श्रीमंत बाजीराव पेशवा से जब छत्रपति ने पूछा था कि क्या योग्यता है आपकी और क्या कर सकते हैं राष्ट्र और हिंदुपाद शाही के लिए? उस समय श्रीमंत बाजीराव की उम्र मात्र उन्नीस वर्ष की थी और कद बमुश्किल ५ फिट, वे एक छलांग में घोड़े पर बैठते हुए बोले – “मराठा पताका कटक से लेकर अटक तक फहरानी है”। छत्रपति ने कहा कि आप योग्य पिता की योग्य संतान हैं, आप अवश्य मराठों को आगे ले जायेंगे।

श्रीमंत पेशवा ने इसी शनिवार वाडे से मराठा साम्राज्य की नींव को बहुत विस्तार दिया। ३७ युद्धों में उन्होंने मुगल, पुर्तगाली, निजाम आदि को पराजित किया।

पुणे नगर पर मराठा की छाप खासकर श्रीमंत पेशवाओं का प्रभाव दिखता है। यह नगर हिंदुपादशाही का गवाह बना। यहाँ से मुस्लिम शासकों और मुगलों को चुनौती भर ही नहीं दिया गया अपितु पेंशन भी दिया गया।

पुणे महाराष्ट्र की सांस्कृतिक राजधानी है, यही संत ज्ञानदेव, तुकाराम की स्थली भी है जिनका प्रभाव महाराष्ट्र के जनमानस पर पड़ा। इसी प्रभाव के कारण महाराष्ट्र में धर्म और भक्ति के साथ – साथ राष्ट्र और स्वतंत्रता स्वराज मानसपटल पर उभरे। जिसके प्रणय गीतकार शिवाजी महाराज बने। छत्रपति के पेशवाओं ने कमाल कर दिया, दक्कन से लेकर दिल्ली और अटक तक चौथ और सरदेशमुखी वसूल की।

पुणे में शनिवार वाड़ा देखने पर मन में कौतूहल जागृत हुआ कि काश श्रीमंत पेशवा बाजीराव कुछ दिन और जी गये होते तो भारत में अंग्रेजों की बारी ही न आ पाती। शासन मुगलों से सीधा हिंदुओं के पास आ जाता। इतिहास में किन्तु – परन्तु को डगर नहीं है। इतना तो तय मानिये कि पूर्व में हम भी छत्रपति की सेना के दत्तोपंत, मोरोपंत न सही एक सैनिक जरूर रहे होंगे।

भगवान विट्ठल
भगवान विट्ठल

गणेश जी के मन्दिर ‘दगड़ूशेठ’ के दर्शन के पश्चात हम भगवान विट्ठल की नगरी पंढरपुर पहुँचे। गुनगुनी ठंड लिए हुए सुबह ५ बजे का समय था, हमने पहला काम ‘चंद्रभागा’ में स्नान किया। ‘भीमा’ नदी पंढरपुर में चंद्राकार होने के कारण यहाँ ‘चंद्रभागा’ कही जाती है।

नदी के तट से बिल्कुल लगा हुआ भक्त पुण्डरीक का मन्दिर है, यहाँ मान्यता है कि पहले भक्त पुण्डरीक के दर्शन के पश्चात ही भगवान के दर्शन होते हैं। यह भक्त पुण्डरीक वही हैं जिन्होंने अपने माता – पिता की सेवा से भगवान को प्रसन्न कर दिया था और भगवान भक्त के होकर यही रह गये थे।

भारत में एक सबसे बड़ी समस्या रही है कि लोग भाई और सम्बन्धियों के सामने नहीं झुक सकते, उसमें उनका ‘आत्मसम्मान’ समस्या करने लगता है। जैसा आज भी देख सकते हैं कि व्यक्ति ५००० रुपये की प्राइवेट नौकरी कर लेगा किन्तु भाई या सम्बन्धी के सामने न झुकेगा। यही मराठों के साथ हुआ। राजपूत, जाट और सिखों का कोई सहयोग नहीं मिला, जबकि वहीं पर मुस्लिम नबाब हिन्दू राजाओं को हराने के लिए दीन के नाम पर एक हो जाते थे।

यहाँ पर चंद्रभागा का तट बिल्कुल काशी के जैसे मनोरम दिखता है, अंतर इतना ही है कि काशी के सभी घाट पक्के हैं और यहाँ का एक ही घाट पक्का है किंतु तट काशी की तरह ही लम्बा है। एक बात जो ध्यान देने योग्य है वह ये कि भारत में सनातन हिन्दू धर्म के तीर्थों में एकरूपता दिखाई पड़ती है। यही वह तत्व है जो देश को सांस्कृतिक समरूपता प्रदान करता है। यहीं नदी के तट से लगा रुक्मिणी माता का स्वयंभू मन्दिर है। जब भगवान वापस नहीं लौटे तब माता उन्हें देखने के लिए यहाँ आयी थीं। वैसे विट्ठल मन्दिर में माता रुक्मिणी का बहुत सुंदर विग्रह है।

अषाढ़ एकादशी के दिन पूरे महाराष्ट्र से वारि (पालकी) चल कर यहाँ आती है। भक्त वारि (पालकी) पैदल लिए यहाँ पहुँचते हैं। ज्ञानदेव, नामदेव, एकनाथ और चोखा मेला की भक्ति, कीर्तन परम्परा आज भी जीवित है। महाराट्र के भक्त दर्शन के लिए यहां आते हैं, कीर्तन के साथ खूब नृत्य करते हैं। यहाँ ऐसा लगता है कि जैसे भक्त और भगवान एक हो जाते हैं। यहाँ पर “जात पात पूछे नहिं कोई, जो हरि को भजै सो हरि का होई” चरितार्थ दिखाई पड़ता है। भक्त की महिमा अपरम्पार है, वह एक ऐसा गुरु है जो आपके चित्त को जगत प्रपंच से जगत के स्वामी की ओर मोड़ देता है।

मन्दिर में दर्शन के पूर्व तीर्थयात्री पहले भक्त चोखामेला की समाधि के दर्शन करते हैं, फिर वहीं सीढ़ियों पर भक्त नामदेव की समाधि है, उसका दर्शन होता है। भगवान विट्ठल का विग्रह अन्य मंदिरों से एक भिन्नता लिए हुए है, विट्ठल भगवान के पादस्पर्श दर्शन, जो कि भारत के किसी बड़े मन्दिर में नहीं होता है। यह आपको एक बहुत अलग अनुभव कराता है। मन्दिर के आस – पास धर्मशालाओं को देख कर आपको पुनः एक बार काशी की सुधि हो सकती है। भगवान विट्ठल को महाराष्ट्र का इष्टदेव कहा जाता है, यह भारत में विष्णु के अष्ठपीठों में पांचवें नम्बर पर आता है। कार्तिकी एकादशी, माघी एकादशी, गुड़ीपड़वा, रामनवमी, दशहरा आदि प्रमुख उत्सव हैं जब मन्दिर में लाखों भक्त पहुँचते हैं। वारि के समय एक दिन के लिए औपचारिक रूप से मुख्यमंत्री भी भगवान के सेवादार बनते हैं।

आप पंढरपुर आइये तो यहां पर रात्रि विश्राम अवश्य करिए जिससे इस नगरी को आप अन्दर से समझ सकें। चंद्रभागा में स्नान सुबह ५ बजे करिये, यह ध्यान केंद्रित करने में सहयोग करेगा। यहां सूर्योदय बहुत सुंदर होता है, भक्ति का यह समय भी शुभ है। शाम की आरती की छटा निराली है। वातावरण के इस प्रभाव के कारण आरती में भक्तिभावना तीव्र होती है, मन प्रसन्न हो जाता है। पादस्पर्श दर्शन अद्भुत अनुभव कराता है।

महाराष्ट्र के गांवों में कुछ विशेष परम्पराएँ दिखाई दी, जैसे किसी की मृत्यु हो जाने पर घर परिवार के लोग उन्हें श्रद्धांजलि देते हुये गांव के बाहर पोस्टर लगवा देते हैं। गांव और हॉट उत्तर की तरह ही हैं। खाने में जरूर कुछ भिन्नता मिलती है, भोजन ज्यादा तीखा और चटकारेदार है।

भीमाशंकर

पंढरपुर से वापस पूणे आते समय ऐसा लग रहा कि अभी दो तीन और रहना चहिए। हम भगवान जी से कह दिए कि आप चाहेंगे तो बार – बार आना होगा। यहाँ से द्वादश ज्योतिर्लिंगों में से एक “भीमाशंकर” जिन्हें “मोटेश्वर महादेव” कहते हैं, के लिए सुबह – सुबह निकलना हुआ। भीमाशंकर का अर्थ है ‘भीम के शंकर’। यहीं पर भीमा नदी का उद्गम है सह्याद्रि श्रेणी। स्वयंभू ज्योतिलिंग अपने प्राकृतिक मनोरम दृश्यों के कारण विशेष अनुभूति देता है।

कथा मिलती है कि कर्कटी नामक राक्षस के भीम नामक पुत्र ने एक समय इस क्षेत्र पर अधिकार कर लिया था, यहीं राजा कोपेश्वर रहते थे जो शिव भक्ति में अविचल थे। उन्हीं के राज्य को हड़पकर भीम उन्हें कारागर में डाल दिया। राजा कोपेश्वर कारागार में शिवलिंग स्थापित करके भक्ति में लीन रहते, जब भीम के अत्याचार से कारागार में भक्त की भक्ति में विघ्न पड़ने लगा तब महादेव का प्राकट्य हुआ। उन्होंने भीम का वध किया और यहीं स्वयंभू रूप में स्थापित हो गये।

मन्दिर का सभामण्डप मराठा नेता नाना फडणवीस द्वारा बनवाया गया है। मन्दिर के सन्मुख रोमन शैली की एक घण्टी लगी हुई है। इस घण्टी पर जीजस के साथ मदर मैरी की मूर्ति है। यह बाजीराव पेशवा के भाई चिमाजी अप्पा द्वारा १६ मई १७३९ को पुर्तगालियों के खिलाफ युद्ध में विजय के बाद वसई किले में लाये गए पांच घण्टियों में से एक है। बाकी चार को कृष्णा नदी के तट पर स्थित शिवमंदिर वन, ओंकारेश्वर और समलिंग मन्दिर के सामने लगाया गया।

इस मंदिर पर दैवीय जीवों की जटिल नक्काशी, मानवमूर्ति के साथ नक्काशीदार खंबे मन्दिर के द्वार पर सुशोभित हैं। पौराणिक कथाओं के दृश्य का अंकन शानदार नक्काशियों में जीवंत प्रतीत होते हैं। यहां १.३० वर्ग किमी आरक्षित वन क्षेत्र है। १९८५ में इसे वन्य जीव अभ्यारण्य घोषित किया गया है। यह विश्व प्रसिद्ध पश्चिमी घाट का हिस्सा है इसलिए यह पुष्प और जीवविविधता से समृद्ध है। हनुमान झील, नागफनी, बॉम्बे प्वाइंट, साक्षी विनायक प्रसिद्ध स्थान हैं। भीमाशंकर के पास देवी कमलना का मन्दिर है। देवी कमलना को माता पार्वती का अवतार कहा जाता है। यह एक आदिवासी देवी हैं।

यहाँ पहुँचने पर बारिश शुरू हो गयी और पूरी तरह से धुंध छा गयी। मौसम बहुत खुशनुमा हो गया। बादलों की गड़गड़ाहट मदहोश कर दे रही थी, ऐसा लग रहा था मानो हम बादलों के बीच में आ गये हैं।

मन्दिर में दर्शन करने और प्राकृतिक दृश्य देखने के बाद मौसम बिगड़ने के कारण पता चला कि शाम वाली बस नहीं आयेगी। यदि बस चाहिए तो नीचे पांच किलोमीटर दूर से जायेगी। यहाँ रुकना उचित इसलिए नहीं था क्योंकि कोविड की वजह से होटल सेवा बंद थी।

आरक्षित वन से होकर नीचे आना था, अभी कुछ दूर चले ही थे कि जोरों की बारिश आ गयी, रुक इसलिए नहीं सकते थे कि नीचे बस निकलने के समय से पहले पहुँचना था। मन में एक डर जंगल के जीव-जंतुओं का भी था, बारिश तेज थी और कोई दूसरा आ जा भी नहीं रहा था।

प्यास लगने पर प्राकृतिक झरने से पानी पेटभर पी लिया। इस नेचुरल मिनरल वाटर की कीमत यदि लगाई जाय तो कम से कम ₹ १००० प्रति लीटर से ज्यादा ही आयेगी। पानी स्वादिष्ट था, अरे आपके बिस्लेरी से तो कई सौ गुना अधिक स्वादिष्ट! बारिश में ठंड भी लग रही थी, हमारे प्रयाग के वर्षा में भीगना उतना मजेदार नहीं होता है किन्तु इसमें भीगना बहुत उद्वेलित कर रहा था, पूर्णतया प्राकृतिक। इतनी दूर पहाड़ों में भीगना एक सपने से कम न था। भीगे कपड़े बस में जाकर ही बदले। कितना कुछ प्रकृति ने दिया है और हम हैं कि स्वयं के दुश्मन तो हैं ही साथ ही प्रकृति के भी शत्रु हैं।

पारिवारिक, सामाजिक और राजनीतिक प्रपंच में, वास्तविकता से कोसों दूर स्वयं को मिलावटी मनुष्य बना लिए हैं। हम फिर से एक बार पुणे लौटे अब अगले दिन महाबलेश्वर जाने की तैयारी करनी थी।

महाबलेश्वर पुणे से कोई १८० किमी दूर सह्याद्रि श्रेणी पर्वत शृंखला में एक प्राकृतिक धार्मिक स्थल है, यह सतारा जिले में पड़ता है। समुद्र तल ४४५० फ़ीट की ऊँचाई पर है। यहां लगातार बारिश होती रहती है इस कारण यह चेरापूंजी (सोहरा) के बाद भारत का सबसे अधिक वर्षा वाला क्षेत्र है। महाबलेश्वर के पास में ही पंचगनी महाराष्ट्र का हिलस्टेशन है। जो अपने स्कूल और फूडप्रसंस्करण के लिए प्रसिद्ध। यह पूर्व में अंग्रेजों के समय महाराष्ट्र की गर्मियों की राजधानी हुआ करता था। यह आज भी गर्मियों में महाराष्ट्र के राज्यपाल के लिए संरक्षित है।

महाबलेश्वर का शाब्दिक अर्थ है – भगवान की महाशक्तियां। महाबलेश्वर को पंच नदियों की भूमि कहा जाता है कृष्णा, वेन्ना, कोयना, गायत्री और सावित्री। कथा है कि सावित्री ने ब्रह्मा, विष्णु और शिव को नदी होने का श्राप दिया। विष्णु कृष्णा नदी, शिव वेन्ना और ब्रह्माजी कोयना नदी बने।

यहाँ पर एलफिंस्टन पॉइंट, लाडविक पॉइंट, आर्थर सीट, मार्गोरी पॉइंट, कैसल रॉक, फाकलैंड पॉइंट और कारनैक पॉइंट हैं। विल्सन पॉइंट यहाँ का सबसे ऊंचा पॉइंट है जहाँ से सूर्योदय और सूर्यास्त की अद्भुत छटा देखने को मिलती है। पर्यटक इसे देखने के लिए अवश्य पहुँचते हैं।

टेबल लैंड एक ज्वालामुखी पर्वतीय पठार है जो समुद्र से लगभग ४५०० फ़ीट की ऊँचाई पर स्थित है। यह तिब्बती पठार के बाद एशिया का सबसे ऊंचा पठार है। धोबी जलप्रपात का विहंगम दृश्य है, इसका जल कोयना नदी में विलीन हो जाता है।

महाबलेश्वर आदि बड़े पहाड़ी धार्मिक स्थल एक समय में ऋषि मुनियों द्वारा आध्यात्मिक शांति के लिए खोजे गए थे। जिससे वह सामाजिक शोर से भी दूर रहें। अंग्रेजी शासन में ऐसे बहुत से धार्मिक स्थलों का जबरी खोज का टैग लगाया गया है।

सबसे मजेदार बात महाबलेश्वर के लिए यह है कि अंग्रेजों के उपनिवेश रूपी इमारतों को अभी भी उसी हाल में सुरक्षित रखा गया। इसका क्या कारण है कि आजादी के बाद भी अंग्रेजों के नम्बर प्लेट आज भी भवनों पर लगे हैं, जिन्हें देखकर आपको लगेगा कि आप भारत में नहीं ब्रिटेन के किसी हिलस्टेशन पर हैं।

यहाँ का वातावरण बहुत खूबसूरत है, लगातार बारिश का रहना आपके मन को प्रफुल्लित कर जायेगा। ऐसा लगेगा कि धरती के स्वर्ग में आ गये हैं। प्राकृतिक झरने में नहाने का आनंद भी बहुत अलग है। अलग – अलग जल के स्रोतों से मिनरल वाटर पीना मन प्रसन्न करता है। यह जरूर है कि यहाँ जब तक रहते हैं पूर्व की चिंताओं से मुक्त रहते हैं।

मुझे लगा कि मैंने अभी तक जितने भी तीर्थ और पर्यटन स्थल देखें हैं, उनमें महाबलेश्वर की छठा अद्वितीय और अनुपम है।

महाबलेश्वर से कैब लेकर छत्रपति के महत्वपूर्ण किले “प्रतापगढ़” गये, यह सतारा जिले में पड़ता है। यह किला इस लिए विशेष है क्योंकि शिवाजी महाराज ने यहीं पर अफजल खान का वध किया था। किले के पास ही अफजल खान की दरगाह है, यहाँ से “जय भवानी जय शिवजी” का नारा बुलंद हुआ।

बीजापुर के आदिलशाह के प्रधानमंत्री पंडित कृष्ण जी भास्कर को शिवाजी महाराज ने हिन्दू के नाम पर गूढ़ जान लिया और उन्हें अपने साथ कर लिया, अफजल खां का मकसद क्या है, यह जानकर उन्होंने अपने बघनख से अफजल खां का काम तमाम कर दिया।

प्रतापगढ प्रकृतिक रूप से एक अभेद्य किला है, यहीं से शिवाजी राजे की कीर्ति पूरे भारत में फैली। यह किला अपनी ऊँचाई के साथ अपनी बनावट के कारण रोमांचित करता है। शिवाजी महाराज एक बार फिर से जीवित हो जाते हैं और पूछते हैं कि ‘क्या कर सकते हो हिंदुपादशाही के लिए’, आप का मन इस प्रश्न पर बरबस ही स्वयं को टटोलने लगता है।

किले में सबसे ऊँचाई पर छत्रपति की मूर्ति का अनावरण १९५७ में भारत के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित नेहरू ने किया था। किले को मराठा राष्ट्र कहते थे, इसी कारण इसका नाम महाराष्ट्र पड़ा।

किले पर चढ़ते समय एक मराठी युवा द्वारा ‘जय भवानी जय शिवाजी’ का उदघोष किया जा रहा था, आवाज इतनी बुलंद थी कि लग रहा था कि युवा का उद्घोष बार – बार होता रहे।

राजगढ़, सतारा, लोहागढ़, कोंडाणा किला देखने की अभिलाषा सिमेटनी पड़ी क्योंकि ये कोविड महामारी प्रोटोकॉल के कारण बंद थे। महाबलेश्वर को आप जितना देखते हैं, यह उतना अधिक खूबसूरत लगता है। आप के अंर्तमन से आवाज निकलती है कि कम से कम इसे देखने एक बार और अवश्य आना चाहिए। लौटते समय पुणे की सीधी बस नहीं मिली। लग रहा था आज पुणे पहुँचना नहीं हो पायेगा। चिंता यह थी कि दूसरे दिन ही प्रयाग वापस आना था और अभी तो संत ज्ञानेश्वर और तुकाराम की कर्मभूमि को भी जाना बाकी ही था।

इसे संयोग ही कहेंगे कि महाबलेश्वर से वापसी वाली बस बीच के स्टेशन पर उतारी ही थी कि पता चला कि पुणे के लिए आखिर बस निकलने वाली है। जिससे रात ११ बजे हम पुणे पहुँच गये।

सुबह – सुबह आलंदी गाँव के लिए निकले, यहीं संत ज्ञानेश्वर की समाधि है। दूरी पुणे से ३५ किमी है। यहाँ के विठोवा मन्दिर का शिखर एक समय में श्रीमंत के शनिवार वाड़े से दिखाई देता था।

संत ज्ञानेश्वर ने मराठी भाषा में ज्ञानेश्वरी की रचना कर आमजन मानस के विश्वास को ईश्वरभक्ति में दृढ़ किया। इनका महाराष्ट्र में वही स्थान है जैसा कि उत्तर भारत में गोस्वामी तुलसीदास का है।

आलंदी इंद्राणी नदी के तट पर स्थित एक भक्तिनगरी है और अत्यधिक सुरम्य और रमणीक स्थल है। आलंदी का अर्थ है – आनंद या भक्ति का स्थल। यहाँ पहुँच कर लगा जैसे ज्ञानदेव और ज्ञानेश्वरी दोनों साक्षात हो गये। यहाँ पर अभी भी वह शिला है जिसे अघोरी चंगदेव को प्रतिउत्तर देने के लिए ज्ञानेश्वर जी ने जड़ से चेतन कर दिया था। चंगदेव प्रसिद्धि सुनकर ज्ञानेश्वर जी से मिलने सिंह की सवारी करते आये तभी ज्ञानेश्वर जी जिस शिला पर बैठे थे, उसे ही चलने का आदेश दिया।

विट्ठल भगवान के मन्दिर में भक्त लगातार कीर्तन और नृत्य करते रहते हैं।

पुणे और यहाँ के तीर्थों से मन नहीं भरा था फिर भी घर को वापस लौटना पड़ा। यहाँ पर मेरा मन कभी भक्त तो कभी शिवाजी के और कभी श्रीमंत के तो कभी तन्हाजी मलसुरे के सैनिक का बन जाता है। आलंदी आकर मन पूर्णतया भक्त का बन गया। मन की गति भी बड़ी विचित्र है, कभी कुछ तो कभी कुछ बन जाती है।

एक मलाल रह गया कि संत तुकाराम की जन्म स्थली ‘देहू’ नहीं जा सके जबकि वही पास में ही थे। कारण था समयाभाव क्योंकि आज और अभी ही प्रयागराज के वापस लौटना था। तुकाराम जी को प्रणाम करके हमने पुणे से प्रस्थान लिया।

अस्वीकरण: प्रस्तुत लेख, लेखक/लेखिका के निजी विचार हैं, यह आवश्यक नहीं कि संभाषण टीम इससे सहमत हो। उपयोग की गई चित्र/चित्रों की जिम्मेदारी भी लेखक/लेखिका स्वयं वहन करते/करती हैं।
Disclaimer: The opinions expressed in this article are the author’s own and do not reflect the views of the संभाषण Team. The author also bears the responsibility for the image/images used.

About Author

Dhananjay Gangey
Dhananjay gangey
Journalist, Thinker, Motivational speaker, Writer, Astrologer🚩🚩
Subscribe
Notify of
guest
0 Comments
Inline Feedbacks
View all comments

About Author

Dhananjay Gangey
Dhananjay gangey
Journalist, Thinker, Motivational speaker, Writer, Astrologer🚩🚩

कुछ लोकप्रिय लेख

कुछ रोचक लेख