पुलिस का रौब

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Dhananjay Gangey
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भारत में आधुनिक पुलिस के जनक लॉर्ड कॉर्नवालिस थे। तब स्थापना का उनका उद्देश्य था जिससे अंग्रेजों के हितों की पूर्ति की जा सके। इसी पुलिस के माध्यम से वह भारतीयों में स्वतंत्रता के लिए विद्रोह की भावना को भी दबाते थे। क्रांतिकारियों की जासूसी इसी पुलिस से कराई जाती थी।

स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद हमारे नेता इतने बुद्धिमान थे कि उन्होंने ब्रिटिश व्यवस्था को मूलरूप में ही एडॉप्ट कर लिया। पुलिस और प्रशासन को उपनिवेशी ही बनाये रखा। क्योंकि इससे सत्ता का खौफ़ बना रहता है।

इस तरह वो पुलिस जो कल तक अंग्रेजों की सेवा की, आज अपराधियों और नेताओं की कर रही है। पुलिस थाने जाइये तो सामान्य रूप से वह FIR फ़ाइल भी नहीं करना चाहती।

देखने को मिलता है कि पुलिस के संरक्षण में ही संरक्षित अपराध, शराब और नशे का कारोबार फलता फूलता है। इसमें उसका बड़ा कमीशन रहता है। पुलिस अपराध नियंत्रण में भले सौ फीसदी सफल न हो किन्तु वसूली में वह अव्वल है। आज-कल जगह-जगह गाड़ी के चालान के नाम पर अच्छी खासी धनउगाही हो रही है। प्रत्येक थाने में एक-दो पुलिस के सिपाहियों का काम होता है दिनभर धनउगाही करें जिससे थाने के जितने सदस्य हैं उनको मंथली एक मुश्त 10-15 हजार मिल सके।

भारत का शायद ही कोई थाना हो जिसकी एक महीने की घूस पांच लाख से कम हो। थानाध्यक्ष बनने के लिए एक मोटी कीमत देनी होती है, क्योंकि भारत में थाने भी बिकते हैं।

सबसे बड़ी बात प्रत्येक जिले का फिक्स कमीशन है, जो गृह मंत्रालय के पास पहुँचता है। ऊपर के अधिकारी और नेताओं के लिए उत्तर प्रदेश के एक जिले से सामान्यतः 5 करोड़ भेजा जाता है।

यह नेता और पुलिस का नेक्सस है, जो अंग्रेजी व्यवस्था की तरह लूट रहे हैं। इस पर समाज, शासन और न्यायपालिका की भी मौन सहमति है। लूटो मगर मेरा हिस्सा न भूलना।

मुम्बई के पुलिस कमिश्नर और पूर्व गृहमंत्री देसाई का प्रकरण अभी ताजा है। गाहे बगाहे कभी उत्तर प्रदेश, कभी बिहार कभी दिल्ली के पुलिसकर्मियों की सम्पत्ति करोड़ो में मिलती है। आखिर यह करोड़ो की सम्पत्ति कहाँ से इकट्ठा की गई? इसमें कितने फेक एनकाउंटर हुए, कितने लोग पुलिस की पिटाई में मर गये? कानपुर के व्यापारी की जिस तरह से जिसकी गोरखपुर पुलिस पिटाई में हत्या हो गई, कितने के ऊपर फर्जी मुकदमें के नाम पर पैसे ऐंठे गये?

गुंडे और अपराधी तत्वों पर शुरू में पुलिस ईमानदारी से कार्यवाही करती तो यकीन मानिये अपराध में 90% तक कमी आ सकती थी।

पुलिस का एक फंडा है, ले के घूंस फँस जा देके घूस छूट जा। समाज भी भ्रष्ट्राचारी को धन की नजरिये से देखने लगा है। पहले ब्राह्मणों के यहाँ पुलिस की नौकरी माता-पिता नहीं करने देते थे, कहते थे हराम का पैसा आयेगा जिससे परिवार नष्ट हो जायेगा। सभ्रांत ब्राह्मण घर की कन्या मिलनी मुश्किल हो जाती थी।

आज के समय में भ्रष्ट्राचारी, दुराचारी को समाज सम्मान की नजरिये से देखने लगा है क्योंकि उसके पास बहुत धन है।

पुलिस के कुछ ही नहीं बल्कि बहुत से अच्छे काम हैं लेकिन इसका यह मतलब नहीं उसके कुकर्म छुप जाएंगे। एक बात विचारणीय है, न्यायपालिका के बार-बार पुलिस सुधार का आदेश देने बावजूद नेताओं ने पुलिस सुधार में दिलचस्पी क्यों नहीं ली है। इसका एक कारण है कि जब विपक्ष में रहते हैं, उस समय पुलिस बुरी लगती है। वही जब सत्तासीन होते हैं, यह पुलिस बहुत आनंद देती है, रसूख बढ़ाती है, धन लाती है या कहें नेता का सामर्थ्य बन जाती है।

किसी समय आज के उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री योगी जी ने इसी संसद में रोते हुये कहते हैं कि पुलिस मेरा एनकाउंटर कर देगी। सत्ता में आते ही सब ठीक हो जाता है। इसी पुलिस के एनकाउंटर के भय से कभी मुलायम सिंह साइकिल से दिल्ली पूर्व प्रधानमंत्री चरण सिंह जी के पास जान बचाने पहुँचे थे। नई पार्टी बनायी तो उनका चुनाव चिन्ह ही साइकिल हो गया।

खैर, नेता और पुलिस की कितनी भर्त्सना कीजिये यह उसके बाद और नीचे ही जाते हैं। इनपर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। एक घटना पूरी नहीं होती कि दूसरी को अंजाम दे देते हैं। संदिग्धता, संलिप्तता, संरक्षण आदि पुलिस के पर्याय हैं। एक पुलिस वाला घूस की शिकायत पर जायेगा तो उससे बड़ा घूस खोर आयेगा।

किंजल सिंह के DSP पिता का फेक एनकाउंटर उनके ही साथी पुलिस वालों ने किया, जिस मामले में लखनऊ कोर्ट ने 18 पुलिसकर्मियों को दोषी माना। यह न्याय भी 31 सालों बाद तब हुआ जब किंजल सिंह स्वयं जिला मजिस्ट्रेट बन गईं।

ना रे बाबा… पुलिस गलत नहीं हो सकती है क्योंकि यह नेता का एलिमेंट है, यह लोकतंत्र है जहाँ न्याय मिलता नहीं बल्कि खरीदना पड़ता है। पुलिस वाले कुछ दबाव में ठोक जरूर देते हैं। जनतंत्र के जन तुम हो, तुम्हारा मरना जरूरी है, तभी लोकतंत्र जिंदा होगा।

मनीष गुप्ता मर्डर में शामिल जगत सिंह जैसे पुलिसवालों का एकबार ही सही एनकाउंटर हो जाये तो समझिये इसकी गूंज लंबी चौड़ी होगी। जब बिकरु कांड में विकास दुबे का एनकाउंटर हो सकता है तो पुलिस को अपने रवैये पर कायम रहना चाहिए, खेल के नियम हर एक के लिए अलग कैसे हो सकते हैं। यदि दोषी पुलिसकर्मियों का एनकाउंटर सरकार और पुलिस कराती है तो निश्चित ही पुलिसिया बर्बरता पर रोक लग सकती है।

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