यदि किसी सामाजिक सुधार की बात हो तो कुछ बातें हमें अभी से ध्यान में रख कर विचार करनी होंगी जिससें हमारा सामाजिक ढांचा प्रभावित हुये बिना गतिशीलता, निरन्तरता को प्राप्त कर सके।
भारत में आज कई तरह के समूह बन चुके हैं, ज्यादातर समूह राजनीतिक खेमों में विभाजित हैं। वह एक पार्टी विशेष की विचारधारा के इर्द गिर्द चीजों को बुनते हैं। उसका फायदा उन्हें सम्बंधित राजनीतिक पार्टियों के माध्यम से कई तरह से मिलता है।
भारत में कुछ वर्ष पूर्व तक एक घोषित विचार था ‘सेकुलरिज्म’ जिसके कई स्वरूप थे ‘वामपंथी सेकुलरिज्म’, ‘मुस्लिम सेकुलरिज्म’, ‘राजनीतिक सेकुलरिज्म’ और छुपा सेकुलरिज्म। यह सब सत्ता को स्थायी रखने के राजनीतिक उपाय थे।
माबलिंचिंग का सूरतेहाल यह है कि यह भी सेकुलरिज्म का चोला ओढ़े हैं। जब किसी मुस्लिम को चोरी करने के लिए हिंदुओं द्वारा मार दिया जाता है तब यह माबलिचिंग की श्रेणी में डाल कर हो हल्ला मचाया जायेगा और वहीं किसी हिंदू को मुस्लिम भीड़ द्वारा धर्म के नाम पर उसके घर में घुस का चाकू मारा जाये तब वह मॉबलिचिंग की श्रेणी में नहीं आयेगा क्योंकि इससे बहुत से राजनीतिक विचारों को खाद नहीं मिलती है तब मौन और सन्नाटे से काम चलाया जाता है।
देखने का ढंग बन गया है कि दलित, पिछड़ा और मुस्लिम होगा तब चक्का जाम किया जायेगा। डिस्क्रमिनेशन एक समान घटना पर अलग-अलग है। बात यह भी सही है जहाँ मांस दिखेगा गिद्ध वही मंडरायेगा।
भारत में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता कितनी लम्बी है इसे संविधान नहीं बता सकता है। हिन्दूधर्म के विरुद्ध, देश के विरुद्ध असीम आजादी है।
भारतरत्न सचिन तेंदुलकर, लता मंगेशकर देश की संप्रभुता की बात करते हैं, विदेशियों को दखल न देने की नसीहत देते हैं तब केरल से दिल्ली तक हाय तौबा मचेगा। दिल्ली नेक्सस जो कल देश का नैरेटिव सेट करते थे वह क्रोनोलॉजी गढ़ने लगते हैं, जिसको न पता वह न बोले।
भारत के आतंरिक मामले में एक विदेशी को अधिकार है बोलने का किन्तु देश हित में भारतरत्न से सम्मानित नागरिक को बोलने का अधिकार नहीं है।
भारत को कोई मुगल, अफगान, तुर्क या अंग्रेज कभी गुलाम नहीं बना सकता था, जब तक यहीं के लोग आस्तीन के सांप न बनते, यही आज के राजनीतिक परिदृश्य में भी देखा जा सकता है।
हिंदू को मुस्लिम, धर्म के नाम पर मारे तो यह ला एन्ड आर्डर वहीं मुस्लिम चोर और गो तश्कर को गांव मारे तो माबलिचिंग।
राजधानी में राष्ट्रध्वज के अपमान की जहग फेक आंदोलन की कसीदाकारी की जा रही है। पुरानी पार्टी सत्ता के लिए कभी खालिस्तान को खड़ा करती है कभी 370 की बात, कभी वेल्लू प्रभाकर की बात को उठाये। बस कैसे भी करके सत्ता बनी रहनी चाहिए।
कश्मीरी पंडितों के नरसंहार पर कलेजा नहीं पसीजा, न ही महाराष्ट्र के चितपावन ब्राह्मणों के नरसंहार पर। किन्तु राष्ट्रद्रोहियों के लिए छाती में दूध उफान मारने लगता है वह भी जब वे राष्ट्रविरुद्ध काम करते हों, सेना से सबूत मांगने हों।
विपक्ष दिशाहीन हो चला है, उसके पास न नेता है और न ही नीति। अब वह आव – बाव के सहारे सत्ता सुख उठाना चाहती है। ढंग के विषय उसे राजनीति में नहीं मिल पा रहे हैं, जो मुद्दे वो लेकर चलना चाहती है जनता तो छोड़िये, कोर्ट में भी मुंह की खा जा रही है।
दरबारी पत्रकार और दरबारी इतिहासकारों ने पिछले 70 सालों से भारतीयों में भारत के खिलाफ नकारात्मक विचार भर रहे हैं, टुकड़े – टुकड़े में सत्ता का गणित जो छिपा है। उसके लिए वह डिजिटल षडयंत्र भी करने से बाज नहीं आ रहा है।
इनके लिए सबसे बड़ी समस्या इनके लिए क्या है?
आत्मनिर्भर भारत : भारत क्यों फिर से विश्व में महाशक्ति बन रहा है? भारत की शक्ति अंतरराष्ट्रीय पटल तक क्यों हो गयी। कितने मेहनत के बाद धूल, गन्दगी, नट और सपेरों के देश का तगमा प्राप्त किया था। राजनीतिक जातिवाद, दलित, शोषित, वंचित, पिछड़ा, अल्पसंख्यक कहने से सत्ता मिल जाती थी। धर्मांतरण का खेल बहुत अच्छे से भारत भूमि पर चलता था। तुमने “राजनीति की वह बगिया उजाड़ दी जिससे पीढ़ी दर पीढ़ी सत्ता मिलती थी”। लौंडे जो मुख्यमंत्री बनते वो अब बेरोजगार हैं।
विपक्ष की बिलबिलाहट समझिये, किसी और तकलीफ से कहीं ज्यादा है। सत्ता छिन जाने और दूर तक मिलने के आसार भी नजर नहीं आ रहे हैं। इसी लिये तो बात – बात में लोकतंत्र का अपमान और संविधान उल्लघंन के साथ फासिस्ट की बात की जा रही है।
ये जो रोज धरना और आंदोलन चल रहे हैं उसके पीछे भी पूरा तंत्र है। सत्य की लड़ाई की जगह झूठ की बाँह मरोड़ने का करतब इसलिए है कि शायद इससे ही काठ की हाड़ी दुबारा चढ़ जाय लेकिन ये स्थिति को और खराब करेगा।
कोरोना की दवा भारत में क्यों बन गई इस बात की गहरी तकलीफ है। पुरानी पार्टी सोच रही है कि काश कि वह सत्ता में होते तो चीन वाली वैक्सीन का आयात कर लेते जिससें परिवारों को स्विस बैंक में डारेक्ट अरबों डॉलर मिल जाते।
विदेशी प्रोपेगेंडा भारत में चलता रहे, लोग गुलामी की मानसिकता से न निकलें। भारत और उसकी संस्कृति की जगह इन्हें सत्ता की जुगत है, उसके लिए वह किसी भी स्तर तक जा सकते हैं।
नेता की नियत के क्या कहने, ये उसके पूर्वजों के खून की जद्दोजहद है लेकिन विचारक तो एक विशेष विदेशी विचार के लिए भारत से संघर्ष करने को आतुर है। उसकी संकल्पना में भारत जले, दंगे हो तो ठीक है किन्तु विचार खत्म नहीं हो पाये।
नोट: प्रस्तुत लेख, लेखक के निजी विचार हैं, यह आवश्यक नहीं कि संभाषण टीम इससे सहमत हो।
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