जीवन भर हम अपने पराये की पहचान करने – कराने में बीता देते हैं। अकड़ और अहं में स्वयं को कभी देख नहीं पाते कि आखिर मैं कौन हूं और ऐसा क्यों हूं? हमें लगता है कि हम जीने के लिए जीवन जी रहे हैं किंतु वास्तव में यह जीवन हम मरने के लिए जीते हैं, यह इस धरती का एकमात्र और आखिरी सत्य है। जब तक सांसे चल रही हैं, तभी तक यह देह नामधारी और रिश्तेदारी चल रही है।
जब मृत्यु ही एक मात्र सत्य है तब जल्दी किस बात की है? स्वयं का दोष दूसरे के सिर मढ़ने का, मनुष्य का यह नायाब तरीका है।
हम जानते हैं कि धन क्षणिक प्रसन्नता देता है। फिर भी पूरा विश्व इसी के लिए परेशान है। कुछ सिस्टम ऐसा बनाया गया कि मनुष्य का मन और देह दोनों का विक्रय धन के हाथ कर दिया गया। “पंक्षी कितना उड़े आकाश, चारा है धरती के पास”। यह पंक्ति मनुष्य के लिए बहुत अनुकूल है। उसके प्रत्येक कार्य का पर्याय धन है।
एक मनुष्य ही है जिसकी चर्या धन से शुरू होकर धन तक है, बाकी ८४ लाख योनियों का कार्य बिना धन के चल रहा है। मनुष्य जानकर अनजान बनाता है। फिर लोभ के अन्धड़ में कदम तेज गति से बढ़ाये जा रहा है। सद्गति-दुर्गति से कहीं ज्यादा चिंता फ्लैट और फोर-व्हीलर की है। यह शरीर चिंता के कारण रोग ग्रसित होता जा रहा है। चिंता के कारण पर चिंतन की जगह हमें डॉक्टर पर विश्वास कहीं ज्यादा है।
हम अपने समाज में जो बो रहे हैं, वही काट रहे हैं किंतु मान नहीं रहे हैं। मनुष्य ने झूठ को मित्र, अहंकार को स्वभाव और सत्य को पुस्तकों की चीज बना दिया है।