सही विचार सनातन धर्म शास्त्रों जैसे वेद, उपनिषद, ब्राह्मण, आरण्यक, रामायण, महाभारत आदि के साथ – साथ शंकराचार्य, रामानुजाचार्य, चाणक्य, भर्तहरि, विष्णुदत्त शर्मा आदि के द्वारा लेखन में झलकता है। ज्ञान, विज्ञान, कला, व्याकरण, ज्योतिष, वैराग्य, धर्म, मर्म, मुक्तिबोध का ज्ञान भारतीय दर्शन से होता है। धर्म की विधियों का विधिवत पालन करने से धर्मापेक्षिक लाभ मिलता है। इसका पालक करके इस अनुभव को प्राप्त भी किया जा सकता है।
अब प्रश्न यह है कि किस विचार को सही माने? वह जिस पर सदियों के अनुसंधान का अनुभव है या उसे जो स्वयं की समस्या या किसी देश के हित को ध्यान में रखकर किसी नये तरह की थियरी गढ़ ली गई? उदाहरण के लिए जब ब्रिटिश साम्राज्य का सूर्य अस्त नहीं होता था, उस व्यवस्था को लाभ पहुचाने के लिए जिस विचार को रोपा गया? तब साम्राज्यवादी पूँजीवादी राजतंत्रात्मक लोकशाही के आसपास विचार बुने गये।
बढ़ते यूरोपीय औद्योगिकरण में जब मजदूरों की समस्या मुँह उठाने लगी तब उसे शांत करने के लिए समाजवाद, मार्क्सवाद के बीज बोने शुरू किये गए लेकिन मजदूरों की समस्या अभी शांत भी न हुई थी कि उपनिवेशों की यूरोपीय होड़ ने दो विश्व युद्ध सामने रख दिए।
पहले विश्व युद्ध की समाप्ति के समय फ्रांस द्वारा जर्मनी पर आरोपित वर्साय की संधि ने हिटलर के फासीवाद को पैदा कर दिया उसे लगा इसी से वह जर्मनी को फिर से खड़ा कर सकता है। नये उभरते देश जापान और रूस ने दूसरे विश्वयुद्ध की आपदा को अवसर में बदलने की चेष्टा की।
दूसरे विश्व का माहिर और शातिर खिलाड़ी अमेरिका अपनी नई विचारधारा “व्यवहारवाद” और “देहवाद” को आधुनिकता और लोकतंत्रवाद की चपेट में लपेट लाया। सत्य को व्यक्तिपरक करार दिया। इस नई पूंजीवादी व्यवस्था पर बाजारवाद और उदारवाद के रूप में दो नये कपड़े लपेटे गये।
नये – नये देश नये – नये विचारों और उनकी पुष्टि से पुराने जांचे परखे विचारों को तोड़मोड़ कर रख दिया गया। अब पुरानी हवेली पर नये “टिन-शेड” में रहने को आधुनिक और विकासवादी कहा गया, किसी अन्य व्यवस्था के पोषक किसी नये विचार को परोसना शुरू किया गया। दर्शन के क्षेत्र में उत्कट अनुभववाद, अस्तित्ववाद और मानववाद की पतंगें उड़ाई गयी। यह रंगबिरंगी पतंगें अपनी जड़ों से कटे लोगों को खूब भायी।
इतिहास की साम्राज्यवादी, मार्क्सवादी लेखन ने मूल इतिहास को ही गायब कर दिया। सामाजिक और शैक्षिक स्तर पर सेक्युलर वामपंथी विचार ने समाज को बाजार बना दिया। लोग अपना हित देख मौन मनमोहन बन गये।
खाद्यशास्त्र को खाद्य विशेषज्ञों ऐसा सिद्ध किया कि प्राचीन पोषक खाद्य शृंखला के स्थान पर मांस और बीमार करने वाले भोजन को रोप दिया गया जिससे बाजार के साथ मेडिकल उद्योग को नई उड़ान मिल सके। सबसे बड़ी बात इन सब की पुष्टि के लिए नये प्रतिष्ठित जर्नल और नोबल जैसे पुरस्कार और इनके कार्यक्रमों को बड़े स्तर पर लांचिंग की गई। लांचिंग सफल हो इसके लिए मीडिया, साहित्य और सिनेमा को भी भागीदार बनाया गया।
समस्या वही है कि आखिर वह मूल विचार क्या था जो मनुष्य के अनुरूप था? अब तो इसी का रिसर्च होना है। हिटलर कहता था झूठ को लाख बार बोल दीजिये वह सत्य पर भारी पड़ जायेगा। अर्थात, सबसे बड़ा सत्य वही बन जायेगा। यह मीडिया संस्थान सबके राजदार बन गये, पुलित्जर और मैग्सेसे पुरस्कारों से नवाजे गये। यह पुरस्कारों की शृंखला अन्य महकमे में बदस्तूर जारी है।
सही और गलत का अनुमान लगाना वैसे ही मुश्किल हो गया है कि जैसे मुर्गी पहले आई कि अण्डा लेकिन जीभ का स्वाद दोनों को बनना है।
विश्व की विविधता को छद्म विकासवादी विकास और सुधार के नाम नष्ट कर रहे हैं, इतिहास में ऐसे नैरेटिव सेट किये गये कि राणा, शिवाजी, बाजीराव देशद्रोही और अकबर राष्ट्रवादी औरंगजेब सेकुकर, बर्बर विदेशी आक्रांता निर्माणकर्ता, लुटेरा अंग्रेज भारत का उद्धारकर्ता और इसाई मिशनरियां सबसे बड़ी सेवादार।
इनके अनुसार जैसे भारतीय व्यवस्था बिल्कुल सड़ी हुई थी उसे कोई मुगल या अंग्रेज लपक सकता था। भारत की विविधता की बात हो तो वह चाहे संस्कृति, समाज, बाजार, व्यापार, समयानुकूल खाद्यान्न, परिधान इन सबका गल्प इतिहासकारों ने वर्णन ही नहीं किया या छुटपुट इसतरह का वर्णन किया कि वह आपको भी बुरी लगे। क्षेत्रीय सामाजिक समस्या को अखिल भारतीय सनातन धर्म की समस्या कह कर स्कूली शिक्षा में पर्दा, सती प्रथा नाम दिया लेकिन इनके पीछे के उन कारणों को नहीं बताया।
आर्यो को बाहरी और मुगलों को देशी बना दिया गया। अंग्रेज व्यापारी था भारत की कुव्यवस्था देख कर राजनीति में हिस्सेदारी करने लगा। वहाँ की सीनेट भारत की बेहतरी के लिए काम कर रही थी। वह तो 1857 के स्वतंत्रता समर नायक, नायिका अपने स्वार्थ के लिये जब विद्रोही से मिल गये और समाज में अव्यस्था फैल गयी तब जाके बेचारी रानी विक्टोरिया ने कम्पनी से शासन की बागडोर ले ली। ऐसा तो इतिहास हमारे स्कूल में बच्चों को पढ़ाया जा रहा है।
आर्य, हिब्रू, हित्ती, बेबीलोनियन, चीन, ग्रीक, रोमन, माया, नील घाटी और जापानी सभ्यता को नदी मान कर उन्हें अंग्रेज रूपी राक्षसी समुद्र में उड़ेल कर आधुनिकता का जामा पहना दिया गया। नस्लों, धर्मो की सांप सीढ़ी का खेल विश्व के मैदान पर विचारक कलम से खेल रहे हैं।
आप सुबह के न्यूज पेपर का इंतजार करिए, दिनभर का मसाला मिल जायेगा। यह ऐसा नशा है जो सीधे दिमाग की नसों में घुस जाता है फिर आपके पास विचार करने को विचार कहाँ रह जाता है?
नोट: प्रस्तुत लेख, लेखक के निजी विचार हैं, यह आवश्यक नहीं कि संभाषण टीम इससे सहमत हो।
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