दोष व्यक्ति में है? धर्म में या समाज में?
यदि ध्यान से देखें तो व्यक्ति समाज में रहता है। जीवन को लयबद्ध, अनुशासित और नैतिक आवधरणा के लिये धर्म विकसित हुआ जिससे मानवता का विकास हो सके और मनुष्य उन्नति के शिखर पर पहुँच सके।
निश्चित ही मानव जाति किसी एक ही स्त्री पुरुष का परिणाम है।
इसके बावजूद द्वेष, हिंसा और युद्ध के बाद भी मनुष्य शांत नहीं हुआ। नारी के लिये कहा जाता है कि उसकी एक ही जाति है, नारी। फिर पुरुष तो पुरुष जाति का हो ही गया।
मनुष्य ने कितने प्रकार के धर्म बनाये फिर तंत्र और वाद बनाये, समस्या जस की तस धरी रही। सारे विचार दम तोड़ दिये। अब लगता है, राजतंत्र ही ठीक था? आप कहेंगे क्या दकियानूसी बात करते हो?
अब देखिए, सफगोई से कहा जाय तो तंत्र या वाद में अच्छाई नहीं होती, उसके मानने वाले की होती है। एक बात तो स्पष्ट है इस समय जो शिक्षा दी जा रही है वह मानवता का विकास करने में नाकाफी है।
हार जीत का द्वंद है, एक व्यक्ति दूसरे से सभी क्षेत्रों में जीतना चाहता है, वह भी केवल हार टालने के लिये जबकि हार परिपक्वता लेकर आता है। हम अपने बच्चों को ऐसी प्रतियोगिता में डाल दे रहे हैं जहाँ यह जानते हुये कि वह भी मेरी तरह असफल और कलहपूर्ण जीवन में फंस जायेगा, वह अपने सिवा किसी को जिंदा नहीं मानेगा। सबसे आगे रहने की चेष्टा में सबको धकेलता हुआ आगे बढ़ने का प्रयास करेगा। फिर तो यही रस्साकसी सब करेगें, सुधार की गुंजाइश शून्य ही रह जाएंगी।
आज विश्व की जो बनावट हो गई है वह बसावट को ही तोड़ने पर आमादा है।
कुछ लोगों के राजनीति और व्यापार के खेल का गणित है जो सामाजिक शतरंजी चालें चल रहा है। मुख्य समस्या है गरीबी का महाभारत जो लालच के समुद्र में हिचकोले खा रहा है। धर्म, जात-पात, वर्ग, नस्ल, स्थान का प्रयोग स्वयं ही करता है। विश्व के एक प्रतिशत लोगों के पास 50 प्रतिशत सम्पत्ति है। यदि इसे 10 फीसदी लोगों में देखे तो 80 फीसदी हो जाती है।
करोड़ो के घोटाले हजारों में हो रहे हैं। एक अदने से बाबू और अधिकारी के पास 500 करोड़ या हजार करोड़ की बेनामी संपत्ति निकल आती है। स्विट्जरलैंड या टैक्स हैवेन देशों के चोर बैंकों में इनके पैसे लाखों करोड़ में जमा हैं। इन भ्रष्टों की कोई जाति नहीं है। यह केवल लूटने और लड़ाने में यकीन करते हैं। जुगत इसे बचाने की है। गरीब को तो किसी आधार पर एक दूसरे के खिलाफ किया जा सकता है। फिर सत्ता के खेल असमानता के पुल जगह – जगह बनाये जा सकेंगे। वही पुराना खेल चलता रहेगा यदि हम कृतिम असमानता को रोक ले तो विश्व जैसा चाहते हैं वैसा ही हमें मिलेगा।
आतंकवाद की बात होती है किंतु इन आतंकियों को हथियार गोला बारूद और धन कहा से मिलता है? इस पर बात नहीं होती है। विश्व में 200 से ऊपर देशों में कुछ मुद्दे ऐसे हैं जिससे आम जनमानस की संवेदना को जोड़ा जाता है। जब चाहे इसे उभार कर दोहन भी कर लिया जाता है। और हाँ, आतंकवादियों की कोई जाति अभी तक नहीं हो पायी।
सामान्य मनुष्य सामान्य तक देख पाता है कुछ आंतरिक सुधार करें तो सामाजिक स्तर पर सफलता मिल सकती है। जब विश्व अशांति के भय और हिंसा में जी रहा हो तो लोग संत बन के भी शांति न पा सकते हैं।
देखा जाय तो हम कभी भी इंसान से प्रेम नहीं करते, केवल उसके ओहदे से, धन से या तन से करते हैं। जिस दिन वास्तव में प्रेम कर लेंगे, (जो लेन – देन और शरीर के व्यापार के ऊपर हो) उस दिन ये प्रेम, सम्मान या आदर के लिए शोर करना या बताना नहीं होगा। विश्व जब से मौद्रीकृत हुआ है, हम सब ने हर चीज का आकलन धन में करना शुरू कर दिया। मूलस्वभाव अंत:करण के आवाज सब सो गये हैं। जब तक समस्या के मूल में प्रहार न करेंगे तब तक तो आप वोट ही बनेंगे और भौतिक ईकाई मनुष्य के रूप में स्वीकार नहीं होंगे।