स वा इदं विश्वममोघलील (श्रीमद्भागवत), भगवान की लीला अमोघ है, वे लीला से ही इस संसार का सृजन, पालन और संहार करते हैं किन्तु इसमें आसक्त नहीं होते। चक्रपाणि भगवान की शक्ति और पराक्रम अनन्त है, उनकी कोई थाह नहीं पा सकता। उनकी लीला के रहस्य को वही जान सकता है, जो नित्य-निरंतर निष्कपटभाव से उनके चरणकमलों की दिव्य गंध का सेवन करता है- सेवाभाव से उनके चरणों का चिन्तन करता है। भगवान न जन्म लेते हैं और न कर्म ही करते हैं, फिर भी पशु-पक्षी, मनुष्य, ऋषि, जलचर आदि में भगवान जन्म लेते हैं और उन योनियों के अनुरूप दिव्य कर्म भी करते हैं। यही भगवान की लीला है।
भगवान सर्वज्ञ हैं अर्थात सब कुछ जानते हैं, सर्वशक्तिमान हैं अर्थात सब प्रकार की शक्ति से सम्पन्न हैं। यदि भगवान को हम निर्गुण-निराकार ही मानें, सगुण-साकार नहीं तो भगवान न तो सर्वज्ञ कहला सकते हैं और न ही सर्वशक्तिमान (इस प्रकार तो भगवान निर्गुण से सगुण बनना नहीं जानते और निराकार से साकार होने की शक्ति उनमें नहीं होगी)। अर्थात भगवान में एक ज्ञान और एक शक्ति की कमी सिद्ध होगी और इस प्रकार भगवत्ता ही असिद्ध हो जाएगी। निर्गुण अर्थात गुणगणों के परम आश्रय, अर्थात भगवान शेषी हैं और गुण शेष।
यदि यह माना जाए कि भगवान से गुण निकल गए इसलिए निर्गुण हैं, तो इस युक्ति से भगवान सगुण सिद्ध होते हैं यथा कोई गृह में था वह गृह से निकल गया अर्थात भगवान में गुण था तो निकल गया। ठीक इसी प्रकार आकार को भी समझना चाहिए, यदि आकार न होने से निराकार माना जाए तो वह आकार के अस्तित्व को ही सिद्ध करता है। अतः भगवान लीलापूर्वक गुणों को व आकार को स्वीकारते हैं इस युक्ति से दोनों मतों का समन्वय होता है, अतः भगवान निर्गुण-निराकार तथा सगुण-साकार दोनों हैं।
भागवत में कहा गया है सच्चिदानन्द जब श्रीकृष्ण के रूप में प्रकट होते हैं तो इंद्रियाँ भगवान का अनुभव करती हैं। अर्थात अवतार प्राणियों के परम कल्याण के लिए होता है, यही मुख्य प्रयोजन है। सारे संसार को संकल्प मात्र से उत्पन्न करने और संहार करने वाले ईश्वर हिरण्यकशिपु, रावण आदि को बिना अवतार लिए संकल्पमात्र से भी मार सकते हैं, यह मुख्य प्रयोजन नहीं है। यदि ईश्वर निर्गुण-निराकार ही रहेंगे तो सबकी शरणागति कैसे होगी? भगवान सगुण-साकार होंगे तभी तो उनके चरणारविंदों के दर्शन सुलभ होंगे और शरणागति सुलभ होगी।
‘जो लोग इस संसार में अज्ञान, कामना और कर्मों के बंधन में जकड़े हुए पीड़ित हो रहे हैं उन लोगों के श्रवण और स्मरण करने योग्य लीला करने के लिए भगवान अवतार ग्रहण करते हैं, भक्तजन बार-बार उस चरित्र का श्रवण, गान, कीर्तन एवं स्मरण करके आनंदित होते हैं और अविलम्ब भगवान के चरणकमलों के दर्शन कर पाते हैं जो जन्म-मृत्यु के प्रवाह को सदा के लिए रोक देता है’ – श्रीमद्भागवत पुराण।
भगवान विष्णु के अवतार (द्वादश देवासुर संग्राम के परिपेक्ष्य में):
जब युगधर्म का ह्रास हो जाता है और उसके प्रभाव शिथिल हो जाते हैं, युगान्त के अवसर पर वे महामहिमामय भगवान भृगु के शापवश देवताओं के कार्य को पूर्ण करने के लिए अर्थात देवासुरों के संघर्ष की शान्ति के लिए एवं धर्म की व्यवस्था के लिए इस मर्त्यलोक में अवतार लेते हैं (वायुपुराण)। वाराहकल्प में देवताओं और असुरों के बीच बारह युद्ध भागप्राप्ति के निमित्त हुए जिनमें षण्ड और अमर्क (दैत्य पुरोहित) सभी युद्धों में सम्मिलित कहे जाते हैं। इनमें प्रथम युद्ध नरसिंह भगवान का था, दूसरा वामन भगवान का, तीसरा वाराह भगवान का, चौथा अमृतमंथन का, पाँचवा परम दारुण तारकामय नामक संग्राम था, छठवाँ आडीबक (आजीवक) और सातवाँ त्रिपुर दहन था। इन युद्धों में आठवाँ अंधकार युद्ध (अन्धकवध) एवं नवाँ ध्वज युद्ध (वृत्रविघातक) कहा जाता है। दसवाँ युद्ध वार्त (जित्) और ग्यारहवाँ हालाहल के नाम से विख्यात है। इसी प्रकार बारहवें युद्ध का नाम घोर कोलाहल है (अग्निपुराण)। द्वादश देवासुर संग्राम का वर्णन इस प्रकार है:
१. प्राचीन काल में देवपालक भगवान नरसिंह ने हिरण्यकशिपु का हृदय विदीर्ण करके प्रह्लाद को दैत्यों का राजा बनाया था।
२. जब राजा बलि तीनों लोकों पर अधिष्ठित था, उस समय देवताओं की असुरों के साथ प्रगाढ़ मैत्री हो गई थी। ऐसा समय एक युग तक चला। उस समय सारा जगत असुरों से व्याप्त होकर अत्यंत व्याकुल हो उठा। अन्त में बलि-बंधन के समय बलि का विमर्दन करने के लिए देवताओं और असुरों के बीच अत्यंत भयंकर एवं विनाशकारी घोर संग्राम प्रारंभ हो गया। देवासुर संग्राम के अवसर पर भगवान वामन रूप से प्रकट होकर बल और प्रताप में पले-बढ़े राजा बलि को छला और इन्द्र को त्रिलोकी का राज्य दे दिया।
३. वाराह नामक युद्ध उस समय हुआ था जबकि भगवान ने हिरण्याक्ष को मारकर देवताओं की रक्षा की और जल में डूबी हुई पृथ्वी का उद्धार किया। हिरण्याक्ष (हिरण्यकशिपु का भाई) ने युद्ध में देवताओं और मुनियों को जीतकर उन्हें पीड़ा पहुंचाई और तपस्या द्वारा भगवान शंकर की उपासना करके अन्धक नामक श्रेष्ठ पुत्र को प्राप्त किया। हिरण्याक्ष ने देवराज इन्द्र सहित सभी देवताओं को जीतकर पृथ्वी को बांधकर रसातल में ले जाकर बंदी बना लिया। पुरुषोत्तम ने वराह शरीर धारणकर हिरण्याक्ष का वध किया और पृथ्वी का अपने दाढ़ों द्वारा उद्धार किया।
४. जिस समय समुद्र-मंथन के बाद भगवान ने सारा अमृत देवताओं को ही पिला दिया, उस समय देवताओं और दैत्यों में घोर युद्ध हुआ। इस युद्ध में इन्द्र ने प्रह्लाद को पराजित किया था, उससे अपमानित होकर प्रह्लाद-पुत्र विरोचन नित्य इन्द्र का वध करने की ताक में लगा रहता था। वह पृथक-पृथक देवों को तथा पूरे देव समाज को सहन नहीं कर पाता था।
भगवान शंकर के अंशावतार महर्षि दुर्वासा के श्राप के कारण शतक्रतु इन्द्र श्रीहीन हो जाते हैं और समस्त देवता दानवों से पराजित हो जाते हैं। देवताओं को पुनः सबल बनाने और अमर करने के लिए भगवान विष्णु ने समुद्र-मंथन का उपाय बताया जिसमें अमृत देवताओं को ही प्राप्त हों ऐसी युक्ति कर भगवान देवताओं का हित करते हैं। समुद्र मंथन में केवल मंथन का क्लेश ही दैत्यों के हिस्से आया।
५. तारकामय संग्राम के अवसर पर ब्रह्माजी ने इन्द्र, बृहस्पति, देवताओं तथा दानवों को युद्ध से रोककर देवताओं की रक्षा की और सोमवंश को स्थापित किया। इसी संग्राम में इन्द्र ने अपना पराक्रम प्रकट कर विरोचन को यमलोक का पथिक बना दिया। इस दैत्य ने शंकर भगवान की आराधना कर अस्त्र-शस्त्र आदि से न मारे जाने का वरदान प्राप्त किया था। अतः इन्द्र के शरीर में आविष्ट होकर संग्रामभूमि में भगवान विष्णु ने उसका संहार किया था।
६. आजीवक युद्ध में ऋषि विश्वामित्र, वसिष्ठ और अत्रि ने राग-द्वेष आदि दानवों का निवारण करके देवताओं का पालन किया।
७. पृथ्वीरूपी रथ में वेदरूपी घोड़े जोतकर भगवान शंकर उस पर बैठे, ब्रह्मा जी सारथि बने और त्रिपुर का नाश करने के लिए चले (अतः नाम त्रिपुरारि अथवा पुरारि)। उस समय देवताओं के रक्षक और दैत्यों का विनाश करने वाले भगवान श्रीहरि ने शंकरजी को शरण दी और बाण बनकर स्वयं ही त्रिपुर का दाह किया।
मय नामक एक महान मायावी दानव था, संग्राम में देवताओं द्वारा पराजित होने पर उसने घोर तपस्या की। उसके साथ दो अन्य दैत्य विद्युन्माली और तारक भी उसी उद्देश्य से मय के साथ घोर तप करने लगे। उन्होंने अपने तप से प्रसन्न ब्रह्माजी से कहा कि वे एक ऐसे दुर्ग का निर्माण करना चाहते हैं जिसे मुनियों के श्राप, देवताओं के अस्त्र व देवता भी पार न कर पाएं। भगवान ब्रह्मा ने कहा उन जैसे असदाचारियों दैत्यों के लिए अमरत्व का विधान नहीं है, अतः तृण से वे अपने दुर्ग का निर्माण करें। इस पर मयदानव ने एक अन्य वर मांगा कि जो एक बार छोड़े गए एक ही बाण से उस दुर्ग को जला दे वही युद्धस्थल में हम सबको मार सके, शेष प्राणियों के लिए हम सब अवध्य हो जाएं। पुष्य नक्षत्र के योग में तीन पुरों का निर्माण किया गया, एक भूतल पर लौहमय (तारक का), दूसरा गगन में रजतमय (विद्युन्माली का) और तीसरा रजतमय पुर से ऊपर सुवर्णमय (मय का)। यह तीनों पुर केवल पुष्य नक्षत्र में आकाशमंडल में मिल जाते थे, यही एक समय था जबकि इसे एक बाण से नष्ट किया जा सके। अपने स्वभाव के अनुरूप इन दैत्यों ने सुरक्षित होने पर सभी लोकों में अत्याचार करना आरम्भ कर दिया।
इनके त्रिपुर का दाह करने के लिए भगवान रुद्र संवत्सर रूप में धनुष बने, अम्बिकादेवी कालरात्रिरूप से प्रत्यंचा बनीं और श्रेष्ठ बाण विष्णु-सोम-अग्नि इन तीन देवताओं के संयुक्त तेज से निर्मित हुआ। बाण का मुख अग्नि और फाल अंधकार विनाशक चन्द्रमा थे। चक्रधारी विष्णु भगवान का तेज समूचे बाण में व्याप्त था। उस बाण के तेज की स्थिरता के लिए नागराज वासुकि के उग्र विष का प्रयोग किया गया। जब भगवान शंकर त्रिपुर के सम्मुख पुष्य-नक्षत्र के योग व तीनों पुरों के एक स्थान पर स्थित होने की प्रतीक्षा कर रहे थे उस समय देवताओं और दानवों में भयंकर युद्ध हुआ।
स्कन्द पुराण के अनुसार बलिपुत्र बाणासुर ने त्रिपुर का निर्माण कराया और महादेव ने अपने विराट धनुष पिनाक द्वारा त्रिपुर की ओर लक्ष्य कर अघोर नामक बाण का प्रहार किया। उस अस्त्र से दग्ध होकर त्रिपुर के तीन खण्ड हो गए, उसे भगवान शिव ने नर्मदा नदी में गिरा दिया। इससे वहाँ जालेश्वर नामक तीर्थ प्रकट हुआ।
८. शंकरजी द्वारा अन्धक नामक युद्ध में त्रिलोकी के सभी दानव, असुर और पिशाच मौत के घाट उतारे गए। उस युद्ध में देवता, मनुष्य और पितृगण भी सब ओर से सहायक-रूप में उपस्थित थे (मत्स्य पुराण)।
अग्नि पुराण के अनुसार, देवी गौरी का अपहरण करने की इच्छा से अन्धाकासुर ने रुद्रदेव को बहुत कष्ट पहुँचाया, यह जानकर श्रीहरि ने उस असुर का विनाश किया। कूर्म पुराण में यह कथा विस्तार से मिलती है, अन्धक (हिरण्याक्ष पुत्र) नामक दैत्य माँ पार्वती को हरने मन्दर पर्वत पर आया। उसे कालरूपधारी कालभैरव ने रोका जिससे अत्यंत रोमांचकारी युद्ध आरम्भ हुआ। उस दैत्य ने अन्धक नाम वाले हजारों दैत्यों को उत्पन्न कर दिया, जिन्होंने नंदिशेण आदि गणों को पराजित कर दिया। वे सभी शिवगण भगवान वासुदेव की शरण में गए, भगवान विष्णु ने उन देवताओं के द्वेषियों को समाप्त करने के लिए श्रेष्ठ सौ देवियों को उत्पन्न किया। उन देवियों ने खेल-खेल में ही अन्धक की सेना को यमलोक पहुंचा दिया।
अन्धक दैत्य के संहार हेतु भगवान शंकर अपने गणों व भगवान विष्णु के साथ चले। भगवान शंकर ने उस दैत्य को अपने त्रिशूल के अग्रभाग पर पिरोकर उस दैत्य के सभी पापों को दग्ध कर दिया और उसे गणपति का पद प्रदान किया।
९. देवताओं और असुरों के युद्ध में वृत्र का नाश करने के लिए भगवान विष्णु जल के फेन होकर इन्द्र के वज्र (महर्षि दधीचि के अस्थियों से इसी उद्देश्य के लिए बनाया गया) में लग गए, इस प्रकार उन्होंने देवराज इन्द्र और देवधर्म का पालन करने वाले देवताओं को संकट से बचाया। वज्र श्रीहरि के तेज और दधीचि ऋषि की तपस्या से शक्तिमान हुआ था। यह देवताओं-दैत्यों का महासंग्राम नर्मदा तट पर वैवस्वत मन्वन्तर के प्रथम चतुर्युग के त्रेतायुग के आरंभ में हुआ। वृत्रासुर के साथ विप्रचित्ति, नमुचि, पुलोमा, मय, अनर्वा, शंबर आदि दैत्य भी इस संग्राम में थे।
इन्द्र ने भगवान विष्णु की सहायता से विप्रचित्ति को युद्ध से विमुख कर दिया, परंतु योग का ज्ञाता विप्रचित्ति अपने को माया से छिपाकर ध्वजरूप में परिणत कर दिया। फिर भी इन्द्र ने ध्वज में छिपे होने पर भी अनुज समेत उसका वध कर दिया था (ध्वज देवासुर संग्राम)।
१०. जित् (धात्र अथवा वार्त्र) नामक दसवाँ संग्राम वह है जबकि भगवान श्रीहरि ने परशुराम अवतार धारणकर शाल्व आदि दानवों पर विजय पायी और दुष्ट क्षत्रियों (ब्राह्मणों के द्वेषी) का विनाश करके देवता आदि की रक्षा की। जब संसार में ब्राह्मणद्रोही आर्यमर्यादा का उल्लंघन करने वाले नारकीय क्षत्रिय अपने नाश के लिए दैववश बढ़ जाते हैं और पृथ्वी के कांटे बन जाते हैं, तब भगवान महापराक्रमी परशुराम के रूप में अवतीर्ण होकर अपनी तीखी धारवाले फरसे से इक्कीस बार उनका संहार करते हैं।
११. ग्यारहवें संग्राम में मधुसूदन ने हालाहल विष के रूप में प्रकट हुए दैत्य का शंकरजी के द्वारा नाश कराकर देवताओं का भय दूर किया (अग्निपुराण)।
१२. देवासुर संग्राम में जो ‘कोलाहल’ नामक दैत्य था, उसको परास्त कर भगवान विष्णु ने धर्मपालनपूर्वक सम्पूर्ण देवताओं की रक्षा की। इस समर में देवताओं ने यज्ञीय अमृत के द्वारा असुरों के पुरोहित षण्ड और अमर्क समेत समस्त असुरों को पराजित किया था।
देवताओं और असुरों के बीच यह १२ युद्ध प्राचीनकाल में हुए थे, जिनमें देवताओं और असुरों का महान विनाश हुआ था और प्रजावर्ग का भी अमंगल हुआ था। हिरण्याक्ष, प्रह्लाद और बलि – ये तीन असुर इन्द्र के समान प्रख्यात थे, दैत्यों से यह जगत दस युगों तक आक्रांत था, उसके बाद दस युगों तक महेन्द्र (पाकशासन राजा इन्द्र) इस त्रैलोक्य की रक्षा करते थे। दैववश असुरों के गुरु भृगुपुत्र शुक्राचार्य ने असुरों को यह श्राप दिया था कि उनकी चेतना नष्ट हो जाएगी और इसी से उनकी पराजय होगी (वे रसातल में प्रवेश करेंगे)। अर्थात १० युग का राज्य ही असुरों को ब्रह्माजी के द्वारा दिया गया था जिसे उन्होंने भोग लिया। जब राजा बलि से समस्त लोक छिन गए तब वह निष्काम भाव से तपस्या में निरत होगा, उसकी प्रवृत्तियाँ निःस्वार्थ होंगी, उस समय अजन्मा ब्रह्माजी प्रसन्न होकर सावर्णिक मन्वन्तर (अभी सातवाँ वैवस्वत मन्वन्तर चल रहा है, सावर्णिक आठवाँ होगा) में उसे अमरत्व प्रदान करेंगे। देवताओं का समस्त वैभव व साम्राज्य बलि को प्राप्त होगा अर्थात विरोचन पुत्र बलि अगले इन्द्र होंगे।
शेष अगले लेख में ..