गांव का ख्याल आते ही मन प्रफुल्लित हो जाता है, खेत – किसान, बाग – बगीचे, लोगों का एक दूसरे से गर्मजोशी से मिलना, खुल कर हंसना, खुल कर खाना, असीम शांति जो मन को तृप्त कर दे। भारत के गांव भारतीय संस्कृति के वाहक हैं जो सामुदायिक जीवन की झलक आज भी समेटे हुए हैं।
जिस ग्रामीण रहन – सहन को आज असभ्य भी कहा जाता है वहां अपनी बचत का एक हिस्सा गृहस्वामिनी के संदूक में रखा होता है। यही वो बचत है जिसने 2008 की वैश्विक आर्थिक मंदी से भारत को बचाया था। आज उसी बचत ने कोरोना की चेन बनने से भी मना कर दिया है।
मोटे तौर पर देखा जाय तो गांव वालों का कहना है कि कोरोना अमीरों की बीमारी है जो शहरों से शुरू हुई है। उनके बेतरतीब जीवन शैली और खान – पान उन्हें ही डाह रही है। शारीरिक श्रम गांव में आज भी कसरत जैसे हैं, विटामिन डी की कोई कमी इनमें नहीं है। जिस कारण इनकी रोग प्रतिरक्षा तंत्र शहरी और लक्जिरियस लाइफ स्टाइल वालों से कही बेहतर है।
कोरोना को हराने में गांव अपनी भूमिका निभा रहैं हैं जबकि शहर फिसड्डी साबित हो रहा है। गांव अपने तरीके से सरकार की मदद भी कर रहे हैं।
गांव के लोगों की सरकार से बहुत सी आशाएं हैं कि उनपर ध्यान दिया जायेगा क्योकि वह अभी भी भारत की कुल आबादी का 70 फीसदी हैं। यद्यपि पिछले कुछ वर्षों में गांव में सड़क और बिजली पर काम हुआ है किंतु चिकित्सा, स्वास्थ्य और रोजगार में वह अभी भी बहुत पिछड़ा है। सरकार रूरल डेवलपमेंट पर पूरी तरह से फोकस करे जिससे गांवो का वास्तविक विकास हो सके। ग्रामीण उत्त्पाद को उसी क्षेत्र के 20 किलोमीटर के दायरे में हब बनाकर इंडस्ट्रियल ग्रोथ को गांव और शहर से लिंक करे।
कृषि उत्पाद का बेहतर मूल्य मिले, धान ₹ 1720/- और गेहूं की ₹ 1950/- कुण्टल क्रय मूल्य (MSP) बहुत ही कम है। आलू और गन्ने का सरकारी बंदोबस्त ठीक नहीं है। इतने कम मूल्य से किसान खुशहाल नहीं हो सकता। उसकी कड़ी मेहनत का सही मूल्य नहीं मिलने से हतोत्साहित होकर खेती करना छोड़ देता है या कर्ज के बोझ से दब कर आत्महत्या को गले लगता है।
किसान की आय को 2022 में दुगुना करने का लक्ष्य सरकार का है, वह तो अपने आप ही 4-5 सालों हो जायेगा। किसान की खुशहाली पर सरकार को फोकस करना चाहिए। गेंहू का क्रय मूल्य कम से कम ₹ 4000/- कुण्टल, धान का ₹ 3200/- कुण्टल रखना चाहिए। इसी के बनिस्पत अन्य रबी और खरीफ की फसल का मूल्य मिले जिससे अन्नदाता सुखी हो सके।
कृषि आधारित देश की नीतियां बाजार आधारित उद्योगों को केंद्र में रख कर बनाई जाती हैं। 1947 में विश्व GDP में जितनी भारत की हिस्सेदारी थी वही 2020 में भी बनी हुई है। इस लिए नीति – नियंता को चाहिए कि कृषि को केंद्र में रख कर एक पंचवर्षीय योजना संकल्प से कार्य करे, निश्चित ही परिणाम बेहतर होंगे।
जब किसान मजबूत होगा तब उसकी क्रयशक्ति मजबूत होगी जो अंततः बाजार को ही लाभ देगी। गांवों की शक्ति की जरूरत उद्योगों को भी है बिना दोनों के आपस में जुड़े भारत विश्व के विकास के पहिये को नहीं घुमा पायेगा।
नोट: प्रस्तुत लेख, लेखक के निजी विचार हैं, यह आवश्यक नहीं कि संभाषण टीम इससे सहमत हो।
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आपकी बातों से मैं सौ प्रतिशत सहमत हूँ. लेख के रूप में आपने बहुत अच्छी तरह से सभी बातों को जोड़ा है, धन्यवाद!