मेरी द्वारकाधीश और सोमनाथ यात्रा – भाग २

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Dhananjay Gangey
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मेरी द्वारकाधीश और सोमनाथ यात्रा – भाग १ से आगे …

सोमनाथ दर्शन :

बस की प्रतीक्षा और अहमदाबाद वापसी का सफर। रात्रि में अहमदाबाद आ गये। लेकिन बस मिलने में बड़ी कठिनाई का सामना करना पड़ा क्योंकि सरकारी बसों की सीट ऑनलाइन माध्यम से लगभग भर चुकी थीं।


मन और शरीर दोनों को जल्द से जल्द प्रभास तीर्थ क्षेत्र पहुँचने की अभिलाषा थी, एक ओर आंख को नींद चाहिए थी लेकिन दूसरी ओर आत्मा को शिव। इन्हीं सब के बीच एक प्राइवेट बस मिली। विनय के न चाहते हुए भी अहमदाबाद रुकने की जगह उन्हें बस में बैठना पड़ा क्योंकि मेरी तीव्र इच्छा थी कि जितनी जल्दी हो सके प्रभास क्षेत्र पहुँच जाएं।

बस वाले ने जो सीट दी वह ड्राइवर के केबिन में थी। बस नॉन एअर कंडीशनर थी और गर्मी भी बहुत लग रही थी। मैं सीट पर बैठे नहीं रह पाया तो बस के पायदान पर बैठ गया जिससे कि थोड़ी हवा लग सके। हवा के चक्कर में आंख भी लग गयी। एक बार तो गिर ही जाते जो विनय ने थाम न लिया होता। उन्होंने अपने पास बैठाया और कहा कि दोस्त इतना जल्दी भी न करो कि सीधे भगवान वाला टिकट ही न कट जाये।

बहरहाल हम सुबह – सुबह राजकोट पहुँच गये, यहीं से सोमनाथ के लिए बस बदलनी थी जो दोपहर में पहुचाने वाली थी। आज ही इंडिया का मैच राजकोट में था। राजकोट बहुत साफ सुथरा और हरियाली लिए हुए शहर है। कुछ घण्टे यहाँ भी बीते। अब वह बस मिल चुकी थी जिससे सोमनाथ पहुँचना था। बैठते ही सोमनाथ मंदिर की कथा, द्वादश ज्योतिर्लिंग और महमूद गजनवी का आतंक मन में चलने लगा। भारत के राजवंश के साथ भारत के योद्धाओं की पराजय और गद्दारों का इतिहास मन में दौड़ना शुरू हो गया। कई बार ऐसा लगा कि काश मैं उस समय होता तो गजनवी की गर्दन काट कर महादेव को अर्पित कर देता।

इतिहास में किन्तु – परन्तु का कोई स्थान नहीं होता है। भारत के शौर्य और क्षत्रिय के तलवार में ज़रा भी संशय नहीं है, वह तो तब भी आज ही कि तरह गद्दार थे जो वीरों का सौदा चंद सिक्कों और सत्ता के लोभ में कर लेते थे। उन्हीं के वंशज आज भी वैसे सौदे जारी रखे हैं।

दोपहर तक बाबा की नगरी सोमनाथ और भगवान कृष्ण की कर्मभूमि प्रभास पाटण आ पहुंचे। सोमनाथ मंदिर ट्रस्ट के अध्यक्ष मोदी जी हैं इससे आप समझ सकते हैं कि मंदिर ट्रस्ट की व्यवस्था कितनी सुदृढ़ होगी। मंदिर ट्रस्ट की तरफ से ठहरने को कमरा मिल गया, वही मंदिर के बगल में ही खाने की बढ़िया व्यवस्था थी। यह भी जानकारी मिली कि पूरा प्रभास क्षेत्र के दर्शन कराने के लिए मंदिर की बस जाती है।

दोपहर के समय रूम पर पहुंच फ्रेश होकर सो गये क्योंकि सफर दिन रात्रि दोनों का था सो थकन भी बहुत हो रही थी। शाम को जल्दी तैयार होकर मंदिर पहुँच गये। सोमनाथ मंदिर जिसका जबरदस्त धार्मिक और राजनीतिक दोनों इतिहास है। मंदिर का प्रांगण बहुत बड़ा और शिल्पकारी प्राचीन मंदिर के आधार पर आधारित है क्योंकि अभी भी एक प्राचीन ध्वंस मंदिर प्रांगण में मौजूद है।

प्रभु के दर्शन, गंगा जल अर्पण, मंत्र और गीता स्तुति करने के बाद, मंदिर को जी भर निहारने और फिर समुद्र पर टकटकी चलती रही। अभी मन भरा नहीं था अभी और दर्शन की दरकार थी। भीड़ भी थोड़ी कम हुई तो मंदिर में बार – बार दर्शन चलता रहा। मंदिर बन्द होने का समय हो गया था इसलिए हम वापस लौट आये।

सुबह के समय जूनागढ़ के गिरनार पहाड़ जाना था, भगवान दत्तात्रेय के दर्शन करने। प्रभास क्षेत्र के लिए कुल चार दिन के पुण्यार्जन का समय ईश्वर ने अभी के लिए नियत किया था।

मंदिर से बस के माध्यम से एक घण्टे की दूरी पर गिरनार का सिद्ध क्षेत्र था जिसके लिए किंवदंती है कि यहाँ सिद्ध, जानवरों के रूप में विचरण करते रहते हैं, नागा साधू भी यत्र – तत्र रमन करते दिखाई देते हैं।

मंदिर पहाड़ की तीन चोटियों पर है, एक पर माता, दूसरे पर गोरखनाथ बाबा, तीसरे पर दत्तात्रेय भगवान और बीच में 10000 सीढ़ियां पड़ती हैं जिनमें 5000 सीढ़ियों पर माता का मंदिर है। कोई रोप-वे आदि की सुविधा अभी तक नहीं है तो पैरो की जिम्मेदारी थी शरीर को पहुँचाने की और शरीर को पहुँचाने की जिम्मेदारी आत्मा पर।

अंततः शुरू हुआ दर्शन करने का सफर, साथी विनय का साथ भी पीछे छूट गया क्योंकि वह धीरे चल रहा था और मुझे बार – बार रुकना पड़ रहा था जिसके कारण मैं थक जा रहा था तब निर्णय लिया गया कि अपनी प्राकृतिक चाल को बरकरार रखा जाए, जिससे दर्शन सुलभ हो पायेगा। चल पड़े 9000 सीढ़ी अकेले, बीच में कुछ सुंदर जैन मंदिर भी पड़े थे, कुछ गुफाएं, प्राकृतिक जल स्रोत और राम गंगा आदि। यहाँ लोगों की संख्या दुर्गम चढ़ाई होने के कारण कम थी।

मन में संकल्प था पहला पड़ाव 5000 सीढ़ी पूरा करके माताजी के दर्शन करना, आखिर पहुँच गये मंदिर में। माता के दर्शन करके वही बाहर कुछ देर लेट भी गये। जब स्वयं की देह समझ आने लगी तब फिर दूसरी पहाड़ी भैरव बाबा के दर्शन को चल पड़े।

आगे का रास्ता अब कठिन था जिसमें 4500 सीढ़ी थीं, जिसमें नीचे उतर कर फिर ऊपर तीसरे पहाड़ पर पहुँचना था। इसमें बड़ी दिक्कत थी रास्ते में पानी का नहीं मिलना और दोपहर का समय।

एक बार लगा कि हिम्मत जवाब दे जायेगी, ऊपर नहीं चढ़ पाऊंगा, समय – समय पर प्यास भी भारी पड़ रही थी। फिर दत्तात्रेय भगवान को याद किया कि हे प्रभु आप ही वहाँ पहुंचाइए। किसी तरह से गिरते पड़ते 10000 सीढ़ियों की तपस्या पूरी करके भगवान दत्तात्रेय के सन्मुख उपस्थित हुए। मन में नई स्फूर्ति आई, अब लगा कि वापस भी लौट सकेंगे।

भूख और प्यास दोनों जोरों की लगी थी लेकिन 4500 सीढ़ी उतरने के बाद ही कुछ मिलना था। गर्मी के बीच ही यात्रा जारी थी, पानी भी समाप्त हो गया था। कोई 3800 सीढ़ी उतरने के बाद आंखों के सामने अंधेरा दिखने तब लगा वहीं बैठ गये। जब एक सज्जन पुरुष ने थोड़ा अमृत रूपी जल पीने को दिया तब जाकर फिर से जीवन बहाल हुआ और आगे का सफर सुचारु रूप से चलने लगा। गोरखनाथ बाबा के मंदिर के पास मेरी विनय से दुबारा मुलाकात हुई जो पीछे रह गये थे, मैंने उनसे कहा कि मैं नीचे पहुँचता हूँ तुम दर्शन करके आओ।

बीच में सीढ़ियों पर काफी देर लोट – पोट करके शरीर को पुनः चलने लायक बनाया और नीचे आया। फिर कुछ खाकर जठराग्नि शांत करके विनय का इंतजार करने लगा।

गिरनार पहाड़ी का प्राकृतिक दृश्य बहुत मनोहर था, कौतूहल सिद्धों को देखने की थी जो पूरी तरह पूरा नहीं हो पाया। एक बाबा जी ने कहा कि उन्हें तब तक नहीं देख सकते जब तक वह न चाहें।

गिरनार के पहाड़ियों में ही जूनागढ़ शिलालेख है जिसमें अशोक, रुद्रदामन, स्कन्दगुप्त आदि के समय के लेख सुरक्षित हैं। इन्हें ही संस्कृत भाषा का पहला शिलालेख माना जाता है। बांध बनवाने का निर्देश शिलालेखों में मिलता है।

जब विनय आ गये तब हम दोनों लोग एक बार फिर सोमनाथ पहुँच गये। नए दिन के साथ पूरे प्रभास तीर्थ क्षेत्र का दर्शन करना था। सुबह मंदिर दर्शन के बाद प्रभास के लिए मंदिर की बस से चल दिये।

राम मंदिर, तीन नदियों का संगम और भगवान कृष्ण के गोलोक धाम जाने, अंत्येष्टि स्थल, वेरावन, भालका तीर्थ, पांडव के मन्दिर, शंकराचार्य की गुफा आदि – आदि के दर्शन करने थे।

पहला स्थल राम मंदिर है इसके पार्श्व में हरिहर वन जहाँ भगवान परशुराम ने तपस्या की थी। माता का मंदिर और जल कुंड है मंदिर में थोड़ा जल सदा ही बना रहता है।

यहाँ से कपिला, हिरण्या और सरस्वती नदियों का संगम होता है। आगे चलकर इसी त्रिवेणी का समुद्र से संगम हो जाता है। यही कपिला नदी के तट पर भगवान कृष्ण ने अपना देहोत्सर्ग किया था। जब श्री कृष्ण का भालका में तीर लगने से देह शांत हो गयी तब बलराम प्रभु को यहीं लेकर आये थे। भगवान के पदचिन्ह अभी भी अंकित हैं। भगवान के देहोत्सर्ग के बाद बलभद्र भी वहीं गुफा से शेष रूप में क्षीर सागर को चले गये, चिन्ह गुफा में अंकित हैं।

यहीं थोड़ा आगे ही यादव स्थल है जहाँ यादव योद्धा कलूरीपट्टन और युद्धाभ्यास करते थे। यहीं 56 करोड़ यदुकुल वंशी दुर्वासा ऋषि के श्राप से आपस में लड़ कर नष्ट हो गये।

पांडवों ने वनवास काल में कुछ वर्ष प्रभास क्षेत्र में बिताया था, वह भी यहीं है। एक प्राचीन सूर्य मंदिर और सूर्य कुंड भी यहाँ पर है।

चन्द्रभागा शक्तिपीठ जहाँ माता का उदर गिरा था, वह भी यहीं है। शंकराचार्य की गुफा समुद्र तट के निकट ही पहाड़ी में है।

काशी के मणिकर्णिका घाट की तरह यहाँ भी समुद्र तट पर श्मशान घाट है जहाँ जलाये जाने पर मुक्ति मिलने की अवधारणा है। समुद्र का दृश्य विहंगम है। नदी, समुद्र, त्रिवेणी में स्नान प्रयाग और काशी दोनों का यहाँ संगम करा देता है।

वेरावन जहां से बहेलिये ने तीर चलाया था जो भालका में वृक्ष के नीचे लेटे भगवान के पैर में लगा था।

वेरावन में कुछ शिवलिंग घाट से अंदर समुद्र में हैं जो लहरों के साथ समाहित और प्रकट होते रहते हैं, यह दृश्य मन को मुग्ध कर देने वाला है।

इन सब के बावजूद आज कल वेरावन समुद्री मछली पकड़ने का विश्व में बहुत बड़ा स्थल बना हुआ है, यह हर समय मछुवारों के समुद्री नौका और मछली की गंध से अटा पड़ा रहता है। खैर, कलियुग अपना प्रभाव छोड़ेगा ही।

यहाँ से लौटते समय मन भारी हो गया था, श्री कृष्ण भगवान की मृत्यु यहीं हुई थी, यह सोच कर ऐसा लग रहा था कि जैसे भगवान चले गये। मन में बड़ा कष्ट हो रहा था। लेकिन मृत्यु तो आखिर सत्य है, जिसे स्वीकार करना ही पड़ता है। शरीर की महिमा भी कम नहीं है, यह शरीर ही ऐसा है जो भगवान से जुड़े स्थानों के दर्शन कराने ले गया।

मेरा जन्म प्रयाग में हुआ है, काशी, अयोध्या और मथुरा निकट होने से मन में यह भ्रांति हो गयी थी कि भारत के सबसे पवित्र स्थान पर रहते हैं किंतु प्रभास पाटण ने सारी भ्रांति को दूर कर दिया कि पुण्यता और दिव्यता किसी एक जगह केन्द्रित न होकर सम्पूर्ण भारत के क्षेत्र में है। एक दिव्य क्षेत्र जो शरीर, मन और आत्मा को बहुत गहरे स्तर पर आकर्षित करता है।

लौटते हैं सोमनाथ मंदिर पर। चन्द्र देव को श्राप मिला था जिससे मुक्त होने के लिए उन्होंने यहीं पर शिव जी की उपासना की। चन्द्र का एक नाम सोम है, शिव अर्थात सोम के नाथ। इस मंदिर का वर्णन ऋग्वेद, महाभारत, भागवत और स्कंद पुराण के साथ अन्य ग्रंथों में भी मिलता है। भगवान कृष्ण ने यहाँ दारू (लकड़ी) से मंदिर का निर्माण करवाया था।

ईसा पूर्व भी यहाँ मंदिर था, द्वितीय सदी में मैत्रेय राजाओं द्वारा बनाया गया। तब से मंदिर को 17 बार लूटा गया है, पहली बार सिंध का अरबी किलेदार जुनैद फिर मोहम्मद गजनवी जिसका वर्णन अलबरूनी ने अपनी पुस्तक ‘किताबुल हिन्द’ में किया है। अलाउद्दीन खिलजी का सेनापति नुसरत शाह, गुजरात के स्थानीय मुस्लिम शासकों द्वारा और अंत में दो बार औरंगजेब ने मंदिर लूटा। पुर्तगालियों द्वारा भी मंदिर को लूटा जा चुका है।

1783 इस्वी में मराठों के शासन काल में इंदौर की रानी अहिल्याबाई होल्कर ने पूजा के लिए प्राचीन ध्वंस के समीप एक भव्य मंदिर बनवाया था।

भारत की स्वतंत्रता के पश्चात लौहपुरुष सरदार बल्लभ भाई पटेल ने संकल्प लिया कि मंदिर की पुनः स्थापना उसी स्थान पर की जायेगी। यह राष्ट्र को 1955 इस्वी में भारत के प्रथम राष्ट्रपति राजेन्द्र बाबू द्वारा समर्पित किया गया और 1995 इस्वी में पूरी तरह से बन कर तैयार हुआ।

मंदिर के दक्षिणी भाग में वाणस्तम्भ नामक समुद्री यंत्र लगा हुआ है जो निर्देशित करता है कि मंदिर से दक्षिण ध्रुव तक कहीं जमीन नहीं है, सिर्फ जल है। जो यह बताता है कि प्राचीन काल में भारतीयों को समुद्री मार्गों का भरपूर ज्ञान था।

मंदिर का तट समुद्री व्यापार का केंद्र भी रहा है। विदेशों से भी यहाँ व्यापार के लिए जहाज पहुँचते थे। आज कल मंदिर के ऊपर ही लेज़र लाइट से मंदिर का पूरा इतिहास दिखाने के लिए रोज दो शो चलता है जिसका लाभ दर्शनार्थी उठा सकते हैं।

आज का मंदिर अद्भुत, विशाल, सुंदर नक्काशी और गज़ब की वास्तुकला को समेटे हुए है। मंदिर देखते ही भारत का पूरा इतिहास आँखों के सामने तैरने लगता है। जैसे ही शिवलिंग के दर्शन होते हैं सब कुछ शिव मय हो जाता है। आप ईश्वर के अंश बन जाते हैं, सभी माया मोह से मुक्त होकर अबोध बन जाते हैं। यह अलग बात है कि मंदिर प्रांगण से बाहर आते ही माया फिर से कंधे पर सवार हो जाती है।

अगले दिन सुबह यात्रा के सबसे महत्वपूर्ण पड़ाव और भारत के तीसरे धाम द्वारकाधीश के लिए बाबा से आशीर्वाद लेकर निकले। लेकिन बाबा सोमनाथ से जो अपनापन हो गया था उसके कारण चलते – चलते आँखें भर आईं, ऐसा लगा जैसे कोई अपना पीछे ही छूट रहा है लेकिन यह तो जीवन है जो निरन्तर गतिशील रहता है।

मन में एक हर्ष घुमड़ रहा था कि जीवन में एक संकल्प तो पूरा हुआ अब द्वारकाधीश के दर्शन सुलभ होंगे और आज शाम को ही भगवान श्रीकृष्ण की कर्म नगरी द्वारकाधीश पहुँचने को मिलेगा।

नोट : ‘मेरी द्वारकाधीश और सोमनाथ यात्रा’ तीन भागों में है, पिछला अंक : मेरी द्वारकाधीश और सोमनाथ यात्रा – भाग १ और अगला अंक है : मेरी द्वारकाधीश और सोमनाथ यात्रा – भाग ३ “द्वारकाधीश के दर्शन और यात्रा का समापन”


नोट: प्रस्तुत लेख, लेखक के निजी विचार हैं, यह आवश्यक नहीं कि संभाषण टीम इससे सहमत हो।

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